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Thursday, November 30, 2017

भारत ने गलती की

भारत ने गलती की

अमरीका की " प्रथम पुत्री  " और अमरीकी राष्ट्रपति की सलाहकार इवांका ट्रम्प के भारत आने को लेकर देश में  बड़ा उत्साह है। वे ग्लोबल उद्यमी सम्मेलन  में शामिल होने के लिये यहां आ रहीं हैं। इस सम्मेलन का उद्देश्य महिला सशक्तिकरण की प्रकिया को तेज करना है। इसका नारा है " अग्रणी महिला , सम्पन्नता सबके लिये। " बेशक हमारे देश को ऐसी पहल की जरूरत है। देश में विकास को अगले स्तर तक पहुंचाने के लिये उद्योगों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना ही होगा। उद्यमता का लोकतंत्रीकरण एक आदर्श है और उसकी सार्थकता स्पष्ट दिख रही है , खासकर ऐसे वक्त में जब दुनिया पूंजीवाद के गुमराह स्वरूप में आगे बढ़ रहीं है। अगर किसी ने इस सम्मेलन का उद्घाटन टी वी वगैरह में देखा होगा तो वह सहज ही मान लेगा कि यह फोटो खिंचवाने की  नरेंद्र मोदी की भव्य स्टाडल है। इसके प्रचार के लिये पी आर तंत्र ने भी कई स्तरो पर बहुत होम वर्क किया है। इस सम्मेलन की  थीम " महिलाएं पहले और सम्पननता पीछे- पीछे " ने दुनिया में खुद को अलग दिखाना शुर कर दिया है। इस अवसर पर मोदी जी ने अपने भाषण में कहा कि " भारत में महिलाएं शक्ति का अवतार मानी जातीं हैं और हम अपने विकास के लिये महिला सशक्तिकरण पर भरोसा करते हैं।" इवांका ने भी बड़ा अच्ह भाषण दिया। उन्होंने कहा कि " महिलाएं दुनिया भर में विपरीत परिस्थतियों का मुकाबला कर रहीं हैं।" उन्होंने महिला उद्यमियों के लिये दुनिया भर में बेहतर अवसरों का आह्वान किया। गंका ट्रम्प ने कहा कि " जब महिलाएं सशक्त होंगी तभी हमारा परिवार , हमारा समाज , राष्ट्र ओर हमारी अर्थ व्यवस्था सशक्त होगी। " उन्होंने कहा कि " हमारे पिताजी के चुनाव के बाद हमने देश की सेवा के लिये , महिलाओं सहित सभी अमरीकियों को सशक्त बनाने के लिये- सफल बनाने के लिये अपना व्यवसाय छोड़ दिया। " उन्होंने कहा कि यदि भारत श्रमिक लिंग भेद को आधा भी खत्म कर दे तो अगले तीन साल में यहां की अर्थ व्यवस्था में 150 अरब डालर का विकास हो जायेगा। लगता है कि इंवांका ने सबकुछ ठीक ही कहा है पर आंकड़ों की जरा जांच कर लें तो अछच होगा। नासकॉम की रपट के मुताबिक भारत में 5000 स्टार्टअप्स में महिलाओं की भागी दारी फकत 11 प्रतिशत है। यही नहीं जिन स्टार्टअप्स को शेयर पूंजी से चलाया जा रहा है उनमें महिलाओं की भागीदारी केवल 3 प्रतिशत है। अतएव महिला उद्यमिता में ठोस परिवर्तन करने की जरूरत है। यहीं आकर महिला उद्यमियों के इस शानदार सम्मेलन में आन - बान - शान के साथ इवांका की मौजूदगी का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस मोड़ पर आकर लगता है कि महिला उद्यमी सम्मेलन में प्रतीक चिन्ह के तौर पर इवांका को आमंत्रित कर गलती की है भारत ने। यही नहीं इवांका ने खुद को  महिला सशक्तिकरण का चैम्पियन घोषित किया है यहां यह याद रखना होगा कि वे राष्ट्रपति की पुत्री हैं और इसी के कारण वे वर्तमान पद  कायम हैं। दुर्भाग्यवश उन्होंने महिलाओं की दशा सुधारने के लिये कुछ नहीं किया है। यही नहीं वे अमरीका की कुछ महिला विरोधी नीतियों का हिस्सा रहीं हैं। अमरीका में इस बात पर तीखी बहस है कि  अमरीका में लिंगभेद को कम करने के प्रयासों के दौरान इवांका का भाषण एक तरह से उनका दोमुंहांपन है। सितम्बर में इवांका ने एक बयान जारी कर कहा था कि नस्ल , जाति और लिंग के वेतन हासिल पाने के आड़े एकत्र करने के लिये अन्हें सौ से ज्यादा लोगों की जरूरत नहीं है। उन्होंने दावा किया कि ओबामा शासन द्वारा लागू यह योजना इच्छित परिणाम नहीं दे सकी। एक तरफ वे लिंग समानता की वकालत करलती हैं दूसरी तरफ यह महनने से इंकार कर देती हैं कि वेतन में लिंग भेद कायम है। अमीर और सफल पेशेवर के तौर पर एक ब्रांड  इवांका की सर्वोच्च प्राथमिकता है। पिता डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा कई महिला विरोधी नीतियों को लागू किये जाने पर उनकी चुप्पी सबकुछ बता चुकी है कि वे असल में क्या हैं। फॉर्चून पत्रिका ने अपने सितम्बर के अंक में लिखा था कि " इवांका ने हमें बता दिया है कि वह क्या है और बहुत दुख से हमने सीखा है कि हम उनपर विश्वास नहीं कर सकते। " न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है कि इवांका कभी भी सीधी नहीं चलने वाली। यह उनकी फितरत ही नहीं है। वे एक आदमी से ज्यादा एक प्रतीक चिन्ह हैं।

