जायज है हर बात सियासत में
हमारा देश निर्माण कि राह पर चल रहा देश है. किसी देश या समाज के ऐसे चरण में व्यवस्था के मुखौटे के ठीक नीचे वाली परत में हिंसा कायम रहती है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब व्यवस्था नाम कि परत दरकती है तब हिंसा का विद्रूप चेरा दिकने लगता है. इस कि मिसाल देने कि ज़रुरत नहीं है. दूर ना जाकर पिछले हफ्ते की ही घटना देखें. गुंडों के एक गिरोह ने फतहपुर सिकरी में एक जवान स्विस जोड़े को बुरी तरह पीता. यही नहीं गाय के एक व्यापारी को इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गयी, या जब एक कम उम्र लड़की से अमानुषिक बलात्कार हुआ. दुखद तो यह है कि जब इस घटना का जिक्र आता है तो सोशल मीडिया में लोग कहने लगते है कि एक घटना को मिसाल नहीं बनाया जा सकता है, कि ऐसा तो पहले भी होता आया है , कि दूसरे देश में भी ऐसा होता है वगैरह वगैरह. इसके अलावा पूरा मुल्क चुप रहता है. यह कोई नहीं कहता कि राजनीतिक नेता अपने राजनितिक उद्देश्य कि पूर्ति के लिए क़ानून को तोड़ना मरोड़ना बंद करें. संयोगवश आज हमारे देश कि बड़ी नेता की मृत्यु वार्षिकी है. उन्हें उनके ही अंगरक्षकों ने गोलियों से भून दिया तह. उनकी मौत के बाद राजनीतिज्ञों और पोलिस कि सांठ गाँठ से निर्दोष लोगों कि बर्बर ह्त्या कर दी गयी. इस घटना के 30 वर्ष बीत गए लेकिन आज भी उस नेता कि याद में अखबारों में विज्ञापन छपते हैं लेकिन उनकी मौत के बाद मारे जाने वाले लगभग 3000 सिखों को कभी याद नहीं किया जाता. इसमें सबसे दुखद तो यह है कि इस खून खराबे का “ प्रबंध “ सेकुलर कांग्रेस ने किया था. अपनी प्रिय नेता कि ह्त्या का बदला लेने के लिए. जो लोग उन दिनों दिल्ली में होंगे या जिन्होंने उन दिनों का अखबार देखा होगा उन्हें सड़कों पर पड़ी लाशें , जलते वहां और विलाप करती महिलाओं कि सूरतें भूली नहीं होंगी. ट्रकों पर लाड कार ले जाई जा रही अकड़ी हुई लाशों का वह मंज़र अभी भी आखों के सामने नाच रहा होगा. इस खून खराबे के बाद राजीव गांधी क़ानून का पक्ष लेने की बजाय इस हिंसा के औचित्य का बताने में जुट गए. यही नहीं इस घटना के अपराध में किसी भी राजनीतिज्ञ , पुलिस अधिकारी , या शासकीय अधिकारी को आज तक सजा नहीं मिली. यही नहीं अधिकाँश भारतीय नागरिकों ने इस मामले में जुबान बंद रखी. सरकार पर कभी भी पर्याप्त दबाव नहीं पडा. विरोधी दल के नेता भी केवल भाषण देते रह गए.
आज कोंग्रेस विपक्ष में है. आदर्शवादी भाषण देने की उसकी बारी है आज. जब भी गोरक्ष्कों के हाथों कोई गौ विक्रेता मारा जाता है या किसी गुमनाम दक्षिणपंथी आदमी के हाथ कोई वामपंथी लेखक या बुद्धिजीवी मारा जाता है तो भा ज पा नेता इस पर राष्ट्रवाद , हिन्दुगौरव इत्यादि का मुखौटा चढ़ा देते हैं. सबसे बड़ी विडम्बना है कि हमारी डो बड़ी सिआसी पारित्यों में से कोई भी संभवतः यह नशी समझ पा रही है कि हिंसा से केवल हिंसा ही पैदा होती है और इसपर सबका असर आरम्भ होने लगता है. तानाशाही देशों में क़ानून लागू करना फ़ौज का काम है अतः जो इसे भंग करते हैं उसे फ़ौज गोली मार देती है , लेकिन भारत कि तरह लोकतांत्रिक राष्ट्र यह कार्य पुलिस के हाथों में सौंपा गया है. दुःख तो इस बात का है कि हमारे सियासी नेता अक्सर पुलिस के काम में दखल देते हैं. नतीजा यह होता है कि बेहतरीन पुलिस अधिकारी भी क़ानून को सख्ती से लागू करने में हिचकता है. लोकतंत्र में कई निषेध और संतुलन हैं. हमारे यहाँ लोकतंत्र का अर्थ है हर 5 साल में वोट देने का मौक़ा. अगर देश को बचाए रखना है तो इसे बदलना होगा. ऐसा करना कठिन नहीं है. क्या करना होगा, पुलिस में कैसे बदलाव लाना होगा इसके लिए रोजाना हज़ारों शब्द लिखे जाते हैं. जिसमें बढ़ चढ़ कर बताया जाता है कि पुलिस को सियासती दखलंदाजी से अलग रखा जाना चाहिए. लेकिन ये सारे शब्द गृह मंत्रालय की दीवारों के भीतर घुट कर रह जाते हैं. जब भी यह सवाल उठता है तो रता रटाया जवाब मिलता है कि क़ानून और व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है. ऐसा है भी और नहीं भी. जब किसी राज्य में मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री एक ही पार्टी का होता है तो वे एक टीम की तरह काम करते है. उदाहरणस्वरुप , इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय का एक आदमी राजस्थान में मारा जाता है या एक स्विस जोड़े को यू पी में पीटा जाता है तब राज्य सरकार के साथ साथ प्रधानमन्त्री की भी जिम्मेदारी बनती है कि इसपर करवाई करें. स्विस जोड़े पर हमला इतना शर्मनाक था कि विदेश मंत्री को हस्तक्षेप करना पडा और बयान देना पड़ा. इसलिए ऐसा कुछ भी नहीं कि प्रधानमन्त्री कुछ ना करें या करने का अधिकार नहीं है. लोकतंत्र में क़ानून का कडाई से पलालं करवाना उतना ही ज़रूरी है जितना चुनाव. यह सब जानते हैं कि चुनाव के दौरान राजनीतिज्ञों कि शह पर गुंडे बूथ दखल कर लेते हैं. बाद में इन गुंडों ने सोचा कि एव दूसरों के लिए क्यों बूथ दखल करेंगे और खुद सियासत में कूद पड़े तथा चुनाव लड़ने लगे. इन्म्वें से कुछ संसद में बैठ गए कुछ विधान सभाओं में. अतः कानून के लागू होने कि उम्मीद ही क्यों करें ?
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