नया साल, नये संकल्प
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदंड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूं।
21 सदी का सत्रहवां वर्ष अभी खत्म कर उषा 18 वें वर्ष के क्षितिज पर खड़ी है। यह कल्पना में कुछ इेसा ही लगता है जेसे महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था ," सेनयोरुभयोभयोर्मध्ये यथं स्थापय मे अच्युत " 2018 की उष के उसपार पीछे देखने पर कुछ अजीब सा दिख रहा है। 21 वी सददी का सत्रहवां वर्ष कैशौर्य और जवानी की वयसंधि और 17 वर्षै या उससे कम उम्र के बच्चों के खून से सने हाथ और उनके अपराध याद आयेंगे। इस साल बच्चों के अपराध की तीन ऐसी वारदात हुई कि हमें मां-बाप, बच्चों और समाज के आपसी रिश्तों पर सोचने को मजबूर कर दिया। यही नहीं यौन हिंसा के लिये ब्ाी इस वर्ष को याद रखा जायेगा। खुलेआम महिलाओं की छेड़खानी, बंद कमरे में उनसे हिंसक आचरण और सिनेमा के सेट से लेकर संतों के डेरे तक में उनका दुरुपयोग। एक अजीब किस्म का आपराधिकता चारो तरफ दिख रही है।
व्यापक परिप्रेंक्ष्य में नोटबंदी के हाहाकार से शुऱू हुआ यह साल जी एस टी के विवाद और 2जी की न्यायिक व्यर्थता के साथ समाप्त हुआ। अपराध की इन घटनाओं और सरकारी तंत्र का यह सब देखना , क्या इनमें कोई सह सम्बंध था? यह खोजना समाजशािस्त्रयों का विषय है। अब अगर हम 2018 की तरफ देखते हैं तो सरकार के लिये भी तीन ही अड़चने स्पष्ट दिखतीं हैं ओर उन्हें दूर करने का संकल्प नहीं लेते हैं सरकार के अगुआ फिर क्या होगा यह समझाना फिलहाल कठिन है।
जब देखो दिल में एक जलन
उल्टे उल्टे से चाल चलन
सिर से पावों तक क्षत विक्षत
यह क्यों?
अभी हाल में सरकार ने " 2017 का सार्वजनिक उगाही आदेश " जारी किया और उसमें हर टेंडर में भारतीय निर्माताओं को प्राथमिकता देने का हुक्म दिया गया है। इसमें स्थानीय निर्माताओं को 20 प्रतिशत लाभ मिलेगा। इसके बावजूद कोई विदेशी बोली जीत जाता है तो उसे दिये जाने वाले आर्डर का आधा हिससा भारतीय को ही मिलेगा। कुछ ऐसा नहीं लग रहा है कि 400 अरब डालर की विदेशी मुद्रा का खजाना होते हुये भी हम 20वीं सदी के 70 वें वर्ष में आ गये हैं। अब इस परिप्रेक्ष्य में जरा बुलेट ट्रेन के बारे में सोचें। ग्लोबल टेंडर की जगह भारतीय कम्पनियों को यह काम दिया जायेगा और वह भी 20 प्रतिशत ज्यादा कीमत पर। चाहे उनके पास इसकी दक्षता हो या ना हो। टैक्स के नाम पर हमारी आपकी जेब से निकले पैसे से यह काम होगा और नतीजा क्या होगा इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है।
अर्थ व्यवस्था की बड़ी बड़ी बातें कहीं जातीं हैं। लेकिन बैकों का रीकैपिटलाइजेशन क्या है। 1991- 92 में जब देश दिवालिया हो रहा था तो एकाउंटिंग की जादूगरी दिखा कर खुद को बचाये रखने की सरकार की कोशिशें कुछ हद तक सही कही जा सकती हैं पर जबकि खुशहाली का दावा किया जाता है तो ऐसा क्यों? सरकार ने कोई नया आइडिया नहीं अपनाया। जो होता रहा है वही कर डाला। कुछ नया आइडिया तो आजमाएं।
यही नहीं जितनी बड़ी सरकार होगी उतना ही ज्यादा खर्च होगा। 43 महीने बीतने के बाद भी सरकार का आकार विशाल है। कहते हैं कि सरकार का आकार जितना बड़ा होगा रोजाना के काम में नियंत्रण और दखल ज्यादा होगी। 21सदी 18 वें पायदान पर खड़ी है और सरकार के पास 17 महीने रह गये हैं कुछ कर दिखाने के लिये। फिर वही 17 और 18 का समीकरण। क्या उम्र के उफनते जोश में सरकार नियंत्रण का मोह नहीं छोड़ सकती? लेकिन, छोड़ना तो दूर है सरकार ने आधार को भी नियंत्रण का औजार बना लिया। कहां तो तय था कि इसे लाभ बेजने का तंत्र बनाया जायेगा और कहां अब इसे बैंक खाते से जोड़ दिया गया कि सरकार इस बात पर नजर रखे कि बैंक में जमा रुपयों से आप सोना खरीदतें हैं या बीमार मां-बाप के लिये दवाइयां। अगर आधार को बैंकों से मुक्त करा दिया जाय तो एक मात्र यही उपाय सरकार की केंद्रीकृत सत्तात्मक छवि से मुक्ति दिला सकती है। बायो मेट्रिक पहचान निरंकुश राज्य सत्ता के लिये तोहफा है। इसके गैर जरूरी इस्तेमाल और दुरूपयोग दोनों का भयानक खतरा है। प्रधानमंत्री ने 2013 में वादा किया था " मिनिमम गवर्नमेंट" , अबतक वें इस वादे को पूरा नहीं कर सके। अगर सरकार इन तीन हालातों पर काबू पा जाय या इनहें सुलझा लेे तो अगले 17 महीनों के बाद आने वाला समय खुशहाली से खुशरोशन दिख सकता है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुये
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है