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Friday, February 24, 2017

खतरे की ओर बढ़ता लोकतंत्र

खतरे की ओर बढ़ता लोकतंत्र

 

मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है

हम कौन थे क्या हो गये हैं , और क्या होंगे अभी

आओ विचारें आज मिल कर यह समस्याएं सभी

हम खुद को परिभाषित करने की अपनी क्षमता धारे – धीरे खोते जा रहे हैं। हम नहीं जान पा रहे हैं कि हम क्या थे और क्या होना चाहते हैं। हमारीएक समाज के तौर पर इस कमी को जानने के लिये किसी बहुत बड़े अनुसंधान की जरूरत नहीं है। बस किसी चौराहे पर खड़े हो जाइये और खुद देखें ​कि यातायात के नियमों का कैसे उल्लंघन होता है। चौराहे पर पुलिस वाला खडझ है और लोग लाल बत्ती की वजर्ना कहे भंग कर जा रहे हैं तथा रोकने पर फिजूल की बहस तथा शक्ति प्रदर्शन। बिना ड्राइविंग लाइसेंस के वाहन चलना इन दिनों आम बात है। एक दिन हावड़ा के पुलिस कमिश्नर डी पी सिंह ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि यहां की ट्रैफिक को व्यवस्थित करना बड़ा ही कठिन काम है। हालांकि यह बहुत ही साधारण और बिल्कुल अनौपचारिक ब्बात है पर एक गंभीर सामाजिक समस्या की ओर इशारा करती है।

किसी नियम या कानून को तोड़ना बहुत आसान है लेकिन कई बार यह कठिन भी है। नियम या कानून को मानने के दो अवयव हैं पहला कानून अथवा नियम से जुड़ी क्रिया और दूसरा उस कानून के बारे में हमारा अभिप्राय क्या है। सिर्फ लाल बत्ती पर रुकने के साधारण नियम को मानना एक बात है और उस नियम के बनाने कारणो को स्वीकार करना दूसरी बात है। दरअसल हमसे उम्मीद की जाती है कि हम कानून को मानें उसका पालन करें लेकिन इस बात के लिये कत्तई चिंतित नहीं हैं कि इस कानून अथवा नियम के पीछे क्या अभिप्राय था, इसकी नीयत क्या थी? जितनी बार एक वालहन चालक  ट्रैफिक सिगनल को अमान्य करता है वह उतनी बार केवल नियम नहीं भंग करता बल्कि उस नियम के मूल अभिप्राय की गलत व्याख्या करता है। वह समझता है कि उनके सामने सड़क खाली है और जब सड़क खाली है तो लाल बत्ती की र्जिना को मानने का कोई औचित्य नहीं है। वह आदमी एक आजाद निर्णायक के तौर पर काम करता है और मानता है कि मौजूदा हालात के बारे में उसके फैसले समाज या सरकार के बनाये गये नियम से ऊपर र्है और उनहें खारिज करते हैं। लेकिन इसके पीछे यह भी नजरिया है कि जो लोग ऐसा करते हैं वे सममझते हैं कि यह नियम उनपर लागू नहीं होता।

नियम को नहीं मानने की प्रवृति हमारे समाज में कई तरह के झगड़ों को जन्म दे रही है। कई बार झगड़ा इस लिये होता है कि लोग मानते हैं कि उनका फेसला समाज द्वारह यह सरकार द्वारा बनाये गये नियमों से सही है। कुछ मानते हैं कि यह बेकार नियम है क्योंकि जब सड़क खाली है तो एक मिनट के लिये वहां क्यों रुकें। धीरे धीरे यह मनोवृत्ति एक व्यापक ट्रैफिक जाम का कारण बन जाती है। आाज हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही सै। असंख्य सामाजिक विवाद खास कर भ्रष्टाचार इसी के कारण बढ़ रहे हैं। यहां पहचान की राजनीति प्रमुख् है। इन्हीं मनोवृत्तियों के कारण दार्म, जाति , परम्परा और राष्ट्र के स्वयंभू रक्षक पैदा हो रहे हैं और वे कानून को ताक पर रख देते हैं। पहचान की सियासत और ट्रैफिक के नियमों को भंग करने मनोवृत्ति के पीछे के मनोविज्ञान में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। प्राथमिक तौर पर पहचान कुछ नियमों से जुड़ी होती है और इस बात से भी समर्थित होती है कि हम एक जाति या एक दार्म समुदाय के तौर पर उसे कैसे मानते हैं। हमारी जाति या धर्म की पहचान चंद सामाजिक नियमों से भी जुड़ी होती है। एक बड़े समाज में वास करने का मतलब ही उन नियमों को मानना होता है। एक मामूली नियम है कि आप सड़क पर बायें चलें। चूंकि आप आजाद है इसलिये चाहते हैं कि हम जिदार चाहें उधर चलेंगे और इससे यकीनन सड़क पर चलने वाले दूसरे की आजादी में खलल पैदा होगा जो एक विवाद का कारण बन सकता है और इससशे दंगे तक होते देखे गये हैं। इस लिये सामाजिक नियमों को मानना जरूरी है। लेकिन आज हालात ये हैं कि सब अपनी अपनी आजादी की बात करते हैं और इस क्रम में दूसरे की आजादी को खत्म करने कोशिश होती है। सड़क के चौराहे पर लाल बत्ती पर रुकना या राष्ट्रगान के समय खड़ा होना इत्यादि बहुत मामूली बात है इस नियम को तोड़ने के फलस्वरूप एक भारतीय के रूप में हम अपनी पहच्हहन खोते जा रहे हैं। यह एक शुरुआत है ओर इसका परिणाम कुछ वैसा ही होता है जैसे एक सम्प्रदाय विश्हेष्ह के लोगों पर आनतंकवादी होने कह ठप्पा लग गया है। हम अपने हाथों से अपनी पहच्हहन को मिटा रहे हैं। हमें इस बात की चिंता नहीं है कि हमारा समाज कैसा दिखेगा। अभी हाल में तमिलनाडु में बैलों के एक पारम्परिक खेल पर पाबंदी को लेकर व्यापक आंदोलन हुये। ये आंदोलन जितनी परम्पया या बैलों से नसीं जुड़े थे उससे कहीं ज्यादा तमिल होने की पहचान से जुड़े थे। यह लोकतंत्र में स्वार्थ से उद्भूत दुर्गुण है। इसमें छोटे छोटे समूहों के नेता स्थितियों को अपने अनुसार स्वरूप देने लगते हैं और बड़े नेता वोट के लोभ में उनका समर्थन करने लगते हैं। हम वोट देकर अपनी आजादी राजनीतिज्ञों के हाथों में सौप देते हैं इस उम्मीद में कि वह मेरे लिये सही काम करेगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। यहां मूल समस्या है कि लोकतंत्र में जो लोग निर्वाचित नही हैं वे अपने अनुसार नियम को परिभाषित करने लगते हैं। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे कुछ लोग लाल बत्ती पर भी निकल जाते हैं और कुछ खड़े रहते हैं। खड़े रहने वाले लोग भी दूसरे दिन से नियम भंग करने लगते हैं। आदमी धीरे धीरे गिरोह में बदल जाता है और हुकूमते वक्त वोट के लोभ में उसे कानून परिभाषित करने देता है।

तवायफ की तरह अपनी गलतकारी के चेहरे पर

हुकूमत मंदिर और मस्जिद का परदा डाल देती है

  

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