 इन सब तथ्यों से हम दो निश्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इवांका को महिला सशक्तिकरण के अपने वायदे पर भरोसा नहीं है। अतएव महिला सशक्तिकरण के सम्बंध में उनके सारे बयान व्यर्थ हैं। कई लोग कहते हैं कि वे नकली महिलावादी हैं, यह कथन सही लगता है। दूसरी तरफ अगर यह सही नहीं हे तो इवांका मे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर प्रभाव डालने और उनसे नीतियां बदलवाने की क्षमता नहीं है। अगर उनमें राष्ट्रपति से नीतियां बदलवाने की क्षमता होती या अपने आदर्श उनके मायने रखते तो वे कबका स्वतंत्र रूप में काम करना शुरू कर चुकी होतीं। राष्ट्रपति की आर्थिक सलाहकार कौंसिल के सदस्य एलन मस्क का उदाहरण सबके सामने है। अभी भी भारत का यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि ग्लोबल सममेलन में उन्होंने भारतीय उद्यमियों को क्या संदेश दिया है। लेकि एक बात तो स्पष्ट हे कि इवांका को आमंत्रित कर भारत ने महिला सशक्तिकरण को गलत संदेश दिया है।     

Wednesday, November 29, 2017

अंकल सैम की धरती से आया सांता क्लॉज

अंकल सैम की धरती से आया सांता क्लॉज

भारतीय उद्यम-व्यापार क्षेत्र के लिये ढेर सारे अपहार लेकर इवांका ट्रम्प हैदराबाद आयी हुईं हैं। दर असल उनके आने का असली मकसद है दिवालिया पश्चिमी अर्थ व्यवस्थऔं को उबारने के लिये भारत को लूटना जारी रहे। वह जो बहुत कुछ उपहार देंगी उनमें सबसे खास हभिारत को सुपर पावर का दर्जा बनाये जाने का झुनझुना। 90 के दशक के उदारी करण के साथ ही हमने अपने ताकतवर मौद्रिक सिद्धातों के दर किनार कर दिया। हर वित्तमंत्रियों के  आश्वासनों के बावजूद प्रति 7 वर्षो में हमारी अर्थ व्यवस्था की हालत बिगड़ती गयी। अब तो बजाज्हर तौरपर कहा जा सकता है कि हमारे नजरिये कहीं ना कहीं दोष है। विकास का " रहस्य  " और सुपर पावर स्तर पर पहुंचने की मरीचिका - हमारी सरकारों के प्रचारित नजरिये ने हर भारतीय की आंखों पर पट्टी बांध दिया। प​िश्चम के देशों ने इस अगंभीर नजरिये को इतना प्रचारित किया कि हमें लगने लगा कि हम सही राह पर हैं। एक  जमाना था जब हम निर्गुट राष्ट्रों के अगुवा हुआ करते थे पर आज हम भारत - अमरीकी आर्थिक ढांचे का इक पुर्जा बन कर रह गये र्हैं। उदाहरण के लिये इवांका ट्रम्प की हिफाजत के मामले में हमारी खुफिया व्यवस्था के 3500 जियाले लोग और स्थानीय पुलिस अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था के इशारे पर काम कर रही र्है।  यही नहीं हमारे यहां खुफिया आसूचना का काम भी आउट सोर्स किया जा रहा है। हमारा अमरीका से सम्बंध का मूल कारण यही है।  