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Tuesday, February 28, 2017

नोट बंदी और दो हज़ार के नोट छापने के पीछे थी एक साजिश

नोटबंदी और दो हजार के नये नोट छापने के पीछे थी एक साजिश

 

घाघ बैंकरों, राजनीति के चतुर पंडितों और शातिर व्यावसाइयों ने मिलकर रचा था षड्यंत्र

 

विदेशों में छिपाये कालेधन का शिगूफा बेकार, सबकुछ सफेद होकर लौट चुका है देश में

 

हरिराम पाण्डेय

 

कोलकाता :नोटबंदी के घोषित उद्देश्य के पीछे एक गहरी साजिश का पता चला है। मोदी जी जब लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उन्होने कहा था कि देश के बाहर इतना काला धन है कि अगर वह देश में आ जाय तो सबके खाते में लाखों रुपये जमा हो जायेंगे। इस जुमले को लुटेरे व्यापारियों और बैकरों ने खूब उछाला। बात इतनी फैलाई गयी कि वह सच लगने लगी। यह एक तरह की विषम जंग थी जो चुनावी जंग से अलग थी। दरअसल,  जंग कई तरह की होती है। जो युद्ध फौज लड़ती है वह पहली पीढ़ी का युद्ध है और विषम युद्ध दूसरी से पांचवी पीढ़ी की जंग है। मसलन, आंतकवाद दूसरी पीढ़ी का युद्ध है और देश के बाहर दौलत ले जाकर उसे सफेद करना ताकि देश अपने आर्थिक संसाधनों को विनष्ट होने से बचा न सके यह तीसरी पीढ़ी की लड़ाई है। खुलेआम आर्थिक लूट ओर सूचना प्राविधिकी को अस्त व्यस्त कर देना पांचवी पीढ़ी की जंग है। पहली पीढ़ी की लड़ाई फौजें ललड़ती हैं ओर दूसरी से पांचवीं पीढ़ी की जंग खुफिया एजेंसियां, बैंकर और लुटेरे व्यावसाई मिल कर लड़ते हैं। ऐसा अक्सर नहीं होता कि आप सोकर उठें और आपकी जेब में पड़ा सबसे बड़ा नोट कागज का टुकड़ा भर रह जाय और डोनाल्ड ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति हो जाएं। एक नजर में ये दोनों घटनाएं असम्बंधित हैं लेकिन सन्मार्ग ने अपनी चार महीने की जांच में पाया कि दोनों में गहरा सम्बंध है। जरा गौर करें कि संयोगवश ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे की तीन दिवसीय भारत यात्रा के तुरत बाद नोटबंदी की घोषणा हुई। भारत में 7 नवम्बर को अपने अंतिम भाषण में थेरेसा मे ने मुक्त व्यापार और भूमंडलीकरण की वकालत की थी जबकि पूरी दुनिया में इसपर संदेह जाहिर किया जा रहा है। यह भी संयोग ही था कि नोटबंदी की घोषणा के साथ ही अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव खत्म हुआ। नोटबंदी के ऐलान के 12 घंटे के भीतर डालर के मुकाबले रुपया बुरी तरह पिट गया। राष्ट्रपति चुनाव के बाद रुपया डालर के भाव सुधरने लगे। जो लोग राष्ट्रपति चुनाव और भारतीय आर्थिक नीतियों के बारे में जानते हैं उन्होंने इसी दरम्यान भारी दौलत पैदा कर ली।

इधर भारत में पहले से ही दो हजार के नोट की छपाई आरंभ हो चुकी थी​, जो कि शुरू में गोपनीय रही। यह साधारण गणित है कि अतिमुद्रास्फीति (हाइपर इन्फ्लेशन) की सूरत में बड़े नोट छापे जाते हैं ताकि खरीदारों को ज्यादा दिक्कतें ना हो। यहां एक परवर्ती प्रश्न है कि क्या हम अतिस्फीति की ओर बढ़ रहे हैं। सरकार को इसका संकेत मिलने के कारण नोट छापने का काम शुरू हुआ और जब कुछ नोट छप गये तो नोटबंदी की घोषणा कर दी गयी। प्रदर्शित यह किया गया कि यह घोषणा हठात की गयी है पहले से कोई तैयारी नहीं है। इस अचानकपने को भी विभिन्न स्रोतों के जरिये खूब फैलाया गया ताकि आम लोग भरोसा कर लें और गड़बड़ ना हो।  

 

कालाधन कहां गया ?

 

