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Thursday, February 2, 2017

जान के लिए जान का जोखिम

जान के लिये जान का जोखिम

देश में विकास के मानक वह नहीं हैं कि हमने क्या - क्या पाया है बल्कि वह हैं ​कि हमने जो पाया है वह सबके लिये कितना सुलभ है। अगर आपके लिये अस्पताल है दवाइयों की दुकानें हैं तो यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि वे अस्पताल या उन दुकानों में मिलने वाली दवाइयां आपकी पहुंच में है अथवा नहीं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मांेदी ने नववर्ष की पूर्व संदया पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि ‘जब नीतियां और कार्यक्रम मन में स्पष्ट उद्देश्य लेकर बनाये जाते हैं तो इससे लाभ प्रप्त करने वाला ही केवल नहीं सशक्त होता है बल्कि इससे निकटवर्ती और दूरगामी लाभ भी प्राप्त होते हैं।’ प्रधानमंत्री की इस बात के संदर्भ में जरा देखें कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का क्या हाल है। मोदी जी ने तो अपने सम्बोधन में प्रसूता महिलाओं के लिये 10 हजार रुपयों की भी घेषणा की थी जो अफसरशाही के लालफीतों में कहां उलझा है यह मालूम नहीं। जहां तक प्रसूता महिलाओं का प्रश्न है उसके स्ष्मरण मात्र से मां और उसकी संतान के एक ऐसा चित्र उभरता है जिसका शब्दों से बयान नहीं हो सकता है। लेकिन यह कितना दुखद है कि हर मां अपनी औलाद की किलकारी सुनने के लिये जीवित नहीं बच पाती और हर बच्चा अपनी मां के प्यार का सुख हासिल नहीं कर पाता। प्रसूताओं की मौत जहां हमार स्वास्थ्य प्रणाली का दर्पण है वहीं हमारे विकास के दावों पर प्रश्नचिन्ह है। राष्ट्र संघ ने 1990से 2015 के बीच प्रसूताओं की मौत को 75 प्रतिशत घटाने का संकल्प जाहिर किया था। लेकिन भारत अभी बी बहुत पीछे है। उसने महज 68.7 प्रतिशत लक्ष्य हासिल किया है। ये तो दुनिया में सब मानते हैं कि प्रसव के दौरान होने वाली मौतों को बिल्कुल रोका जा सकता है पर हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं यह समाज और राष्ट्र के रूप में हमारी अक्षमता की पहचान है। प्रसव के दौरान होने वाली मौतों को के आकलन की इकाई एम एम आर है यानी मैटरनल मोर्टलिटी रेश्यो। यह अनुपात एक लाख प्रसूताओं में होने वाली मौतों केआकलन पर निकलता है। राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 1 लाख प्रसविनी महिलाओं में 45 हजार की मौत हो जाती है। एम एम आर के मापदंड में यह संख्या 174 है। नाइजीरिया के बाद इस मामले में भारत का ही स्थान है। दुनिया भर में हर साल 3 लाख 3 हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान होती है जिसमें 15 प्रतिशत मौतें हमारे ही देश में होती है। विकास का दम भरने वाले इस देश के लिये यह आंकड़ा लज्जाजनक है।

इन दिनों पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। ताजा सर्वेक्षण के अनुसार केवल उत्तर प्रदेश में प्रसविनी महिलाओं की मौत देश में होने वाली कुल मौतों की एक तिहाई है। ऐसे में अगर भारत इस मामले में विकास करना चाहता है तो यू पी​ इसके लिये चुनौती है। इस चुनौतियों के भी कई स्वरूप हैं जिनमें क्षेत्रीय असमानता भी कारण है। पश्चिम मंडल से ज्यादा पूर्वी मंडल में यह असमानता ज्यादा है। यह असमानता सामाजिक , सांस्कृतिक और आर्थिक विभाजन के कारण भी ज्यादा है। जो समुदाय आर्थिक तौर पर हाशिये में हैं उनमें यह जोखिम ज्यादा है। प्रसव के लिये आधुनिक सुविधा की उपलब्धता का अबाव भी इसका एक कारण है। जिन क्षेत्रों में प्रसव घरों में होता है वहां यह दर ज्यादा है। भारत में हर सात मिनट में कोई न कोई गर्भवती स्त्री प्रसव संबंधी कारणों से मौत का शिकार बनती है। विश्व भर में होने वाली सालाना ऐसी 5 लाख मौतों में से 20 प्रतिशत अकेले भारत में होती हैं जहां हर साल 78 हजार गर्भवती महिलाएं बेमौत मारी जाती हैं। भारत में विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के कारण गर्भवती महिलाएं डॉक्टरों और अस्पतालों तक ही नहीं पहुंच पाती। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति इतनी ख़राब है कि 60 प्रतिशत से ज़्यादा प्रसव अब भी घरों में ही कराये जाते है और वह भी किसी अप्रशिक्षित दाई की देखरेख में। 40 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण महिलाएं गर्भधारण के बाद बेहद जरूरी समझी जाने वाली तीन डॉक्टरी जांचों के लिए अस्पताल पहुंचती है। उत्तर प्रदेश में घरों में प्रसव के दौरान 42 प्रतिशत महिलाओं की मौत हो जाती है। देश में प्रसूताओं को होने वाली कुल मौतों में 50 प्रतिशत मौतें घर में प्रसव के दौरान होती है जबकि 14 प्रतिशत अस्पताल ले जाते समय होती है और 36 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण होती है। कुपोषण भी एक कारण है। अतएव आर्थिक विकास, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च, महिला शिक्षा में विकास इत्यादि इसे रोक सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री ने गरीबी और कुपोषण को राष्ट्रीय लज्जा का विषय बताया था। ये दोनों कारण खास तौर पर प्रसूताओं की मौत का कारण है। इसके लिये जरूरी है कि सार्वजनिक प्रशासन में सुधार हो और स्वास्थ्य प्रबंदान के जरिये प्रसूताओं की मौत के कारण तथा तादाद के आंकड़े रखे जाएं। साथ ही नीतियों एवं कार्यक्रमों के निर्माण के दौरान इन आंकड़ों पर ध्यान दिया जाय। विकास के कार्यक्रम अक्सर राजनीतिक प्राथमिकताओं को सामने रख कर तैयार किये जाते हैं। स्वस्थ माताओं के महत्व को समझना एक बात है और उसे नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल करना दूसरी बात है।  

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