विकास के लिए ढांचागत सुधार जरूरी
लोकसभा चुनाव 2019 मतों की गणना आज होगी और यकीनन कोई न कोई सरकार तो बनेगी ही। कोई भी सरकार बने उसे देश में आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा। इकोनॉमिस्ट पत्रिका के पिछले अंक में भारत की अर्थव्यवस्था की चर्चा करते हुए कहा गया था कि भारत की अर्थव्यवस्था का आकलन करना बड़ा ही नामुराद काम है। इसके सकल घरेलू उत्पाद का आधा हिस्सा अनौपचारिक उद्यमों से आता है और यह उद्योग सहज कराधान को नहीं मानते ही नहीं तथा अन्य हिस्सा सेवा क्षेत्र से प्राप्त होता है। जिसकी गणना करना और भी कठिन है। आंकड़े तैयार करने वाले लोगों ने 2016 -17 में सर्विस कंपनियों का एक व्यापक सर्वे किया। उन्होंने लगभग 35000 उद्योगों की सूची तैयार की। इन उद्योगों की सूची निबंधित कंपनियों की सूची से ली गई थी जो कारपोरेट मंत्रालय की नई पहल एमसीए 21 के अनुसार ऑनलाइन अपने खाते जमा करते हैं। लेकिन इस तरह से तैयार आंकड़े जमीनी हकीकत से अलग थे। क्योंकि बाद में 12% कंपनियों को खोजा ही नहीं जा सका। शायद वे सिर्फ कागज पर थीं और 5% कंपनियां इस सूची के तैयार होने से पहले बंद हो चुकी थीं और अन्य 21% कंपनियां सर्विस कंपनी थी ही नहीं। इससे भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों पर संदेह होता है। क्योंकि यह आंकड़े भी एमसीए21 की सूची ही निर्भर हैं। इसलिए बहुतों का मानना है कि आंकड़े बढ़ाकर कर दिए गए हैं ताकि राजनीतिक लाभ प्राप्त हो सके। लेकिन इसी के साथ ही भारतीय सांख्यिकी की साख भी गिर गई । दोष दर्शी तो यह कह सकते हैं कि हजारों ऐसी सर्विस कंपनियां हैं जिनका कोई वजूद ही नहीं है। वह सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को बढ़ा रही हैं। वर्तमान में ध्यान देने वाली बात है कि अब चर्चा का विषय होगा कि आर्थिक वृद्धि पुनः 7% कब होगी या 7% के निशान को कब पार कर जाएगी। लेकिन यहां यह मसला नहीं है। मसला है कि आर्थिक वृद्धि की दर साढे 6 प्रतिशत के आसपास कब तक घूमती रहेगी। यहां यह मानना जरूरी है कि पहले जहां अर्थव्यवस्था थी यानी जो उसका आंकड़ा था वहां अपने आप नहीं पहुंच जाएगी। दूसरी बात है कि जैसा कि इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने कहा है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े अविश्वसनीय हो चुके हैं। अतएव हमें वास्तविक आंकड़ों पर ध्यान देना होगा और इसके आकलन की विधि तैयार करनी होगी। ऐसा तरीका निकालना होगा जिससे आंकड़ों से छेड़छाड़ संभव नहीं हो। पिछले 5 वर्षों में व्यापारिक वस्तुओं का निर्यात सुस्त रहा है यह हमारे घरेलू उत्पादन की नाकामी का प्रतीक है। इसके कारण अर्थव्यवस्था अधोमुखी हो रही है। वही हाल करों की उगाही का है। शुरुआती दौर में तो उगाही में वृद्धि दिखी फिर वह धीरे धीरे गिरने लगी। जीएसटी के मद में जो आमदनी है उससे स्पष्ट है कि व्यापार में तेजी नहीं है। उपभोग के आंकड़े कई क्षेत्रों में गिर रहे हैं और इससे कारपोरेट क्षेत्रों के उत्पादों की बिक्री और लाभ पर असर पड़ रहा है। कर्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा है और उसी के साथ बैलेंस शीट पर दबाव भी। उद्यमी कर्ज का बोझ घटाने में लगे हैं। नतीजा यह हुआ कि कर्ज नहीं घटा पाने के कारण कई उद्यमी सब कुछ बेचकर अपना धंधा समेट के लिए और कई दिवालिया हो गए। स्टील, बिजली और सीमेंट उत्पादन से आंकड़े में वृद्धि नहीं दिखाई पड़ रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर निगरानी के लिए केंद्र सरकार ने जिन निगम परियोजनाओं को चुना था वह सुस्त पड़ी हैं। परियोजनाओं के लिए सरकारी कोष में मदद में कटौती की गई है । यहां तक कि कई परियोजनाओं को पिछले कार्यों के लिए भुगतान नहीं किया गया है। देश के राजस्व में कमी आ गई है। चालू खाता माथे पर पसीना ला रहा है।
