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Tuesday, May 7, 2019

इस चुनाव का विरोधाभास

इस चुनाव का विरोधाभास

3 मई 2019
2019 का चुनाव  अत्यंत विरोधाभासी है। चुनाव आयोग का पहला कर्तव्य है कि वह इस बात पर पूरा ध्यान रखे कि सत्तारूढ़ दल केवल अपनी क्षमता के कारण दूसरे दलों के प्रति कोई नाजायज लाभ नहीं उठा सके। लेकिन शायद ऐसा नहीं होता है। भारत में चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ब्यूरोक्रेसी का बॉस होता है । वह अपनी इच्छा अनुसार या किसी दबाव के अनुसार जूनियर और सीनियर अफसरों के तबादले करता है । हमारे देश का चुनाव आयोग इस वर्ष एक शोध का विषय है। ऐसा चुनाव जिसमें  किसी एक दल को अनुचित लाभ मिले और वह भी सिर्फ इसलिए कि वह सत्ता में है ऐसे चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कैसे कहा जा सकता है? इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक  वोटिंग मशीन में गड़बड़ी की बात बहुत जोर शोर से उठ रही है लेकिन यह समझने के लिए कोई तैयार नहीं है कि मतदान शुरू होने के पहले ही राजनीतिक प्रक्रिया में अगर धांधली कर दी गई तो ईवीएम में गड़बड़ी की  कोई जरूरत नहीं रह जाती। कई ऐसे मसले हैं जिन पर विचार के बाद ऐसा लगता है यह चुनाव सबके लिए एक तरह का नहीं है। यह अत्यंत विरोधाभासी है। सबसे पहली बात तो चुनाव में होने वाले खर्च की। चुनाव आयोग के अनुसार  एक चुनाव में एक प्रत्याशी 70लाख रुपये तक खर्च कर सकता है। यह सीमा है । लेकिन  एक प्रत्याशी अनाप-शनाप खर्च करता है और उसके खर्च की कोई सीमा नहीं रहती। इस कारण जो अमीर दल हैं वह लाभ में रहते हैं और गरीब दल हाथ मलते रहते हैं। चुनाव आयोग चाहता है कि उनके लिए भी सीमा बने लेकिन राजनीतिक दल इसे नहीं मानते। जो सत्तारूढ़ दल होता है उसकी आर्थिक संभावनाएं भी दूसरों से अलग और ज्यादा होती हैं। अब एक लोकतंत्र की हैसियत से हमें पूछना होगा क्या यह सही है कि एक अमीर पार्टी जा संसाधनों से भरी पार्टी है वह एक बड़ा अभियान चला सकती है और मतदाताओं को लुभा सकती है। चुनाव में खर्च की सीमा कम करने का वक्त आ गया है। चुनाव में किसी पार्टी की खर्च की सीमा नहीं होने से यह एक तरह से अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में बदल गया है। सबसे जरूरी है कि आम लोगों और सरकार के बीच सांसदों के माध्यम से संवाद कायम हो। लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है बीच में दौलत की खाई है और यह आम आदमी को आगे बढ़ने से रोक देती है। सांसद उनके लिए आकाश कुसुम होते हैं।
       यह हकीकत है लेकिन थोड़ी कड़वी है कि हमारे देश की राजनीति काले धन पर चलती है। सारे दल काले धन के खिलाफ ताल ठोकते हैं और उसी का सहारा लेते हैं। मिसाल के तौर पर देखिए, लोकसभा के एक उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा 70 लाख रुपए तय की गई है। ऐसा लगता है यह कोई मजाक है। शायद ही कोई सांसद इतने कम में चुनाव लड़ता है। चुनाव में कालेधन का उपयोग कुछ ऐसी हकीकत है जिस को बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन तब भी अफसरों और विपक्ष में भेदभाव नहीं होना चाहिए। ऐसा प्रदर्शित किया जाता है कि केवल विपक्षी दलों के पास ही काला धन है। विपक्षी नेताओं के घर पर उनसे संबंधित लोगों के घर पर या  कार्यालय में चुनाव से पहले और चुनाव के बाद  छापे पड़ते रहते हैं। इससे सत्तारूढ़ दल को 2 फायदे मिलते हैं पहला की वह चीख चीख  कर बताता है कि विपक्षी नेता भ्रष्ट हैं और दूसरा कि विपक्षी नेताओं की चुनाव अभियान क्षमता पर भी चोट पहुंचती  है। विपक्षी दलों पर और उनके साथ वालों पर छापे से लोगों को यह मानने पर मजबूर किया जा रहा है कि वह दल और उनसे जुड़े दल कालेधन का उपयोग करते हैं बाकी सत्तारूढ़ दल और उनसे जुड़े दल एकदम पाक साफ हैं। वह काले धन का उपयोग बिल्कुल नहीं करते हैं। 