हम बड़े फख्र के साथ अमरीका से अपनी सामरिक भागीदारी की बात करते हैं और अमरीका उतने ही  आराम से हमारे मिसाइल सिस्टम सागरिका और धनुष की खुफियागीरी करता है और हम जबान तक नहीं हिलाते। शायद हमें अब शर्म नहीं आती। इसका निश्कर्ष यह निकलता है कि भारतीय संसाधनों का अमरीका शोषण कर रहा है। उदारी करण और निजीकरण के बहुराष्ट्रीय आदर्श ठीक वैसे ही हैं जैसे 300 साल पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी भारत , अमरीका , अफ्रीका और चीन के सभी उपलब्ध संसाादानों को सोख लिया था। ईस्ट इंडिया कम्पनी के जमाने में यह सिद्धांत मुक्त व्यापार या लैसेज फेयर के नाम से जाना जाता था। चुनिंदा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में अत्यधिक शक्ति के केंद्रीकरण के खतरो के बारे में लगभग 100 साल पहले एक अमरीकी जज ने भांपा था। लेकिन सरकार ने उसे मानने से इंकार कर दिया था। तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह अब देश के प्रधानमंत्री हैं। बीच में वे सरकार में नहीं थे, किंतु जो सरकारें आई, उन्होंने भी कमोबेश इन्हीं नीतियों को जारी रखा। देश के जागरुक लेाग, संगठन और जनआंदोलन इन नीतियों का विरोध करते रहे और इनके खतरनाक परिणामों की चेतावनी देते रहे। दूसरी ओर इन नीतियों के समर्थक कहते रहे कि देश की प्रगति और विकास के लिए यही एक रास्ता है। प्रगति के फायदे नीचे तक रिस कर जाएंगे और गरीब जनता की भी गरीबी दूर होगी। उनकी दलील यह भी है कि वैश्वीकरण के जमाने में हम दुनिया से अलग नहीं रह सकते और इसका कोई विकल्प नहीं है।

प्रारंभ में यह बहस सैद्धांतिक और अनुमानात्मक रही। दोनों पक्ष दलील देते रहे कि इनसे ऐसा होगा या वैसा होगा। हद से हद, दूसरे देशों के अनुभवों को बताया जाता रहा। किंतु अब तो भारत में इन नीतियों को दो दशक से ज्यादा हो चले है। एम पूरी पीढ़ी बीत चली है। किन्हीं नीतियों के या विकास के किसी रास्ते के, मूल्यांकन के लिए इतना वक्त काफी होता है। इन नीतियों वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार, आर्थिक सुधार, बाजारवाद, नवउदारवाद आदि विविध और कुछ हर तक भ्रामक नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में यह वैश्विक पूंजीवाद का एक नया, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा विध्वंसकारी दौर है। अब अब संदर्भ में इवांका ट्रम्प के दौरे पर सोचें। प्रचारित किया गया है कि वे ग्लोबल उद्यमी सम्मेलन में भाग लेने आयीं हैं। प्रचारित किया जा रहा है कि वे महिला आर्थिक सशक्तिकरण की विेशेषज्ञ हैं।वे भारत में इसे लागू करेंगी ओर यफहां की म​्हिलाओं को आर्थिक तौर परल ताकतवर बनायेंगी। पर जब उनसे उनके ही फैशन ब्रांड के बारे में मीडिया ने असहज सवाल किये तो उन्होंने उसे टाल दिया। अब समय आ गया है कि हमें थोड़ा ठहर कर सोचना चाहिये कि कैसे विकास में हमारा भला होगा। वरना हमारी सांस्कृतिक विरासतें नष्ट हो जायेंगी।  