वित्त क्षेत्र भी बस घिसट रहा है। क्रेडिट की आमद में सुधार हुआ है लेकिन बैंकों के सामने अभी भी मुश्किलें हैं। पिछली तिमाही तक सरकारी बैंकों ने 52 हजार करोड़ से ज्यादा कर्ज़ की रकम बट्टे खाते में डाल दी है जो पिछड़ी आंकड़े का लगभग दुगना है। अब गैर बैंकिंग वित्त कंपनियां कर्ज देने की कतार में खड़ी हैं । उन कंपनियों की बैलेंस शीट में जो रहस्य छिपे हैं उसके कारण उनमें आत्मविश्वास की कमी है और उन्हें भी लिक्विडिटी का मुकाबला करना पड़ रहा है। अब चारों तरफ से मंदी दिखाई पड़ रही है और कोई सरकार इसका मुकाबला कैसे करेगी। अगर सरकार आर्थिक कारोबार को ताकत प्रदान करने के लिए मौद्रिक और वित्तीय कदम उठाती है तो कुछ हल नहीं होगा। बिना वित्तीय अनुशासन लागू किए सरकार टैक्स में छूट नहीं दे सकती है। रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में जो कटौती की है वह बाजार में वास्तविक दरों में दिखाई नहीं पड़ रही है। घाटा बढ़ता जा रहा है ऐसे में सरकार अगर मौद्रिक कदम उठाती है तो कर्ज इतना ज्यादा हो जाएगा की मौद्रिक नीति के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। एक और विकल्प अर्थ शास्त्री बताते हैं की रुपए का अवमूल्यन किया जाए। जिससे ग्लोबल खरीदारों को सस्ते खरीद के लिए उकसाया जा सकता है। ऐसा करने से राजनीतिक दवाब बढ़ जाएगा। भय के कारण किसी भी सरकार ने इस दिशा में अभी तक सोचा नहीं है। इससे भी बड़ा खतरा है कि सरकार ने अपने पिछले दौर में आर्थिक सुधारों को जो गति प्रदान की थी कहीं उसमें त्वरण कम ना हो जाए या उसकी लय ना टूट जाए। इसलिए ज्यादा जरूरी है नए ढांचागत सुधार करना। पिछले 15 वर्षों में ढांचागत सुधार नहीं किया गया। नई सरकार को जमीन, श्रम और पूंजी के मामले में सुधार करना जरूरी होगा। सरकार को महत्वपूर्ण कानूनों में परिवर्तन करना होगा। बड़ी सरकारी कंपनियों को उबारने के लिए उनके लिए बड़े बजट के प्रावधान करने होंगे । राजनीतिक रूप से यह भी मुमकिन नहीं लग रहा है। क्योंकि इससे मजदूरों और किसानों की परेशानियां बढ़ जाएंगी। यह दोनों पहले से ही दबाव में हैं। अब इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत को धीमी गति के विकास के लिए तैयार रहना पड़ेगा । ऐसा पहले भी होता था लेकिन सरकार सकल घरेलू उत्पाद और बेरोजगारी के आंकड़ों में छेड़छाड़ कर इस पर पर्दा डाल देती है । मनमोहन सिंह के बाद आर्थिक वृद्धि दर 7% से नीचे चली गई। अब यह दर नौजवानों को रोजगार दिलाने में पर्याप्त नहीं है और अगर ऐसा नहीं हो पाता है यानी सरकार नौजवानों को रोजगार नहीं दे पाती है तो उसका व्यापक सामाजिक तथा राजनीतिक असर पड़ेगा। चुनाव के दौरान वादों की अगर व्याख्या करें तो एक खतरा साफ दिखाई पड़ रहा है । वह है वादों को पूरा करने के लिए सरकार हो सकता है आर्थिक वृद्धि के वास्तविक लक्ष्य की ओर ध्यान दें और इस चक्कर में कहीं विस्तारवादी नीतियों को ना अपना ले। इसलिए वायदों के पहाड़ से प्रभावित हुए बिना संतुलित ढंग से सरकार को देश में सबसे पहले ढांचागत सुधार करने की पहल करनी चाहिए।
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