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Tuesday, November 15, 2016

नोट बंदी का सामाजिक प्रभाव

नोटबंदी का सामाजिक प्रभाव 
नोट बंदी के संदर्भ में सामाजिक प्रभाव की व्याख्या करने के पहले तीन बातों या तीन अवस्थाओं का जिक्र करना लाजिमी है। ये अवस्थाएं हैं हमारे प्रधानमंत्री जी के बॉडी लैंग्वेज की। जिस दिन रात में यानी आठ नवम्बर की रात में उन्होंने हजार और पांच सौ के नोटो का चलन बंद किये जाने की घोषणा की उस दिन वे काफी प्रतिबद्ध ओर साहसी दिख रहे थे। उन्होंने उत्साह और आत्मविश्वास से भर कर माइक्रोफोन की डंडी पकड़ ली थी। दूसरा दृश्य गोवा में सोमवार की शाम उनके भाषण का था। उनकी आंखें भर आयीं थीं और गला रुध गया था। वे अपने परिवार को त्यागने का हवाला दे रहे थे। ये इमोशनल क्षण उनके आत्मविश्वास के हतोत्साहित होने का प्रत्यक्ष क्षण था। तीसरा दृश्य था सोमवार की रात कैबिनेट मीटिंग का। जहां कैबिनेट ने लोगों की पीड़ा का जिक्र किया और प्रधानमंत्री मौन रहे। वित्तमंत्री अरूण जेटली बार बार कह रहे हैं कि दो तीन हफ्तों में सारी मुश्किलें खत्म हो जायेंगी। लेकिन सरकारी​ आंकड़े ही बताते हैं कि यह झूठा आश्वासन हैं और इस आश्वासन की हकीकत समझ कर ही मोदी जी हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक एक हजार और पांज सौ के नोट अर्थ व्यवस्था में 86 प्रतिशत थे। यानी सौ , पचास, दस और पांच के नोट महज 14 प्रतिशत हैं। अब आप ही कहिये कि 86 प्रीतिशत की अतिरिक्त कमी 14 प्रतिशत से कैसे खत्म होगी? जबकि उस चौदह प्रतिशत का चलन पहले से था। इसका साफ अर्थ है कि यह चौदह प्रतिशत अपना काम करते हुये बाकी के 86 प्रतिशत की कमी भी पूरी करेंगे। क्या यह संभव है? अब जरा इसका समाज वैज्ञानिक पक्ष देखें। कोलकाता के स्लम्स में या बंद हो गयी जूट मिलों के लाइनों में या फुटपाथों पर बसर करने वाले लागों में या छोटे छोटे रोजगार करने जैसे सब्जी बेचने वाले या हाथ रिक्शा खींचने वाले लोगों में आधे से ज्यादा के बैंक खाते नहीं हैं और वे क्या करेंगे यह बात समझ में नहीं आती। यही नहीं अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कुल लोगों में से तीन चौथाई लोग फाइनेंशियल सिस्टम से नहीं जुड़े हैं। ऐसा नहीं कि उन्होंने जान बूझ कर ऐसा किया है बल्कि उनके पास इतना बचता ही नहीं कि वे इससे जुड़ पायेंगे। औरतों की छिपायी गयी रकम को छोड़ भी दें तब भी इसके तीन समाजवैज्ञानिक पहलू हैं। इस महान घटना की फितरत आर्थिक है और मध्यवर्ग जहां खड़ा होकर अपनी नैतिकता की दुहाई देता है यह फितरत उस आधार पर आघात करती है। फिजूलखर्चीं के इल्जाम, सार्वजनिक जीवन से अलग रहने के आरोप और अनुपाती न्याय के आदर्श के मुकाबले यह आर्थिक उद्धत राष्ट्रवाद (इकोनॉमिक जिंगोइज्म) तना हुआ है। आर्थिक तर्क तो यह कहते हैं कि जिस देश में आयकर छापों में कुल अघोषित सम्पति का केवल 6 प्रतिशत ही पाया जा सका और कालाधन उपार्जन की प्रक्रिया चालू है वहां इस तरह के महान कदम कुछ ज्यादा कर पायेंगे इसमें संदेह है। भारत में मध्यवर्ग का आविर्भाव एक बड़े सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप हुआ। आज इसका एक नया स्वरूप बनता दिख रहा है। इसके तीन पहलू तो स्पष्ट हैं। इनमें पहला है कि समाज में गरीब विरोधी भाव उतपन्न हो रहा है। राजनीतिक आदर्श बाजारवाद का टहलुआ होता जा रहा है और जनता उपभोकग बनती जा रही है। ऐसे समीकरण में गरीबों और उनके दैनिक जीवन के प्रति एक अलगाव बोध सा बढ़ता दिख रहा है। इनपर आरोप है कि ये बिजली चुराते हैं, शहरी जमीन पर कब्जा जमा कर झोपड़ियां बनाते हैं और कारपोरेट क्षेत्र को अपने कारखाने लगाने या खान खोदने के जमीन देने से इंकार करते हैं। ये घटिया लोग हैं तथा इनकी पसलियों से निकला एक नैतिक मध्यवर्ग अपनी मेधा तथा कठोर परिश्र के बल पर इस समाज में जगह बनाता जा रहा है। दूसरी बात यह है कि हर बात का उत्तर तकनीक या टेक्नोलॉजी में देखा जा रहा है। शहरी समस्याओं को केवल स्मार्ट सिटी, कम्प्यूटर के जरिये ही हल किया जा सकता है। तकनीक स्वच्छता है और नैतिकता स्वच्छता में है। नोटों पर लिखा ‘स्वच्छ भारत की ओर’ इसी तकनीक की ओर संकेत है। तीसरा बदलाव जो दिख रहा हे वह है कि हिंसा की भाषा बदल रही है। राष्ट्रीय भावनात्मकता के गिलफ में लिपट कर वित्तव्यवस्था को युद्ध और मुद्रा को सैनिकीकरण के चश्मे से देखा और दिखाया जा रहा है। हिंसा की भाषा में राष्ट्रवाद का प्रक्षेपण नैतिक प्रक्रिया बनती जा रही है। ऐसा लगता है कि पहले हम भारतीय कायर थे और अब ज्हंसा के सामान्यीकरण में नये लोग बन गये हैं। कालाधन एक गंभीर प्रक्रिया का लक्षण है और यह जो नयी व्यवस्था हुई है वह सार्वजनिक हित के सिकुड़ते दायरे से नैतिकता को परिभाषित करने के गंभीर और आंतरिक गंदगी का बिम्ब है। यह व्यवस्था केवल पैसे से नहीं जुड़ी है। आज बंद हो गयी जूट मिलों से बेकार होने पर के सड़क पर सोने वाले लोग और घोड़ों की तरह जुत कर रिक्शा खींचने वालों की पीड़ा से बाहर का राष्ट्रीय अंतर आज नैतिकता का संदर्भ है। यह संदर्भ मानसिक रुग्णता की निशानी है और यह रुग्णता आज सामूहिक तौर पर देखी जा रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जो इसका विरोध किया वह बिल्कुल सही है। सियासत में आज एक आध्मी तो ऐसा है जो नैतिक अपराधबोध से ग्रस्त गरीब (अनैतिक )लोगों के पक्ष में खड़ा है।

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