Tuesday, November 28, 2017

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ

अभी हाल में एक सर्वे के  जो ढांचागत सुधार किये हैं आज उसका परिणाम मिलने लगा है। सरकार ने सर्वे के इस नतीजे को खूब प्रचारित किया गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री जी नीं इसी दम पर विदेशी निवेशकों को भारत बुलाया। लेकिन हाल में एक संस्था के सर्वेक्षण के मुताबिक  भारत में सबसे ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार हैं और आज भी लोग भूखे पेट सोते हैं। 119 देशों में भारत 100वें पायदान पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्कोर 31.4 है, जो कि ‘गंभीर श्रेणी’ में आता है।रिपोर्ट के मुताबिक चीन 29वीं , नेपाल 72वीं , म्यांमार 77वीं, श्रीलंका 84वीं और बांग्लादेश 88वीं रैंक पर  है। साल 2014  की रैकिंग में भारत 55वें पायदान पर था। कोई बी देश अपब्नी मर्जी से किसी रिपोर्ट का चयन नहीं कर सकता है। वह यह नहीं कह सकता कि उसके बारें में सकारात्मक रिपोटं सही है और नकारात्मक रपट गलत। अभी कुछ दिन पहले पिउ रिसर्च सेंटर ने लिखा था कि भारत के स्कूयों का स्तर दुनिया में सबसे खराब है। अब अमरीकी संस्था " इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आई एफ पी आर आई ) " ने ग्लोबल हंगर इंडेक्स तैयार किया है। इसमें 119 देशों को शामिल किया गया है और उन 119 देशों में से 100 वां है जबकि 2016 के इंडेक्स में इसका स्थान 100 वां था।  यह इक ऐसी खबर है जिसपर चर्चा होनी ही चाहिये। कुछ अफसरों ने इस रिपोर्ट की खिल्ली भी उड़ायी है, इसे अर्द्ध सतय कहा गया है और कई लोगों ने उस संस्था की साख पर भी उंगली उठायी है। कुछ लोगों का कहना है कि यह कुपोषण और विकास की कमी के बारे में बताता है, भूख नहीं।  2017 की भूख सूची में भारत का स्थान युद्ध से दग्ध ईरान और दुनिया भर में कुजात छंटे उत्तर कोरिया  से पीछे है। एशिया के महज दो देश अफगानिस्तान और पाकिस्तान का रैंक भारत से नीचे हे। भारत अब खाद्य के मामले में सियेरा लियोन, मेडागस्कर , चाड, और यमन आगे है। सभी देशों में एक दलीय लोकतंत्र है या कह सकते हैं कि वहां परोक्ष तानाशाही है। हाल के महीनों में कई देसी और विदेशी शोधों ने जी एच आई की रिपोर्ट की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। भारत में अशिक्षा के मामले में विश्व बैंक की​ एक रपट में थॉमस पिकेरी ने लिखा है कि भारत की कुल आबदी का शीर्ष  0.1 प्रतिशत भाग की विकास में वही हिस्सेदारी है जो निम्न 50 प्रतिशत की। ए एस ई आर ने तो लगातार भारत में प्राइमरी शिक्षा की खस्ता हाली पर चर्चा की है और बताया है कि इन मामलों में भारत की ​स्थिति कितनी नाजुक है। यही नहीं आम आदमी की दुरावस्था के बारे में सरकार से तकाजा करने वाली रपटों का अभाव नहीं है। यह संयोग नहीं है कि दुनिया के जो भी देश शीर्ष आर्थिक और सामाजिक स्तर पर दर्ज हैं उन देशों में ऊंची क्वालिटी की शिक्षा , सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण भी प्रचुर है। हमें मुगालते में नहीं रहना चाहिये या कहें कि खुद को बेवकूफ नहीं बनाना चाहिये। यह मुगालता कि हम विश्व शक्ति बनने की होड़ में शामिल हैं बिल्कुल उसी तरह है जैसे कोई खच्चर खुद को रेस का घोड़ा समझने लगे। मौजूदा खतरनाक सामाजिक और इंसानी दुर्दशा एक दिन में नहीं हुई है। यह भ्रष्ट उस भ्रष्ट राजनीतिक सिस्टम का परिणाम है जो कुछ निर्वाचित लोग चला रहे हैं। जिन लोगों को देश की सत्ता पांच दशकों से सौंपी गयी है वे लोग जानबूझ कर ए ेसी नीतियों को लागू कर रहे हैं जो शासक वर्ग को मुफीद हो। मानवीय मामलों में खासकर शिक्षा के ढांचे या सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे मामले एक दिन या कुछ हफ्ते या दो चार सालों में ना सुधरते हैं ना बिगड़ते हें। अभी देश में जो हालात हैं शिक्षा, स्वास्थ्य पर्यावरण, शिशु पालन और कृषि के उनहें देखते हुये कहा जा सकता है कि इससे सम्बंधित मंत्रालयों को यदि कुछ महीनों के लिये बंद भी कर दिया जाय तो कोई असर नहीं पड़ने वाला। यकीनन, इस खराब स्थिति के लिये वर्तमान सरकार को दोषी बताना बहुत जल्दीबाजी कही जायेगी, पर अकर्मण्यता की जो ​स्थिति है उससे जाहिर होता है कि अगले चुनाव के बाद 2024 तक यह सरकार खुदबखुद सारे दोष अपने ऊपर ले लेगी किसी को दोष लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हाल के दिनों में बड़ी आर्थिक नीतियां अपनायीं गयीं। जैसे नोट बंदी। नोट बंदी के बार में कुछ कहने से पहले यह तो मानना होगा कि सरकार ने स्वीकार किया कि देश में कालाधन है। दुनिया की कोई अर्थव्यवस्था समानांतर अर्थव्यवस्था को नहीं झेल सकती। जी एस टी अगले पांच वर्षो में बदलाव ला सकता है और डिजीटल इंडिया कार्यक्रम प्रशासन को सक्षमता से चला सकता है पर निहित स्वार्थी ततवों से इसे बचाये रखना होगा। सामाजिक क्षेत्रो में सुधार लाने होंगे और जैसे यह सब हुआ सरकार पर जन का भरोसा कायम हो जायेगा। सभी मानते हैं कि लोकतंत्र में आम आदमी की जरूरतों को प्राथमिकता मिलनी चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा बदलाव नहीं आने वाला।          

