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Tuesday, May 7, 2019

.......लेकिन चुनाव आयोग हार गया

.......लेकिन चुनाव आयोग हार गया


इन दिनों चुनाव आयोग की निष्पक्षता और कर्तव्य परायणता पर सवाल उठने लगे हैं। किसी जिम्मेदार और संविधानिक संस्था पर इस किसिमके सवाल उठे इससे काफी निराशा होती है। कुछ दिन अहले तक चुनाव आयोग की इतनी साख थी कि उसने देश की सबसे बड़ी अदालत से मांग की थी कि उसे भी मान हानि करने वालों को उसी तरह के अधिकार मिलने चाहिए जैसे उसे है ताकि राजनीतिक दल या उम्मीदवार अथवा आम आदमी उसके फैसले की आलोचना ना कर सके। लेकिन अब सत्ता या कहें प्रधानमंत्री के प्रति जो उसका लिजलिजा रुख है उसे देख कर लग रहा है कि चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन इस चुनाव में चुनाव आयोग हार गया। क्योंकि उसे विजयी तो तब माना जाता जब वह विश्वसनीयता के नए प्रतिमान गढ़ता। लेकिन अब तो उसके आचरण में कहीं निष्पक्षता दिख ही नहीं रही है। आप पूछ सकते हैं कि ऐसा क्यों? खुद ही देख लें।मोदीजी सेना में शौर्य का बखान कर वोट का जुगाड़ कर रहे हैं और उन्हें कोई रोक नहीं रहा है। यह संयोग मात्र है कांग्रेस सांसद प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतों पर कार्रवाई ना होने में मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गयी आयोग झट उसे यह कह कर निपटा दिया कि शिकायतों पर विचार के बाद पाया गया कि वे सही नहीं हैं और ऐसे आरोपों पर क्या कार्रवाई हो? मामला खत्म। 
लेकिन प्रधानमंत्री ने वायनाड में जो हिन्दू मुसलमान किया या बालाकोट को सामने रख कर वोट समर्पण का जो आह्वान किया क्या यह आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है? एक राजनीतिक दल के पोस्टर में विंग कमांडर अभिनंदन की तस्वीर के उपयोग पर संज्ञान लेते हुए 19 मार्च को चुनाव आयोग की इस वर्जना का मोल क्या रह जाता है जिसमें उसने सभी दलों से ताकीद की है कि वे चुनाव अभियान में सैनिकों और सैन्य अभियानों की तस्वीरों का उपयोग ना करें। कुछ अपेक्षाकृत छोटे कद या पद वाले नेताओं-उम्मीदवारों से सख्ती और प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष से नरमी की राह पर चल कर चुनाव आयोग सांविधानिक तकाजों की अवहेलना कर रहा है। यह देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए बेहद चिंताजनक है। 
    जो नियम हैं उनके मुताबिक आचार संहिता के उलंघन की शिकायतों के निपटारे के मामले में कोई भी अदालत हस्तक्षेप नहीं करती। संहिता के नियमों के मुताबिक किसी भी दल को ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे जातीय या धार्मिक या भाषाई समूहों में नफरत बढ़े या घृणा बढ़े। साथ ही कोई राजनीतिक दल ऐसी कोई अपील जारी ना करे जिससे किसी की धार्मिक या जातीय भावनायें आहत हों। लेकिन प्रधानमंत्री तक इसके अनुपालन नहीं करें और इसकी शिकायतें चुनाव आयोग से किये जाने के भी कार्रवाई ना हो तो लगाता है कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है।
      एक जमाने में चुनाव आयोग की साख इतनी ज्यादा थी कि ब्रिटेन में 1991 में जब चुनाव आयोग का गठन हुआ तो कहा गया था कि वह भारत के अनुभवों से सीख सकता है।दरअसल चुनाव आयोग को सियासत के बीहड़ों से गुजरना होता है जिसमें हर कदम पर  जोखिम है। ऐसे में कोई जटिल फैसला लेना बड़ा जटिल है। दूसरे आयोग की आलोचना हो तो सार्वजनिक रूप में अपना बचाव करना बड़ा कठिन होता है। पूर्व नौकरशाहों ने राष्ट्रपति को पत्र लिख कहा था कि " साख के संकट से जूझते चुनाव आयोग ने जिस अंदाज में बर्ताव किया है कि उससे उसकी साख इतनी गिर गयी है जितनी कभी नहीं गिरी थी। संविधान की धाराओं  के तहत स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए आयोग को बहुत अधिक अधिकार प्राप्त हैं। इन अधिकारों से अलग आयोग की साख उसकी नैतिक ताकत है।  जिस ताकत का आयोग उपयोग नहीं कर पा रहा है। वरना क्या बात थी कि विपक्षी दलों के शासन वाले पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश में पुलिस के उच्चाधिकारियों के तबादले इस अंदाज में  किये गए जिसे देख कर ही लगता है कि उनमें विसंगति है। तमिलनाडु में डी जी पी का तबादला नहीं हुआ जबकि विपक्षी दलों ने बारम्बार इसकी मांग की थी। चुनाव के दौरान विपक्षी नेताओं के यहां आयकर छापे पड़े लेकिन आयोग ने कोई कार्रवाई नहीं की सिवाय ऐतराज जताने के। संविधानिक दायित्वों में आयोग का पिछड़ना आम बात हो गयी है खासकर प्रधानमंत्री और अमित शाह के मामले में। एन्टी सैटेलाइट वेपन को आधार बना कर प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया। इस अप्रत्याशित निर्णय पर चुनाव आयोग चुप बैठा रहा। आयोग ने एक लचर तर्क दे  दिया कि इसका प्रसारण दूरदर्शन से नहीं हुआ था। आयोग मूल सवाल ही गोल कर गया कि चुनाव के दौरान ऐसा होना चाहिए अथवा नही। अमित शाह ने उन समुदायों के नाम गिनाए जिन्हें घुसपैठिया नही माना जायेगा। लेकिन चुनाव आयोग ने चुप्पी साधे रहा। किसी के नैतिक बल की परीक्षा तब होती जब वह सबसे ताकतवर को ललकारे। इस चुनाव में आयोग सबसे ताकतवर का तरफदार लग रहा है या बिल्कुल निरुपाय। 

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