हरिराम पाण्डेय
10जून 2011
रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के आंदोलन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई को भाजपा नेता लाकृष्ण आडवाणी ने जलियांवाला बाग कांड की संज्ञा दी और उसके विरोध में राजघाट पर अनशन किया, सुषमा जी ने (देशभक्ति गान पर) ठुमके लगाये और बुधवार को गांधीवादी अण्णा हजारे ने गांधी टोपी पहन कर दिन भर का अनशन भी किया। बड़ी भीड़ थी। कहां - कहां से लोग आये थे पता नहीं। इरादा था बताने का कि दमन की ताकत के मुकाबले नैतिकता की शक्ति है। जब जिक्र जलियांवाला बाग का हुआ तो जरूरी है इतिहास में झांकना। इस कांड के एक दिन पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने बापू से कहा था कि 'शक्ति किसी भी रूप में असंगत है।Ó संभवत: विश्व को यह मालूम था कि सत्ता की शक्ति, चाहे तब की हो या अब की, कितनी दमनकारी और विध्वंसक होती है। लेकिन उनकी चेतावनी केवल सत्ता की ताकत के लिये नहीं थी, उनकी चिंता का विषय था जनता का नैतिक बल। उन्हें मालूम था कि जनता न केवल खून खराबा कर सकती है बल्कि वह उसे जन आक्रोश बता कर उचित भी बता सकती है। गुरुदेव को चिंता इसी स्थिति की थी। उनकी चेतावनी सत्याग्रह के खिलाफ थी जिसे वे नैतिक नहीं मानते थे। उस काल में देश में गांधी के नैतिक बल के बारे में सबसे ज्यादा जानने वाले और उसके प्रति सबसे ज्यादा आश्वस्त रहने वाले रवींद्रनाथ ही थे। इसके बावजूद वे भीड़ की राजनीति के प्रति सशंकित थे। महात्मा गांधी की तरह उनका भी मानना था कि राजनीति में हथकंडे ठीक नहीं होते और उनका प्रयोग पूरी तरह नैतिक नहीं होता है। सत्याग्रह यानी राजनीति में सत्य की क्षमता का उपयोग दरअसल आत्म बल का उपयोग होता है जो अपने आप में प्रेम और करुणा का स्वरूप है। प्रेम और करुणा केवल उनके लिये नहीं होती जो कुचले हुए हैं या पीडि़त हैं बल्कि उनके लिये भी है जिनके खिलाफ आंदोलन हो रहा है। जब आप दूसरे की मानवीयता को स्वीकारेंगे तब कहीं जा कर सच के धरातल पर वार्ता हो सकती है क्योंकि इसके लिये जरूरी है कि दोनों पक्ष नैतिकता को मानें। शैतानियत में नैतिकता के लिये कोई स्थान नहीं होता। सत्याग्रह दमन , अत्याचार और पाखंड से मुक्ति की कार्रवाई है पर साथ ही साथ यह दूसरे को नहीं दबाने या नहीं सताने की भी कार्रवाई है। रवींद्रनाथ नाथ ने गांधी से हुई अपनी बात के आखिर में कहा था कि 'हमारी कोशिश आत्मा की ज्योति से मुर्दों में प्राण देने की होनी चाहिये।Ó अतएव गांधी और रवींद्रनाथ दोनों का मानना था कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम दोहरा मुक्ति संग्राम है जिसमें पहला है भारत की आजादी की जंग और दूसरा है यूरोप को साम्राज्यवाद से मुक्त करने का संघर्ष। महात्मा गांधी के अनुसार सत्याग्रह का अर्थ परिवर्तनकारी राजनीति ही नहीं है बल्कि सबके लिये एक सुसंगत समाज की रचना भी है। गांधी के लिये अनशन आत्मशुद्धि का साधन था। वे सार्वजनिक अनशन के अवपीड़क स्वरूप से पूरी तरह परिचित थे और यही कारण था कि वे इसके परपीड़क प्रभाव से हमेशा सचेत रहते थे। बाबा रामदेव और अण्णा हजारे के अनशन या सत्याग्रह के औचित्य में कहीं कोई कमी नहीं है। लेकिन यह सत्याग्रह वैसा नहीं है जैसा गांधी इसके बारे में मानते थे। इसलिये जरूरी है कि सत्ताधारियों के प्रति अपने सम्बंंधों के मामले में हम गांधी को बख्श दें क्योंकि आज की सत्ता और सियासत दोनों परिवर्तन के भयानक दौर से गुजर रही हैं। यहां सवाल है कि क्या यह सत्याग्रह सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को बढ़ावा देने के उपाय के रूप में सक्रिय हो सकता है। नैतिक होने की जिम्मेदारी केवल सरकार पर नहीं होती बल्कि यह बराबर रूप में जनता पर भी होती है। भ्रष्टïाचार तो केवल नैतिक आचरण का एक पक्ष है, इसका सर्वाधिक व्यापक पहलू है सद्व्यवहार। आम जनता आज के आंदोलन के नेताओं से अपेक्षा करती है कि वे राजनीति में नैतिकता को बढ़ावा दें ताकि सही एवं संगतिपूर्ण सियासत से जुुड़े समाज की संरचना हो सके। अगर ऐसा होता है तो भ्रष्टïाचार अपने आप समाप्त हो जायेगा। लेकिन यहां समस्या हैै कि अनशन या सत्याग्रह का स्वरूप बड़ी तेजी से अवपीड़क तथा दबाव मूलक होता जा रहा है। गांधी ऐसा नहीं चाहते थे अतएव कम से कम ऐसे आंदोलनों से गांधी के नाम को ना जोड़ें तो बेहतर है।
Friday, June 10, 2011
कम से कम बापू को तो बख्श दो बाबा
Posted by pandeyhariram at 4:30 AM
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