Sunday, November 26, 2017

विकास कहां गया भाय !

विकास कहां गया भाय !

गुजरात चुनाव के प्रचार में नेताओं को सुनते हुये कोफ्त होती है। अबसे 12 दिनों के बाद गुजरात में विधान सभा चुनाव का पहला चरण होने वाला है। ... और अनमने मतदाताओं के सामने बड़ी- बड़ी बातें की जा रहीं हैं। अब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने भावनगर में मतदाताओं (पार्टी कार्यकर्ताओं पढ़े ) से पूछा कि " क्या उन्हें पर्याप्त पानी और बिजली मिलती है? " भीड़ से एक स्वर में कहा गया कि " हां " , यह ठीक वही स्टाइल है जब मोदी पिछले लोक सभा चुनाव में पूछा करते थे- "महंगायी घटी " और भीड़ चीखती - " नहीं " ! अमित शाह भी इन दिनों गुजरात में कुछ इसी तरह के जुमले उछाल कर लगते हैं रोहिंग्या मुसलमानों की बात करने , कश्मीर के मामले में पी चिदम्बरम की बात करने। इसके बाद फिर कुछ सवाल वे भीड़ के सामने उछालते हैं और वहां सब मौन रहते हैं, क्योंकि वे सब भाजपा कार्यकर्ता थे। शाह फिर बात दोहराते हैं और मामूली जवाब मिलता है। शाह के भाषणों से दो ही बातें उभर कर सामने आती हैं पहला कि वे मामूली साम्पद्रायिक मसलों पर जन भावना को आजमाना चाहते हैं अथवा प्रधानमंत्री एवं अन्य नेताओं  के भाषणों के विषय के बारे में लोगों को संकेत दे रहे हैं। प्रधान मंत्री ओर पार्टी के अनय नेता इस हफ्ते गुजरात आने वाले हैं। हकीकत यह हैं कि उनकी बातें विकास केंद्रित नहीं हैं। अब ऐसे में बहुत कम लोगों के पास पूरा भाषण सुनने का धैर्य था और राष्ट्रीय मीडिया को शाह के भाषणों के अर्थ भेद में दिलचस्पी है नहीं। यानी उनका सारा भाषा लोकल स्तर पर सुनने सुनाने के लिये था। 

