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Wednesday, May 15, 2019

2019 में राजनीति की डगर 

2019 में राजनीति की डगर 

पता नहीं कितने लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि मौजूदा चुनाव अभियान के दौरान जितने भी तर्क दिए जा रहे हैं ,जितनी भी कहावतें  कहीं जा रही हैं उसी वजन के उनके विपरीत भी बातें हो रही हैं। लगता है न्यूटन के गति सिद्धांत के तीसरे नियम की यहां व्याख्या हो रही है। हर तर्क का उतनी ही मजबूती से जवाब सुनने को मिल रहा है। चुनाव अभियान के दौरान भाषणों की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि जो पुरानी धारणाएं हैं, पुराने विचार हैं नई अवधारणाओं पर हावी हो जाते हैं। कहावतें सिद्धांत बन जाती हैं।  जब चुनाव के नतीजे आ जाते हैं तो यह सारी चीजें समाप्त हो जाती हैं और राजनीतिज्ञों की पेशानी पर पड़े बल के रूप में हकीकत के निशान साफ दिख जाते हैं। 2019 के चुनाव परिणाम के आने में बस अब एक हफ्ता बाकी रह गया है। चुनाव अभियान के दौरान तरह -तरह के प्रवचन सभाओं में दिए गए और मतदाताओं को  लुभाने की कोशिश की गई। कहावतों का जमकर इस्तेमाल हुआ। कहते हैं कि चुनाव अभियान के दौरान दिए जाने वाले मुफ्त तोहफे चुनाव के बयार की दिशा तय करते हैं। जिस तरफ से जितना बड़ा तोहफा मिलेगा बयार उसी दिशा में बहेगी। कहा तो यह जाता है कि कई स्थानों पर मतदान के दिन मतदाताओं को नगदी भी दिए जाते हैं। कुछ राज्यों में सुना गया है कि 2000 रुपये प्रति मतदाता को नगद तक बांटे गए हैं। इसके अलावा सस्ती बिजली, न्यूनतम आमदनी,  महंगाई में कमी इत्यादि के वादे तो अपनी जगह कायम ही रहते हैं।
       राजनीतिक सिद्धांतों के मुताबिक  चुनाव के दौरान के हालात और जरूरतों के आधार पर रणनीति बनाई जाती है। खाते में कुछ रुपए और खेती के लिए दिए गए कर्ज की माफी की  बात आम है। कहते हैं कि 2009 में मनरेगा और खेती के लिए दी गई सुविधाओं के आधार पर कांग्रेस को विजय मिली थी। लेकिन शायद यह सच नहीं है। 2013 में कांग्रेस ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की शुरुआत की।यह जनकल्याण की बहुत बड़ी योजना थी। लेकिन 2014 में कांग्रेस हार गई। 2014 के बाद से मोदी सरकार ने कल्याण की कई योजनाएं शुरू की हैं इनमें जन धन योजना, उज्जवला योजना, आयुष्मान भारत, सुरक्षा बीमा इत्यादि कई हैं जिन राज्यों में भाजपा की सरकार थी वहां इन योजनाओं को बहुत जोरदार ढंग से लागू किया गया है। इनके फायदों का जमकर प्रचार किया गया। लेकिन इसके बावजूद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा हार गई थी।
           यह सच है कि लोग स्थाई सरकार चाहते हैं और उसके नाम पर वोट भी देते हैं। यही नहीं जब भी कोई  बाहर खतरा होता है या बाहरी खतरे का खौफ पैदा किया जाता है तो उसके बाद सरकार का जोश देखने के काबिल होता है। शुरू से ही देश में किसी भी गड़बड़ी के लिए कोई बाहरी हाथ की कहावत प्रचलित थी और अब तो पाकिस्तान और आतंकवादी गतिविधियों  का भय दिखाया जाना आम बात हो गई है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि यह जोश वोट में बदल जाए। 1965 की जंग  तो याद होगी। लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे और पाकिस्तान को जोरदार पटकी दी गई थी। इसके  बाद 67 में चुनाव हुए और इंदिरा गांधी की अगुआई वाली सरकार को उन चुनावों का सामना करना पड़ा था। चुनाव में कांग्रेस का वोट 44.7 प्रतिशत से घटकर 40% हो गया था। 1962 में लोकसभा के 488 सदस्यों में से 361 कांग्रेस के थे जबकि 67 में 516 सीटों पर चुनाव हुए और कांग्रेस के सांसदों की संख्या 283 हो गई। 8 राज्यों से कांग्रेस का पत्ता साफ हो गया। 1998 में भाजपा को 182 सीटें मिली थीं। 13 दलों के सहयोग से वाजपेई जी की सरकार बनी थी। 1998 में ही भारत ने परमाणु परीक्षण किया और सीना तान कर परमाणु शक्ति संपन्न देशों की कतार में खड़ा हो गया। लेकिन 1999 में बाजपेई जी की सरकार फकत 1 वोट के कारण गिर गई। अविश्वास प्रस्ताव पर उन्हें एक वोट कम मिले। 