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Monday, May 27, 2019

नए राजनीतिक दृष्टिकोण का युग

नए राजनीतिक दृष्टिकोण का युग

लोकसभा चुनाव का परिणाम चमत्कारिक रूप से परिवर्तनकारी है। नेहरू की मृत्यु के  पूरे साढे पांच दशक के बाद देश में 23 मई 2019 को नेहरू गांधी का युग समाप्त हो गया। 1971 में इंदिरा जी की विजय के बाद यह पहला अवसर है जब किसी एक दल को दूसरी बार बहुमत मिला है। कई राज्यों में भाजपा के वोट का हिस्सा 50% तक हो गया। 2014 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को फकत 44 सीटें मिली थी और 5 वर्षों तक वह राजनीतिक रूप से एक हारी हुई पार्टी की तरह दिखती रही और अब फिर लंबे समय तक एक मामूली हैसियत के रूप में कायम रह सकती है। कांग्रेस को इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि दूसरी बार भी वह इतनी बुरी तरह क्यों हारी ? भाजपा बालाकोट के कारण नहीं जीती और ना ही आतंकवाद का भय दिखाकर विजयी हुई। गौ हत्या के नाम पर हमले, घर वापसी, अखलाक की हत्या इत्यादि बेशक समस्याएं थी लेकिन इनके लिए जनता ने भाजपा को दंडित नहीं किया।  कांग्रेस को इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि उपरोक्त स्थितियों का भाजपा के वोट हिस्से पर असर क्यों नहीं पड़ा? यही नहीं, कृषि पीड़ा, बेरोजगारी ,जीएसटी, नोटबंदी या रफाल जैसे मसलों का मोदी तथा भाजपा के चुनाव पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ा ? मतदाता बेवकूफ नहीं हैं। अपनी जरूरतों को समझते हैं और यह भी जानते हैं कि उन्हें हानि कहां से हो रही है। ग्रामीण भारत में बिजली दौड़ गई, शौचालय बन गए और खुले में शौच करने से मुक्ति मिल गई । मतदाताओं के पास बैंक खाते हैं। अगर वह गरीबी रेखा से नीचे हैं तो आयुष्मान भारत की सुरक्षा उनके लिए है। गरीब किसानों को 6हजार रुपयों  की मदद है, जो बेशक राहुल गांधी के नजरों में बहुत मामूली रकम है लेकिन इस रकम को हासिल करने वालों के लिए यह मामूली नहीं है। मतदाता अनाड़ी भी नहीं हैं। राहुल गांधी का एक हिंदू के रूप में, ब्राह्मण ना कहें ,चोला धारण करना ,मंदिरों में जाना और फोटो खिंचवाना मतदाताओं को मूर्ख नहीं बना सके। कांग्रेस यह सोचती थी कि वह ब्राह्मण का चोला पहन रहे हैं तो वोट भी जीत जाएंगे। लेकिन यह गलत साबित हुआ। मुस्लिम समुदाय से दूर होना उनके लिए लाभकारी नहीं हुआ।
         अब कांग्रेस को क्या करना है? पहले तो वह जिस पर भी जिस भी सिद्धांत या विचार  पर विश्वास करती है उसकी जांच करे। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता को त्याग दिया और मृदु हिंदू वाद को अपना लिया। अगर वह अब भी समाजवाद पर भरोसा करती है तो उसे यह स्पष्ट करना होगा कि इसका मतलब उसके लिए क्या है। उसे अपने कार्यकर्ताओं का पूरा काडर तैयार करना होगा। एक समय में देशभर में फैले अपने संगठन को फिर से गढ़ना होगा। अगर पार्टी की अध्यक्षता परिवार के लिए ही आरक्षित है तब भी पार्टी के अन्य पदों पर इसे लोकतंत्र को लागू करना पड़ेगा। तभी अन्य परिवार आधारित पार्टियों के लिए एक मिसाल कायम होगी। भारत बदल रहा है । चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि जाति का कोई प्रभाव नहीं है और ना ही गठबंधन का । वैसा प्रभाव तो बिल्कुल नहीं  है जो 1989 से 2000 के बीच था। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सका। राहुल गांधी अमेठी गवां बैठे । ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पारिवारिक गढ़ से पराजित हो गए । प्रियंका को लाना बहुत ज्यादा लाभदायक नहीं हुआ। स्मृति ईरानी ने यह प्रमाणित कर दिया की चुनाव क्षेत्र में कठोर परिश्रम ज्यादा लाभदायक होता है।
         एक और बड़ा बदलाव हुआ कि वामपंथ नकारा हो गया । 1952 में अविभाजित सीपीआई एक अगुआ राजनीतिक संगठन थी। 1996 से 98 के बीच वामपंथी दल सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल थे। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के लिए न्योता दिया गया था लेकिन उनकी पार्टी सीपीआई(एम)  ने उसे स्वीकार करने से रोक दिया। पिछले 70 वर्षों में सीपीआई(एम) ने अलग-अलग समय में केरल, पश्चिम बंगाल ,त्रिपुरा इत्यादि राज्यों में शासन किया। अब यह सिकुड़ कर महज 5 सीटों तक सीमित हो गई। इसके बुद्धिजीवी प्रभाव इसकी राजनीतिक मौजूदगी को नहीं बचा सके। जनसंघ और भाजपा को 1998 में सत्ता में आने में 50 वर्ष लगे थे। अब तो ऐसा लगता है कि मतदाताओं के समर्थन से सत्ता में कायम रहेगी।
           भाजपा की इस विजय का महत्व इसलिए नहीं है कि उसने बहुत ज्यादा सीटें हासिल की। 2014 में भी उसे बहुमत हासिल था। इसका महत्व केवल इसलिए है कि इसने कांग्रेस के राजनीतिक मैदान में खुद को स्थापित कर लिया । अल्पसंख्यकों को एकजुट भारत में सुरक्षित होने का एहसास जो नेहरू जी के दृष्टिकोण ने पैदा किया था उसे भाजपा में अपनी राजनीतिक ताकत को एकत्र कर और हिंदू पहचान को बढ़ावा देकर बहुलता वादी शासन को स्थापित किया। भाजपा ने घोषणा कर रखी है कि वह सत्ता में आने के बाद धारा 370 को समाप्त कर देगी। अयोध्या में मंदिर उसके एजेंडा में है और उचित समय पर इसका निर्माण शुरू होगा। अगर अदालत इसके पक्ष में निर्णय नहीं देती है तो नए कानून बनाने की राह अपनाई जाएगी। मोदी ने  एक ताकतवर नेता की छवि भी तैयार की। नए मोदी युग में नरेंद्र मोदी को अपरिमित शक्ति प्राप्त हुई है । ऐसी शक्ति तब मिलती है जब विपक्ष में कोई दम न हो और विपक्ष का नैतिक बल समाप्त हो गया हो।

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