ये आपातकाल नहीं है
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामनाथ गोयनका पुरस्कार समारोह में कहा था कि ‘देश के हर नागरिक को आपातकाल को याद रखना चाहिये ताकि भविष्य की कोई सरकार ऐसा पाप करने का साहस ना जुटा सके।’ सचमुच आपातकाल ने नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र का जो विनाश किया उसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिये। लेकिन यह सब कुछ सबको दिख रहा था। लेकिन आज बहुत लोग यह कहते सुने जा रहे हैं कि हम आोषित आपातकाल की ओर बढ़ रहे हैं जो उतना विनाशक है और दूरगामी है जितना 1975 वाली इमरजेंसी हुआ करती थी। असली आपातकाल तो है जांे दिखे नहीं कि हम आपातकाल में रह रहे हैं। यकीनन जो लोग हमारी इस सरकार या हमारे नेता पर आपातस्थिति जैसे हालात बनाने के आरोप लगा रहे हैं वे सही नहीं हैं। आप कहेंगे कि ‘नेता’ का इगो या उसकी आत्मकामिका या उसका अहंकार उससे या उसके कद से बड़ा हो गया है। यह कोई आपातस्थिति को खींचे थोड़े ही ला रहा है। भाई साहब, नेता कभी गलत कर ही नहीं सकता। लेकिन शासकीय अधिकार धीरे धीर बढ़ते जा रहे हैं ओर अब रोजमर्रा के काम में भी दखल देने लगे हैं। विरोधी दलों द्वारा शासित रज्यों की व्यवस्था और शासकीय अधिकारों को सही ढंग से संचालित नहीं होने दिया जा रहा है। अब दिल्ली में ही देखें कि एक मुख्यमंत्री को अपना विरोध जाहिर करने से रोक दिया गया। हालांकि यह पाबंदी अल्पावधि की थी पर इससे जाहिर तो हो ही गया कि शासन की मंशा क्या है और वह क्या करना चाहती है। पर संभवत: इसे इमरजेंसी नहीं कहा जा सकतना है। प्रतिपक्ष यू ही बवाल कर रहा है न? विपक्ष की सियासत राष्ट्र के लिये खतरनाक हो सकती है और सियासत का हक केवल सत्तारूढ़ दल को ही है न ! सभी प्रकार के चिंतन पर राष्ट्रवाद का डंडा चल पड़ता है। सामूहिक अहंकार व्यक्तिकता को दबोच रहा है। हर तरह के विरोध को राष्ट्रवाद के चश्मे से देखा जा रहा है और उसी आधार पर किये गो निर्णय के आलोक में विरोध का गला घोंट दिया जा रहा है। आपने यदि सरकार का विरोध किया तो यही सवाल उछाला जाता है कि आप देश के साथ हैं या उसके विरोध में हैं। यकीनन इसे आपातस्थिति नहीं कहा जा सकता है पर जरूरत है इस हालात पर सोचने की। जिग्नेश मेवानी या हार्दिक पटेल की भांति सामाजिक मसलों पर जो लोग विरोश्ध प्रदर्शित करते हैं उन्हें रोक दिया जाता है यहां तक हिरासत में ले लिया जाता है। सामाजिक मसलों पर विरोध जाहिर करने से रोका जाना आपातकाल तो नहीं कहा जा सकता है। यह तो शासन का समयसिद्ध हथकंडा अपनाना ण्मिडिया को आतंकित कर अपने पक्ष में लाना कई बार सेंसरशिप से ज्यादा विनाशक हो जाता है। क्योंकि ऐसे हथकंडों के जरिये सेंसरशिप के बगैर ही मीडिया को सरकार के विरोध में बोलने या लिखने से रोका जा सकता है। यह ज्यादा खतरनाक है पर इमरजेंसी नहीं है क्योंकि मीडिया ने खुद ही सरकार का विरोध नहीं करने की राह चुनी है। भ्रष्टाचार का विरोध करने का जो सिविल सोसाइटी का तरीका है उसे निष्क्रिय कर दिया गया है तथा निगाह से ओझल कर दिया गया है। कितनाअंगेज है कि व्यापम से अब तक के सारे घेटाले आम जनता के विमर्श से गायब कर दिये गये हैं। सभी तरह के घोटालों और लफ्फाजियों को नादानी या मासूमियत का कपटरूप देकर नजरों से ओझल कर दिया गया है। शिक्षा संस्थानों जो छात्र या शिक्षक मुक्त विचार जाहिर करते हैं उन संस्थानों की शामत आ जाती है। सरकार अपने टहलुओं को नियुक्त करती है पर उन संस्थानों की मुश्के कसने के लिये वहां दोयम दर्जे के शिक्षकों की नियुक्ति के इस बढ़ते रिवाज को क्या कहेंगे आप ? कहा जा सकता है कि ‘सही सोचवालों’ को यह जगह दी गयी है। सरकार बड़ी तेजी से एक ऐसा वातावरण तैयार कर रही है जिसमें अदालत के आदेश के बगैर ‘मौत की सजा’ देने का रिवाज और हौसला बढ़ता जा रहा है। यह इमरजेंसी नहीं है जनाब जबकि हम स्थयी युद्दा के पक्ष बने हुये हैं ओर आतंकवादी तथा सभ्य शासन का फर्क इतना कम होता जा रहा है जिसे आसानी से नहीं समझा जा सकता है। गौ रक्षा के नाम पर मारकाट चल रही है जबकि प्रधानमंत्री ने इसे गुंडागर्दी कहा है लेकिन उन्हीं के मंत्री इनकी मदद कर रहे हैं। लेकिन यह भी इमरजेंसी नहीं है क्योंकि गौ माता के नाम पर अपराध को आप कैसे इमरजेंसी से तुलना कर सकते हैं। सरकार न्यायपालिका को नकेल लगाने की कोशिश कर रही है क्योंकि अरसे से देखा जा रहा है कि न्यायपालिका खुद ही कानून बनती जा रही है। जबकि उसका काम कानून के आधार पर निर्णय करने का है। यह एक सामान्य सरकार है। बस फौज का सियासत के लिये बढ़ता उपयोग और सोशल मीडिया में सैन्य प्रतीकों की बढ़ के माध्यम से समाज के विचारों को कुंठित करने का प्रयास इमरजेंसी कैसे हो सकता है? पाकिस्तान को सबक सिखा देने की बात के परदे में हर चाल को छिव्पाने के प्रयास को आप क्या कहेंगे, यहां तक कि सफलता का दावा बढ़ाचढ़ा कर करने को आप क्या कहेंगे। सश्कल घरेलू उत्पाद के आंकड़े प्रभावशाली हैं पर यदि आप उन आंकड़ों की हकीकत पर उंगली नहीं उठा सके तो इस आजादी का अर्थ क्या होगा ? प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जो कहा उन शब्दों का उद्देश्य देखिये ना कि उनके मीन मेख निकालिये।
Monday, November 7, 2016
ये आपातकाल नहीं है?
Posted by pandeyhariram at 6:22 PM
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