नोटबंदी के समय सरकार ने घोषणा की थी कि कालेधन पर अंकुश लगाने और आतंकवाद को मिटाने के लिये यह कदम उठाया गया है। जनता को यह समझाया गया था कि कालाधन अपने देश में आलमारियों में या ट्रंकों में या बिस्तरों में या जमीन के भीतर दबा कर रखा जाता है ओर नोटबंदी से सरकार इसे बाहर करना चाहती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि कालेधन का बहुत बड़ा भाग देश से निकल विदेशों में सुरक्षित कर आश्रयों (टैक्स हेवन्स) में पहुंच चुका था और वहां से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डी आई) की शक्ल में भारत आ चुका था। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2012 से मार्च 2015 के बीच मारीशस, सिंगापुर , इंग्लैंड, जापान, नीदरलैंड्स , अमरीका, साइप्रस, जर्मनी, फ्रांस और स्विटजरलैंड से कुल 6890 करोड़ डालर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ जिसमें केवल मारीशस से 2012-13 में 1000 करोड़ डालर, 2013- 14 में 500 करोड़ और 2014- 15 में 800 करोड़ डालर का प्रत्यक्ष (एफ डी आई ) हुआ जबकि इसी अवधि में सिंगापुर से 200 करोड़ डालर , 600 करोड़ डालर और 800 करोड़ डालर का निवेश हुआ, टैक्स चुराने और कालाधन जमा करने वालों के लिये स्वर्ग के नाम से कुख्यात स्वीटजर लैंड 50 करोड़ डालर भी नहीं आया। काले धन की इस यात्रा को ‘राउंड ट्रिपिंग’  कहते हैं। ‘राउंड ट्रिपिंग’ का अर्थ है कि एक देश से काला धन के निकल कर दूसरे देश में जाना और वहां से फिर किसी नयी शक्ल (जैसे एफ डी आई ) में उसी देश में लौट आना जहां से वह धन गया था। इसलिये लिये एफ डी आई के सबसे बड़े स्रोत वही देश हैं जहां काले धन जमा करने की सबसे ज्यादा छूट है।

 

 क्या हुआ दर असल  

 

अमरीका और यूरोप में 2008 में आर्थिक मंदी आई। कई देश दिवालिया होने की कगार पर आ गये और कई देशों में आंदोलन शुरू हो गये। सबको मालूम था कि अगर मंदी से जीवन शैली प्रभावित हुई तो हो सकता है शीत युद्ध का जमाना लौट आये। बैंकरों, राजनीति के चतुर पंडितों और शातिर व्यावसाइयों ने मिल कर रणनीति बनायी। अमरीका ने खुफिया एजेंसियों की मदद से लीबिया में युद्ध भड़का दिया। दिखाने के लिये इसका उद्देश्य था वहां लोकतंत्र और मानवाधिकार की रक्षा। इसी के परदे में वहां से दो खरब डालर खींच लिये गये। अर्थ व्यवस्था को दम मारने की ताकत मिली। इधर भारतीय कालाधन जो विदेशों में जमा था उसे भी खतरा बढ़ने लगा। मनमोहन सिंह इस हकीकत को जानते थे। 2012 में देश के आर्थिक सम्पादकों की एक बैठक में मामोहन सिंह ने कालेधन का जिक्र करते हुये कहा था कि विदेशों उसे जमा करने वाले पछतायेंगे , वह धन खुद ब खुद खत्म हो जायेगा। लगभग उसी समय से कालेधन को भारत लाये जाने की बात का प्रचार शुरू हुआ। मोदी जी का आना उसी प्रचार का अंग है।

 

फिर नोटबंदी क्यों हुई

 

नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि देश में कालाधन मामूली था।  सच तो यह है कि जिन विदेशी स्रोतों के माध्यम से यह हवा बनायी गयी थी उन्हें लाभ पहुंचाने के लिये यह कदम उठाया गया। अभी भी एक बात छिपायी गयी है कि दो हजार के नोट क्यों छापे गये और कब छापे गये? सरकार के आर्थिक सलाहकार और उसके पक्ष के अर्थशा​िस्त्रयों को यह मालूम है कि अतिमुद्रास्फीति आने वाली है। भयंकर महंगाई होगी। वैसी सूरत में छोटे नोटों से काम नहीं चलेगा।

यही नहीं जो नये नोट छापे गये और जिनके पूरी तरह भारतीय होने का ढोल पीटा गया वे पूरी तरह भारतीय नहीं हैं। रिजर्व बैंक के सूत्रों ने सन्मार्ग को बताया कि इसके लिये 1.6 करोड़ टन कागज इंगलैंड से आयात किया गया है। नोट में लगने वाल सिक्यूरिटी थ्रेड इंगलैंड, यूक्रेन और इटली से मंगाया गया है। नोट की छपाई के लिये प्रयोग किये जाने वाले इंटैग्लो इंक भी विदेश से मंगाकर राजस्थान, मध्यप्रदेश और सिक्किम की कम्पनियों ने सप्लाई किया है। दिलचस्प बात तो यह है कि ये सारी वस्तुएं अलग अलग जगहों से इंगलैंड की एक ही कम्पनी सप्लाई कर रही है और वह कम्पनी पाकिस्तान के करेंसी नोट भी छापती है। यह सब कई हफ्ते से चल रहा था। इतनी बड़ी तैयारी के बाद नोटबंदी की घोषणा की गयी और देश को बताया गया कि सब अचानक हुआ है। देश को अंधेरे में क्यों रखा गया? इसे साजिश नहीं तो और क्या कहा जाय। एक और प्रश्न अनुत्तरित है कि आखिर उसी खास कम्पनी की ही सेवाएं क्यों ली गयीं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने की प्रक्रिया जारी है।

एक तरफ ‘हाइपर इन्फ्लेशन’ की ओर बढ़ती अर्थ व्यवस्था और दूसरी तरफ बेईमान व्यवसाइयों की हमारी अर्थ व्यवस्था में सेंध, आने वाले दिन कैसे होंगे इसका सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है।  

 

 

 

 

 

    

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