 दूसरी तरफ, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 12 दिन की अपनी नवसर्जन यात्रा में उ त्रर ,दक्षिण ओर मध्य गुजरात के 20 मंदिरों का दौरा किया। इनमें दलितों के भी दो मंदिर थे। अब उनके इस दौरे से पता नहीं चला कि वे चुनाव प्रचार कर रहे थे देव दर्शन। इस दौरान राहुल ग्हहंधी सभाओं को सम्बोधित भी करते। उन सभाओं में शा्रेताओं को बताते कि नोटबंदी से छोटे और मझोले वर्ग के लोगों तथा उद्योगों को भार हुईै है और नौजवान बेरोजगार हो गये हैं। उन्होंने बताया कि कैसे किसानों की जमीन उद्योगपति हड़प रहे हैं। उन्होंने जानकारी दी कि कार का कारखाना बनाने के लिये 33 हजार करलोड़ रुपये अग्रिम दे दिये गये। जी एस टी को गब्बर सिेह टैक्स वाल उनका जुमला तो खूब चला।   

 ये सब बड़बोला है या कहें कि लन्तरानियां हैं लेकिन ये असली मसायल को कहां छूती हैं। असली मसायल तो हैं पानी की​ किल्लत , किसानों की दुर्दशा और नौजवानों में बेरोजगारी। इनपर तो बातें ही नहीं होतीं। गुजरात के शहरी और ग्रामीण इलाकों में पानी की भयंकर किललत है। भावनगर नगर निगम तों यहां एक दिन छोड़ कर पानी देता है। एक दिन लोगों को पानी नहीं मिलता। मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र राजकोट भी पानी को तरसता है। निजी पानी टैंकर वाले पानी की अनाप शनाप कीमत वसूलते हैं तब भी नगरीय और उपनगरीय क्षेत्रों यह दुर्लभ है। गुजरात हल्के रगिस्तानी इलाकों से भरा है, वहां पानी​ की भारी किल्लत है। सरकार की सारी योजनाएं पाइप लाइन में ही अटकी पड़ी हैं। 

 गुजरात के किसानों की दूसरी विपदा है  खेती। अगर बी टी कपास की फसल पिटती है तो किसान विपत्ति में फंस जायेंगे क्योकि वहां 99.9 प्रतिशत किसान बी टी कपास की ऊपज पर ही निर्भर हैं। पिछले दो वषों से फसल मारी जा रही है और उस पर सरकार ने बी टी कपास का समर्थन मूल्य 150 रुपये कम कर दिया। इसके बाद से उर्वरक , कीटनाशी, बिजली की कमी , डीजल के बढ़ते दाम इत्यादि तो किसानों की विपदा को और बढ़ा देते हैं। लेकिन वहां समस्या है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति अभी तक नहीं बेठी। भाजपा नेताओं को मालूम नहीं कि गुजरात चुनाव का घोषणा पत्र क्या है। कांग्रेस औरल भाजपा एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं  कि वे विकास के एजेंडे को नजर अंदाज कर रहे हें। यही कहते कहते नेता एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप भी लगाने लगे हैं। यह अगर हमारे देश के भविष्य के लिये हानिकारक नहीं है तो यकीनन हासयास्पद तो है ही। हमारे नेताओं के पास कहने के लिये कुछ नहीं है। आने वाले सभी चुनावोश्में यही सब सुनने को मिलने वाला है , जनता तैयार रहे। 

 

