ताकत का प्रयोग जरूरी
सेनाध्यक्ष जनरल रावत ने फकत इतना ही तो कहा था कि कश्मीर की आबादी में कुछ लोग आतंकिवादियों के प्रत्यक्ष कर्मी और जेहादियों के सहयोगी के तौर पर काम कर रहे हैं और उनसे उसी तरह निपटा जायेगा। इसे लेकर कश्मीर में बवाल मच गया। लेकिन जो लेग समझते हैं या जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि दुनिया का कोई भी हिंसक आंदोलन समानुपाति शक्ति के दबाव के बगैर नहीं खत्म हुआ है। यह तो रणनीतिक राजनय है। बावजूद इसके कई लोगों ने यह कहना शुऱु कर दिया कि कश्मीर की पूरी जनता को ऐसा नहीं कहा जा सकता है और ना वहां की महिलाओं पर बल प्रयोग किया जा सकता है , वहां महिलाएं भी फौजी हथियारों की छांव में घटिया जिंदगी से ऊब कर अपना गुस्सा जाहिर करने लगीं हैं। लेकिन एक जमात ऐसी भी है जिसका कहना है कि हाथ में पत्थर या हथियार लिये खड़ा कोई बी आदमी दुश्मन है और उससे उसी तरह निपटा जाना चाहिये। पर दोनों सही नहीं हैं।जनरल रावत का यह कहना कि समानुपाति ताकत से निपटा जायेगा या कठोरता से निपटा जायेगा उसका मतलब नहीं कि सबसे या महिलाओं से भी वैसा ही सलूक किया जायेगा। यह तो बहुत सहजह और स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि जो लोग आतंकियों के खिलाफ या उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान उनकी मदद के लिये आयेंगे उनसे भी उसी तरह निपटा जायेगा। आतंकियों या उपद्रवियों पर कार्रवाई के दौरान प्रतिरोध की घटनाओं में फौजी या सुरक्षा बल के लोग भी मारे जाते हैं। इसे खून-ए – नाहक का जिम्मेदार कौन है। अगर ऐसे लोगों से निपटने की बात होती है तो वह कौन सा नाजायज काम है। भारतीय सुरक्षा बलों ने अपने लोगों को गवां कर कम से कम प्रहार के अचूक उपयोग करने की आतंकविरोधी रणनीति में महारत पायी है। यह जो ‘दिलो दिमाग पर फतह’ की बात जो कही जाती है वह एक खोखली दलील है। यह एक नकारा मुहावरा है जिसे जनरल जेराल्ड टेम्पलर ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गढ़ा था। यहां तो रूजवेल्ट की बात ज्यादा प्रासंगिक है कि ‘यदि आप किसी का टेंटुआ साहसपूर्वक पकड़ लेते हैं तो उसका मन – मष्तिष्क आपका अनुसरण करेगा।’ अमरीकियों ने जिस राष्ट्र पर भी आतंकी का लेबल चस्पा कर दिया उसे तहस नहस कर दिया। पाकिस्तान जो खुल्लम खुल्ला कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है वहां भारत सरकार द्वारा किसी भी प्रतिरोधी फौजी कार्रवाई का सबसे ज्यादा रोना वही रोता है। फिर भी कश्मीर में आतंकियों या उपद ्रवियों का साथ देने वालों को हासिल यह दंडमुक्ति कायम नहीं रह सकती है। मानवाधिकार या कश्मीरियों के निर्दोश होने की जो बातें हैं उन सबने कानून के शासन के सभी मानदंडों को खत्म कर दिया है और अब धैर्य भी जवाब दे रहा है। नेतृत्व मुट्ठी भर उग्र और हिंसक लोगों के हाथ का खिलौना बनता जा रहा है। लोकतंत्र इस तरह से ना काम सकता है और ना टिका रह सकता है। कश्मीर में आतंकवाद का राजनीतिक समाधान किये जाने की बाद भी होती है और इन दिन यह कहा जा रहा है कि ‘हिंसा का विरोध हिंसा से किया जाना सफल प्रमाणित नहीं हुआ है। ’ यह वास्तविकता विरोधी है। सच तो यह , जैसा ऊपर भी कहा चुका है , कि दुनिया का कोई भी व्यापक हिंसक आंदोलन जवाबी कठोर कार्रवाई के बगैर ना काबू में किया जा सका ना खत्म किया जा सका। फिलहाल ऐसा कोई राजनीतिक समाधान नहीं है जो पाकिस्तान की मदद से भड़क रही कश्मीर की हिंसा को जादुई तरीके से काबू कर सके। अलबत्ता यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक असफलता के कारण यह इतने दिनों से कायम है। इन दिनों वहां हिंसक घटनाओं में मरने वालों की संख्या घटी है। अगर 1990 से 2000 तक के आंकड़े देखें तो वहां हर वर्ष औसतन 1000 लोग मारे जाते थे जो संख्या 2016 में घट कर 267 हो गयी हालांकि यह 2012 के 117 से ज्यादा है। इस स्थिति में गहन चिंतन और कार्रवाई दोनों आवश्यक हैं तब भी हालात बहुत ज्यादा निरगशाजनक नहीं दिखते हैं। राजनीति यकीनन इस समस्या के लिये जिम्मेदार है और इसके बढ़ने तथा कायम रह पाने का कारण भी पर राजनीति की भूमिका पूरी नहीं है वह आंशिक है। इसका बड़ा भाग है अवास्तविक उम्मीदें। जब कश्मीर की समस्या का आकलन अवास्तविक उम्मीदों के आधार पर किया जाता है। यह सोचना कि चुटकी बजाते यह ‘फिरदौसे जमीं (धरती का स्वर्ग)’ हो जायेगा यह गलत है। दिल्ली या श्रीनगर चाहे कुछ भी कर ले अभी वहां लम्बे अर्से तक समस्या कायम रहेगी। इसका मुख्य कारण है कि यहां के आतंकवाद को पाकिस्तान बढ़ावा दे रहा है। पाकिस्तान से कश्मीर भेजे गये पंजाबी पाकिस्तानी आतंकियों के लिये यहां के नौजवान गाइड या साधन हैं। अब जब अमरीका में सत्ता परिवर्तन हुआ है तो पाकिस्तानी आतंकी गिरोहों पर दबाव बढ़ा है और इसके फलस्वरूप वहां के आतंकियों कश्मीरी आतंकी संगठनों में तेजी से भेजा जा रहा है और वे अपने रोब को कायम करने के लिये सड़कों पर उतर रहे हैं। जनरल रावत का कहना बिल्कुल सही है कि ऐसे ततवों को ताकत से दबा दिया जायेगा। यहां सवाल उठता है कि ताकत का कितना प्रयोग होगा? यह एक बेजा दलील है। जो लोग यह कह रहे हैं कि वहां की महिलाएं फौजी घेरे की घटिया जिंदगी से ऊब गयीं हैं और इससे पुरूष समुदाय में गुस्सा है , यह कहना भी सही नहीं है। जिन महिलाओं की बात की जा रही है वे बंगाल की महिलाओं की तरह झंडा लेकर नारे लगाने वाली देशभक्त नहीं हैं वहां महिलाएं फौजियों पर पतथर फेंकती हैं और उनहें भरोसा रहता है कि उनपर गोलियां नहीं चलायी जायेंगी। वहां महिलाओं के एक समूह को उग्रवाद और चरमपंथ का बुखार चढ़ा है। जब तक इस मसले को साम्प्रदायिक चश्मे से देखा जाता रहेगा और इसे बल पूर्वक नहीं दबाया जायेगा इनके कश्मीरी आका इनका उपयोग करते रहेंगे।
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