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Monday, November 21, 2016

प्रभु के भरोसे पटरियों पर दौड़ती मौत

प्रभु के भरोसे पटरियों पर दौड़ती मौत 
रविवार को पटना इंदौर एक्सप्रेस कानपुर से 60 किलो मीटर पहले दुर्घटना ग्रस्त हो गयी.  100 काइलामीटर की रफ़्तार से दौड़ती ट्रेन के 14  डब्बे पटरी से उतार गये और कुच्छ दूर तक घिसटते चले गये. प्रत्यक्ष दर्शियों का कहना है की डब्बे शुरू से ही काप रहे थे. इस दुर्घटना  में 127 लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए. रेल मंत्री सुरेश प्रभु दुर्घटना स्थल पर गये मगरमच्छी आँसू बहाए , रहट तथा उधहार कार्य का मुयायना किया और लौट आए. दुर्घटना के कार्नो की जाँच के आदेश दिए गये हैं. रेल मंत्री ने तोड़फोड़ की संभावना से इनकार नहीं किया है और कहा है की इस तोड़ फोड़ के काम में जो लोग शामिल पाए जाएंगे उन्हे बख्शा नहीं जाएगा. विशेषगयों  का मानना है कि पटरियों में दरार आ जाने के कारण यह दुर्घटना हुई. रेलवे में यात्री सुरक्षा के लिए गठित काकोडकर समिति ने पिछले साल ही काहा था की रेलवे सुरक्षा बेहद ख़स्ता है. पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने तो रेलवे सुरक्षा की एक स्वतन्त्र इकाई के गठन का सुझाव दिया था पर उनका सुझाव नहीं माना गया. कुल मिलकर रेलवे सुरक्षा " इमप्लिमेंटॅशन बग " से पीड़ीत है. आज तक यही देखा गया है कि जब भी कोई रेल दुर्घटना होती है इसे कोई ना कोई कारण बता कर , मुआवज़े की घोषणा कर दी जाती है, आश्वासनो के चंद मीठे बोल बोल दिए जाते हैं और फिर सब कुछ वाहू होता रहता है जो हो रहा था. रेलवे की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती. ऐसा नहीं है कि भारत जैसे विशाल रेलवे नेटवर्क में दुर्घटना नहीं होगी पर रेलवे को एक सुरक्षा संस्कृति के मेकेनिज़्म को विकसित करना चाहिए. 2012 में परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने कहा था की रेलवे में " रेलवे में स्वतंत्र सुरक्षा नियमन" का अभाव है. रालेआ बोर्ड खुद ही क़ानून बनाता खुद ही लागू करता है. रेलवे सुरक्षा आयुक्त को इस पर नज़र रखनी चाहिए पर आपरेशनल स्तर पर उसकी भूमिका नगण्य है. चूँकि वा रेल विभाग का कर्मचारी है इस लिए रेलवे बोर्ड उसकी सलाह नहीणं मानता और रेलवे बोर्ड जो नियम बनता है वा आपरशनल नही हो पाता. पूर्वा रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने अपने बजट भाषण में सुरक्षा पर बहुत ज़ोर दिया था. त्रिवेदी ने कहा था की दुर्घटना के प्रति सख़्त होना होगा. जैसा कि काकोदकर समिति ने सिफारिश की थी उन्होने एक स्वतंत्र रेलवे सुरक्षा समिति का प्रस्ताव किया था जो सुरक्षा पर सतत अनुसंधान करता रहेगा. पिछले साल रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था की काकोदकर कमिटी की सिफारिशों पर विचार चल रहा है. रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया था. काकोडकर कमिटी ने यह देख कर चीता जाहिर की थी कि रेल कर्मियों के घायल होने की संख्या भी बहुत ज़्यादा है. अक्तूबर 2011 तक 43 माह में पाया गया कि कार्यों के दौरान दुर्घटना से 1600 रेल कर्मी मारे गये थे और 8700 घायल हो गये थे. अनिल काकोडकर ने सॉफ कहा था कि कैसी सरकार है जो यह सब सहन कर रही है. रेल पटरियों पर काम करने वालों का जीवन सबसे ज़्यादा जोखिम में है. काकोडकर समिति के आँकड़े बताते हैं कि हर्साल 15000 लोग ट्रेनों की चपेट मे आकर मारे जाते हैं जिनमे केवल मुंबई में पटरी पार करते हुए 6000 लोग मार जाते हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक इस साल अक्तूबर तक रेल पटरियों पर 20456 लोग जान गवाँ चुके हैं. रेलवे इन्हे अनाधिकृत निवासी या रेल की ज़मीन का अनाधिकृत  उपयोगकर्ता मानती है. बेशक वे हैं भी और इससे रेलवे की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है पर क्या इन मौतों की जवाबदेही भी ख़त्म हो जाती है. खास कर वा सरकार जो ग़रीबों के लिए सोचने का दम भारती वह भी इन ग़रीबों के मामले में किनारा कर ले रही है. हमारी सरकार बुलेट ट्रेन चलाने का सपना बाँट रही है और काकोदकर कमिटी की रपट के मुताबिक जो डब्बे हैं उनकी डिजाइन  80 से 100 किलोमीटर की रफ़्तार से चलने की भी नहीं है. अब ऐसे में या तो वा परमाणु वैज्ञानिक अनाड़ी होगा या सरकार मदारी होगी. राजधानी के डब्बों में तेज रफ़्तार में गर्म होकर रोलर बियारिंग नाकाम हो जा रहे हैं तो दूसरों की बात क्या करते है. समिति ने कई सुरक्षा सुझाव दिए थे जैसे डब्बों में धूम्र संवेदी यंत्र लगाने के लिए. लेकिन वा भी हहीं लगा. आग बुझाने का जो यंत्र लगा है वह भी काम नहीं करता. हवाई जहाज़ में ऐसी व्यवस्था है की वक्त पड़ने पर 90 सेकेंड में यात्रियों को निकाला जा सकता है पर हमारी ट्रेनों में ऐसा कुच्छ नहीं है. सुरक्षा अवयवों की कोई मानक सूची नहीं है. पश्चिमी  रेलवे में यह 6 है और मध्य क्षेत्र में इसकी संख्या 993 है और पूर्व तथा उत्तर पश्चिम  में एक भी नहीं. बुलेट ट्रेन चलाने का सपना दिखाने वाली सरकार कहती है कि काकोदकर की सिफारिशें लागू करने के लिए पर्याप्त धन का अभाव है. बेशक ऐसा होगा पर सुरक्षा संस्कृति को विकसित करने में क्या कठिनाई है.

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