Friday, November 24, 2017

अगर संसद को अधिकार नहीं तो किसे है

अगर संसद को अधिकार नहीं तो किसे है

संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत की संबावनाओं के बीच सप्ताह के आरम्भ में ही संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार ने कहा कि संसद का शीतकालीन सत्र दिसम्बर में होगा। सरकार ने अभी तारिखें तय नहीं की हैं। अक्सर संसद कह शीतकालीन सत्र नवम्बर के मध्य में होता आया है और तीन से चार हफ्ते चला करता था। भारतीय संसद के अधिवेशनों की कोई तयशुदा तारिखें नहीं हैं। इसके अलावा इसे अपना अधिवेशन बुलाने का कोई अधिकार नहीं है। संविधान में केवल इतना ही कहा गया है कि एक अधिवेशन से दूसरे अदिावेशन के बीच 6 महीने से ज्यादा की अवधि नहीं होनी चहिये। संसद का अधिवेशन बुलाने का अधिकार कार्यपालिका को है। जब संविधान बन रहा था तो संसद के अधिवेशन को बुलाने के अधिकारों पर गम्भीर तथा लम्बी बहस हुई थी। संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने आशंका व्यक्त की थी कार्यपालिका हो सकता है " संसद का मुकाबला करने से डरती हो " और अधिवेशन बुलाने का काम " टाल " दे। कुछ मेंमबरों ने यह भी दलील दी थी कि आपात​​ स्थिति में लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति भी अधिवेशन बुला सकते हैं।  बाद में यह तय हुआ कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कार्यपालिका राष्ट्रपति को सलाह दें ओर वह संसद का अधिवेशन आहूत करे। व्यावहारिक तौर पर संसदीय मामलों की केबिनेट समिति संसद के अधिवेश की तारिख तय करती है ओर राष्ट्रपति को इसकी जानकारी दे देती है जो बाद में संसद के अधिवेशन को आहूत करता है। क्या यह तरीका संसद को अपना काम प्रभावशाली तौर पर करने की अनुमति देता है ? कार्यत:  संसद हमारे लोकतंत्र का पहरुआ है और कार्यपालिका से जवाब तलब करने का इसे हक है। लेकिन इसे अधिकार नहीं है अपनी बैठकें बुलाने का। यह कार्यपालिका तय करती है। वर्षों से संसद के तीन अधिवेशन होते रहे हैं। पहला बजट सत्र , दूसरा मानसून सत्र और तीसरा  शीतकालीन सत्र। कई बार ऐसा हुआ है कि एक सत्र लम्बा खिंच कर दुसरे सत्र में बदल जाए। मसलन 2008 में जब मनमोहन सिंह के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तब मानसून सत्र नवम्बर दिसम्बर तक खिंच कर शीत कालीन सत्र मं बदल गया था। 2011 में भी बजट सत्र की अवधि घटा दी गयी थी ताकि राजनीतिक दल चुनाव प्रचार कर सकें। अमरीका, इंग्लैंड , जर्मनी जैसे अन्य लोतेंत्रों में संसदीय कैलेंडर तय है। संसद की बैटक कौन बुला सकता है यह मसला बहुत महत्वपूर्ण है। यह संसद की बैटकों की लगातार कम होते दिवसों से जुड़ा है। विगत दस वर्षों में संसद की औसतन 70 बैटके सालाना हुईं हैं। जबकि इसके पहले साल में कम से कम 120 बेटकें हुआ करती थीं। इसके पहले संसद के कामकाज पर गठित एक राष्ट्रीय आयोग ने तय किया था कि साल लोकसभा की 120 तथा राज्यसभा की 100 बेठकें हों। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी व्हीप्स सम्मेलन का उद्घाटन करते हुये कहा था कि संसद की बैटके साल में 130 दिन होनी चाहिये। वर्तमान राजनतिकगतावरण में संसद की बैटके बुलाने पर काफी टीका- टिप्पणी हो रही है। क्योकि कई महत्वपूर्ण विधेयकों में संशोधन विचाराधीन है। सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था होने के कारण संसद सरकार पर कई मामलों में आरोप लगाती है और सरकार को उसका जवाब देना होता है। सरकार ऐसे विचार विमर्श से बचना भी चाहती हे। लेकि क्या यह जरूरी नहीं है कि संसद की बैठक का एक तयशुदा कैलेंडर हो? क्या इस सवाल पर विचार नहीं होना चाहिये कि संसद के सदस्यों की न्यूनतम संखग मिल कर संसद के अधिवेशनों की तारिखें तय कर दें? क्यों सरकार के इशारे पर यह होता है?