ऐसे में जॉर्ज ऑरवेल की एक बात याद आती है कि "एक समाज जितना एक दूसरे से दूर होगा उतना ही वह उन लोगों से नफरत करेगा जो उसके बारे में बोलते हैं ।" इस के आलोक में एक बात समझने की कोशिश करें , लोकतंत्र में लोक की शक्ति ज्यादा है लेकिन हमारे लोकतंत्र में धन की शक्ति ज्यादा दिखाई पड़ती है। अवांतर सत्य और वैकल्पिक वास्तविकता के इस महा समुद्र में कुछ तो सच है जो वास्तविक और डरावना है।  कोई इस पर बहस नहीं करना चाहता। एक ऐसा स्वनिर्मित नेता जो खुद को "चायवाला" और "चौकीदार" बताता है वह आज भारत के इतिहास में सबसे अमीर पार्टी का मुखिया है। उनके कार्यकाल में भाजपा देश के इतिहास में सबसे अमीर पार्टी बन गयी। अब चूंकि जांच एजेंसियां इसी पार्टी की सरकार के अंतर्गत हैं तो दौलत के इस बेशुमार इजाफे की जांच कौन करे? यहां तक कि खोजी पत्रकारिता की धार भी कुंद हो गई सी प्रतीत हो रही है। चुनाव आयोग के समक्ष 8 फरवरी 2018 को प्रस्तुत वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार 2016 -17 में भाजपा की आय 1,034 करोड़ हो गई जबकि 2015- 16 में यह 570 करोड़ थी। भारत दुनिया के गरीब देशों में से एक है जहां लाखों लोगों को स्वास्थ्य शिक्षा और रोजगार उपलब्ध नहीं है । लेकिन लोग लाखों रुपए राजनीति में झोंक रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि यह लोकतंत्र गरीबों के लिए, गरीबों द्वारा और गरीबों का नहीं रहा।" दुनिया का यह सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र आज अमीरों का लोकतंत्र बन गया है और हार तथा जीत  में दौलत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
अभी हाल में सोशल मीडिया में एक खबर वायरल हुई कि  जो बहुत ही महत्वपूर्ण है उन्हें समाचार चैनलों में नहीं दिखाया जा रहा है।  क्यों नहीं मीडिया की भूमिका पर एक राष्ट्रीय बहस का आयोजन किया जाए। यह स्पष्ट है कि इन दिनों मीडिया सत्तारूढ़ दल के प्रचार की मशीन में बदल गई है। देश के लोगों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है की कांग्रेस के राहुल गांधी सत्ता के लिए उपयुक्त नहीं हैं। माहौल को हास्यास्पद बनाने के लिए तैयार किए गए संपादित, सैद्धान्तिक वीडियो सोशल मीडिया से इतने ज्यादा प्रचारित हुए हैं कि बहुत बड़ी संख्या में लोग राहुल गांधी के संबंध में इस तथ्य को मानने लगे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था दूरदर्शन को सभी दलों के लिए समान समय देना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। हाल में इसके लिए चुनाव आयोग ने भी उसे काफी फटकारा था। पिछले 5 वर्षों में मीडिया को धमकाया गया है। फर्जी खबरों को वायरल किए जाने के कारण हमारा लोकतंत्र दयनीय होता जा रहा है सत्य निरर्थक होता जा रहा है। एक नेता के अलावा कोई विकल्प नहीं यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक नहीं है और राष्ट्र को इस पर सोचना चाहिए।
       बेशक हमारा चुनाव आयोग अत्यंत सक्षम है तथा विश्वसनीय है लेकिन इस चुनाव में वह तटस्थ नहीं दिख रहा है। कुछ नेता अपने प्रचार के दौरान सेना के लिए धर्म और संदर्भों का खुल्लम- खुल्ला उपयोग कर रहे हैं और चुनाव आयोग देख कर भी अनदेखी कर रहा है। चुनाव आयोग के  इस आचरण के बारे में रिटायर अफसरों ने राष्ट्रपति से  शिकायत भी की है। एक प्रश्न ,चुनाव ड्यूटी पर  तैनात एक अफसर प्रधानमंत्री के हेलीकॉप्टर की जांच क्यों नहीं कर सकता? रूल आफ लॉ सबके लिए बराबर है। तमाम नियम और कानून प्रधानमंत्री पर क्यों नहीं लागू हो सकते? शिकायत के बावजूद चुनाव आयोग ने कोई कदम नहीं उठाया। इससे स्पष्ट होता है कि वह तटस्थ नहीं है। चुनाव जीतने और हारने से एक चीज ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है लोकतांत्रिक सिद्धांतों का कायम रहना और संस्थानों का अक्षुण्ण रहना। अगर हम लोकतंत्र के लिए तन कर खड़े नहीं होंगे तो वह दिन दूर नहीं कि यह देश बुरी तरह विभाजित लोगों का देश बन जाएगा और लोग एक दूसरे से इतनी नफरत करने लगेंगे इस पर बात भी नहीं करेंगे तथा जिसकी परिणति भयंकर हिंसा में हो सकती है।

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