1999 की मई में पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला किया। जंग में पाकिस्तानी सेना को भारतीय सेना ने धूल चटा दी और सितंबर 1999 में लोकसभा चुनाव हुए तथा उस चुनाव में 20 पार्टियों के गठबंधन वाली एनडीए को बहुमत मिला। लेकिन भाजपा उसी 182 सीट पर अटकी पड़ी रही। उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में 1998 में भाजपा को महज 57 सीटें मिलीं। 1999 के चुनाव के बाद वहां भाजपा की सीटें घटकर 29 हो गई। सारे समीकरण वाजपेई और कल्याण सिंह के बीच तनाव की भेंट चढ़ गए।
          कई बार कहा जाता है कि आर्थिक सुधारों से भी विकास दर बढ़ती है और सकल घरेलू उत्पाद की ऊंची दर भी लोगों के लिए सहायक होती है, उनकी गरीबी दूर करने में मददगार होती है। लेकिन क्या इससे राजनीतिक लाभ मिल सकता है? शायद नहीं। वरना क्या बात है कि सकल घरेलू उत्पाद की दरों में सुधार का श्रेय राजनीतिक दल अपने ऊपर आसानी से क्यों नहीं लेते। भारत में राजीव गांधी के शासन के दौरान विकास दर 10 से 16% था। नरसिंह राव के जमाने में लाइसेंस राज खत्म हुआ और दोनों सरकारों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था। हालात यह हो गए थे कि कांग्रेस ने कहना शुरू कर दिया था कि सुधार गरीब विरोधी हैं। वाजपेई जी के शासनकाल में कई बड़े सुधार हुए। वित्तीय घाटा घटा, ब्याज दरें कम हुईं। 2004 में स्थिति यह हो गई भाजपा कार्यकर्ताओं ने और खुद बाजपेई जी ने "शाइनिंग इंडिया" के नारे लगाने शुरू किए। इस चुनाव का नतीजा बताने की जरूरत नहीं । मनमोहन सिंह की पहली पारी में भी सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का आंकड़ा 9% हो गया लेकिन कांग्रेस या मनमोहन सिंह ने इसे प्रचारित नहीं किया। 2019 में चुनाव प्रचार में सकल घरेलू उत्पाद पर कोई बात ही नहीं हो रही है। क्योंकि एक कहावत चल रही है की अच्छी अर्थव्यवस्था सियासत के लिए अच्छी नहीं होती। गरीबी हटाओ के नारे आधी सदी तक चलते रहे आज भी इसकी गूंज है।
           चुनावी नतीजों की अगर व्याख्या की जाए तो उसमें कई कारक नजर आएंगे। इन कारकों में बहुत कुछ शामिल है जैसे जनसांख्यिकी, भूगोल, शिक्षा, आर्थिक विकास इत्यादि इत्यादि। सबके अलावा वादों का प्रचार और उसे वोटरों को विश्वास दिलाने की पार्टी मशीनरी की ताकत पर भी काफी कुछ निर्भर करता है । कई बार ऐसा होता है कि कई नेताओं की भूमिका एकदम विवाद हीन होती है लेकिन वोटर उनसे कुछ दूसरा चाहते हैं । लोकमत को पहचानने की ताकत जिस नेता में होती है वहीं सही नेता होता है। 2018 में  लुभावने कार्यक्रमों के बावजूद तीन राज्यों में भाजपा हार गई। पार्टी इसे सत्ता विरोधी लहर कहती है, लेकिन सच यह है कि कृषि आपदा में और कृषि पीड़ा ने सत्तारूढ़ दल को पराजित कर दिया। कृषि पीड़ा और भ्रष्टाचार के आरोप लगातार चुनाव को प्रभावित करते रहे हैं। 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के गौरवशाली नतीजों के बावजूद कांग्रेस को कई सीटें गंवानी पड़ी थी। कई राज्यों में हारना पड़ा था । क्योंकि चुनाव से पहले 2 वर्षों तक कृषि विकास दर नकारात्मक थी। आपातकाल के बाद इंदिरा जी की पराजय में जो जन आक्रोश था उसमें कृषि  विकास दर में गिरावट का की भी बहुत बड़ी भूमिका थी। करप्शन का भी चुनाव के नतीजों पर असर पड़ता है। 1989 में रक्षा सौदों में घोटाले को लेकर  राजीव गांधी की सरकार को हारना पड़ा था। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ही 2014 में यूपीए की सरकार हार गई थी। जो भी प्रचार होता है उसका एक क्रियात्मक गुणांक भी होता है और यह चुनाव के नतीजों को प्रभावित करता है। 23- 24 मई फैसले का दिन है। देखना यह है कि मतदाताओं की कलम से  क्या इतिहास लिखा गया। यही इतिहास राजनीति की नई डगर तय करेगा।

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