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Friday, November 25, 2016

नोटबंदी नही चुनाव सुधार की जरूरत

नोटबंदी को लेकर पूरे देश में हां हो ना ना मचा हुआ है। विरोधी दल एकजुट हो रहे हैं। फिजां में चर्चा है कि विरोधियों के पास बहुनत कालाधन है इसी लिये यह बेचैनी है। लेकिन क्या इस सारे मामले से कुछ सकारात्मक होगा। संसद के शीतकालीन सत्र से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में एक मसला उठाया था , वह अखबारों की सुर्खियां नहीं बन पाया पर था महत्वपूर्ण। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव  के लिये सरकारी धन  मुहय्या  कराने (स्टेट फंडिंग ऑफ इलेक्शन) का मसला उठाया था। प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘‘ अब समय आ गया है कि हम चुनाव के लिये सरकारी खजाने से धन प्रदान करने और एक साथ चुनाव कराने के विषय पर बात करें। क्योंकि सभी दल अर्थ व्यवस्था में अघोषित  सम्पति से चिंतित हैं। हम संसद के शीतकालीन संत्र में इस पर विस्तार से विचार करें। ’’ प्रधानमंत्री की इस बात पर पहला सवाल उठता है कि चुनाव की स्टेट फंडिंग क्या होती है? यह एक भ्रामक शब्द है जो हकीकत पर परदा डालने की गरज से गढ़ा गया है। इसका अर्थ साधारणत: यह समझा जाता है कि जोलोग चुनाव लड़ेंगे उनका खर्च सरकार देगी। यह भ्रम ‘स्टेट यानी शासन ’ शब्द से पैदा होता है।  इस विचार से यह बात उत्पनन होती है कि यह पैसा सरकार के पास है। जैसे आम आदमी सोचते हैं कि सरकार बिजली मुफ्त कर दे, शिक्षा मुफ्त कर दे , पानी मुफ्त कर दे वगैरह वगैरह। हम यानी स्वभावत:  मुफ्तखोर हैं इसलिये ऐसा सोचते हैं। हम नहीं जानते कि सरकार चुनाव खर्चे कैसे उठा सकती है। यहां सोचना यह है कि सरकार रुपये लाती कहां से है। यह रिजर्व बैंक से जारी करेंसी नोट से नहीं आता बल्कि यह हमारे आपके द्वारा दिये गये करों से आता है। अतएव सरकार का रुपया जनता का रुपया है जो टैक्स के रूप में हमने दिया है। इसलिये स्टेट फंडिंग शब्द में यह संशोधन जरूरी है कि इसे ‘पब्लिक फंडिंग’ कहा जाय। यानी टैक्स के रूपयों से चुनाव का खर्चा। दशकों से चुनाव का खर्च इस तरह से दिये जाने पर चर्चा है। जयप्रकाश नारायण ने इस विषय पर 1975 में तारकुंडे समिति से चर्चा भी की थी।  इस विषय पर अध्ययन करने के लिये 1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी भी गठित की गयी थी। उसकी रिपोर्ट के बाद चर्चा हुई कि कमेटी ने चुनाव खर्च सरकारी खजाने से देने की सिफारिश की है। जबकि सच यह है कि कमेटी ने आंशिक खर्चे देने की बात की थी वह भी चुनाव सामग्री की छपाई और मोटर गाड़ियों के तेल इत्यादि का खर्च। कमेटी की रपट में यह साफ लिखा था जोकि किसी नेता या सररकार ने नहीं घेश्घ्ति किया कि ‘इससे चुनाव में बहुत मामूली सुदार हो सकते हैं। जबकि चुनाव पक्रिया को पूरी तरह से ओवरहालिंग की जरूरत है ताकि यह विखंडतावादीण् और बुरे ततवों से मुक्त हो सके। रिपोर्ट में कहा गया है कि धनबल और बाहुबल ने चुनाव के उद्देश्य को ही खत्म कर दिया।’ अब मूल बात यह है कि नोटबंदी और चुनाव के सरकारी खजाने से खर्च का क्या लेना देना है? पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि ‘हर विधायक अपने करियर की शुरुआत गलत खर्चो का हिसाब (इलेक्शन रिटर्न)दाखिल करके करता है।’ यहीं चुनाव के लिये सरकारी खर्च और नोटबंदी का सम्बंध शुरू होता है। सब जानते हैं कि चुनाव में बड़े पैमाने पर अघाहेषित धन का उपयोग होता है। यहां दो तरह के विचार हैं। अगर कोई आदमी सरकारी खजाने से दान हासिल कर चुनाव लड़ता है तो वह अघोषित सम्पति ा उपयोग नहीं कर पायेगा और अगर देश में आो्रश्त सम्पति होगी ही नहीं तो कोई कैसे चुव में इसका उपयोग करेगा।अब पहले विचार पर आये। हम यह मानते हैं या मानने को तैयार हैं कि हम अपने उम्मीदवारों को चुनाव में अघोषित धन का उपयोग करने से रोक नहीं सकते और उन्हें अघोषित धक का उपयोग नहीं करने को  मजबूर करने के लिये नोटबंदी की शक्ल में पूरी अर्थ व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुंचाना स्वीकार कर सकते हैं। यहां एक बात हम भूलते हैं कि सकल नगदी अर्थ व्यवस्था कालाधन नहीं है। हमारे देश का आकार और सुविदाओं का अभाव नगदी को जरूरी बनाता है। उपरोक्त विचार का दूसरा खंड है कि अगर हम अपने उम्मीदवारों को अघो्रश्त दान का उपयोग करने से राक नहीं सकती तो फिर सरकारी खजाने से दान दिये जाने के बावजूद वे कालेधन का उपयोग चुनाव में नहीं करेंगे इसकी क्या गारंटी है। ऐसे में तो चुनाव के लिये सरकार से खर्च दिये जाने का मतलब जनता कारुपया फेंकना हुआ। इसलिये जरूरी है कि राजनीतिक दल कानून का पालन करें नोटबंदी से कुछ नहीं होने वाला। दूसरी बात है कि कालाधन चुनाव में उपयोग होता है यह मुख्य नहीं है मुख्य यह हे कि चुनाव में काले धन का उपयोग किया जा सकता है और उसके जरिये चुनाव को प्रभावित किया जा सकता है इसलिये कालाधन पैदा किया जाता है। लेकिन नोटबंदी से ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है।

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