राजनीति की चौकीदारी
इन दिनों चौकीदार शब्द एक नया विमर्श बन गया है और नये अर्थ धारण करने वाला है। पूरी संभावना है कि चुनाव के बाद नये अर्थ के साथ यह शब्द हमारे सामने होगा। यद्यपि इसकी व्यापकता थोड़ी सीमित होगी और देश तथा काल के अनुरूप इसका स्वरूप बदलता रहेगा । शब्द इसी तरह कोष के अंग बनते जाते हैं। हममे से बहुतों को स्मरण होगा कि 2012 से 2014 के अनंतर एक नया शब्द बना था "पोस्ट ट्रुथ " जिसका भारत में तर्जुमा हुआ था "सत्यातीत सत्य।" यह प्रसंग यहां इसलिए उठाया गया कि इस चुनाव के दौरान झूठ या मिथ्या का जुलूस देखा जा सकता है , झूठ की संख्या , गति और व्यपति अत्यंत बढ़ चुकी है और अब जो हो रहा है और जिस काल में हो रहा है उसे किसी संज्ञा से अभिहीत करना बाकी रह गया है । कहा जा सकता है कि यह सत्यातीत समय है। एक ऐसा समय जब राजनेता और सच की हिफाजत के लिए तैनात संस्थाएं ही झूठ को समर्थन दे रहीं हैं। झूठ का भयानक गति से विस्तार हो रहा है और इसमें सच निस्तेज होता जा रहा है। सच की केन्द्रीयता और महत्व समाप्त हो गए हैं। जार्ज ऑरवेल ने दूसरे विश्व युद्ध के समय लिखा था कि " वस्तुनिष्ठ सत्य की अवधारणा दुनिया से समाप्त हो रही है और अब आने वाले समय में झूठ इतिहास बनाएंगे।" लेकिन इन दिनों समय और आगे बढ़ चुका है अब तथ्य एक नहीं रह गए हैं उसके कई विकल्प हो गए हैं और वैकल्पिक तथ्य वास्तविक तथ्य का स्थान लेते नजर आ रहे हैं। शब्द बिम्बों से पहचाने जाते हैं और इनदिनों बिम्ब स्थानांतरित हो रहे हैं। चौकीदार से पप्पू तक इसका उदाहरण है। इस समय की कई और विशेषताएं हैं। मसलन, भावनाओं के वजन बढ़ते जा रहे हैं और सबूत के वजन घटते जा रहे हैं। यही नहीं किसी भी सिद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्त को एक वैकल्पिक सिद्धांत का छद्म खड़ा कर के संदिग्ध बनाया जा सकता है और चतुर जनसंपर्क द्वारा उसकी व्याप्ति बढ़ाई जा सकती है। यही नहीं इस सत्यातीत समय की एक खूबी यह भी है कि चुनिंदा तथ्यों के चालाकी नियोजन से नई सच्चाई गढ़ी जा सकती है और समान अवसर पर सच और झूठ के बीच एक अवास्तविक समता बना दी जा सकती है।
ये ताजा स्थितियां इस देश में व्यापक स्वरूप ग्रहण कर रहीं हैं। हमारे इतिहास या राष्ट्र के जो भी व्यापक मूल्य थे चाहे वह सत्य, अहिंसा ,समता, स्वतंत्रता या न्याय कुछ भी वह सब देखते-देखते संदिग्ध और विवादास्पद हो गए हैं। सांच बराबर तप नहीं और सत्यमेव जयते ये देखते संदिग्ध और विवास्पद बनते जा रहे हैं थता झूठा, विषम और हिंसक देश बनाने की कोशिश चल पड़ी है। यह सत्ता से लेकर संस्थानों तक से पोषित हो रहा है। अगर यह कायम रहा तो हम सत्यातीत भारत में रहने के लिए बाध्य हो जाएंगे। हमारी निष्क्रियता और उदासीनता के कारण यह एक ऐतिहासिक ट्रेजेडी होगी।
इन दिनों एक नवीन समाज वैज्ञानिक स्थिति उतपन्न हो रही है और उसे विमर्श का नाम दिया जा रहा है। इस विमर्श की मूलवृति विरोध है कोई विरोधात्मक प्रतिपादन नहीं है इसका उद्देश्य सभी विमर्शों को अप्रासंगिक बना देना है। इसकी मूल प्रवृति है जरेक के लिए दरवाजों को बंद कर देना क्योंकि इसका मानना है कि यदि सबके लिए दरवाजे खुले रहेंगे तो अराजकता फैल जाएगी। इसलिए सीमाएं होनी चाहिए। इस सीमांकन के लिए ज्ञान के वर्चस्व को कम करना अनिवार्य है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए नई टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया आदि का उपयोग कर अज्ञान की वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने का प्रयास हो रहा है।
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
एक छोटे से अर्धसत्य - अश्वत्थामा हतो .... ने महाभारत का परिणाम बदल दिया था तो सबने ध्यान दिया होगा कि चुनाव के इस महासमर में कितना असत्य बोला जा रहा है उसे देखते हुए यह स्पष्ट कल्पना की जा सकती है कि हमारा लोकतंत्र कैसा होगा। आज हम एक ऐसे मुकाम पर आ गए हैं जहां गली और लांछन की भाषा में लोकतंत्र बोलेगा। यह भाषा रोज खराब होगी और इसके घटिया होते जाने का दृश्य देखने के लिये हम बाध्य होंगे। यह नाराज , आक्रामक और भक्त का भेड़ियाधसान शुरू हो चुका है इसमें सबसे ज्यादा विनाश लोकतांत्रिक परस्परता का हो रहा है । अगर यह रुका नहीं तो एक ऐसी पीढ़ी आएगी जिसे लोकतंत्र और संविधान में भरोसा ही नहीं रहेगा। चुनाव में भाषा की मर्यादा घट रही है और इस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग विफल होता दिख रहा है। चुनाव का क्या होगा यह कहना कठिन है लेकिन इस दौरान लोकतंत्र पर जो भयानक आघात लग रहे हैं उनसे उत्पन्न घावों को भरना आसान नहीं होगा और उन घावों को भरने में सत्ता की दिलचस्पी नहीं रहेगी। वर्तमान समय में लोकतंत्र की चौकीदारी केवल सजग नागरिकता ही कर सकती है। लोकतंत्र खुद को परिवर्धित कर सकता है और इस लोकतांत्रिक आशा को छोड़ा नहीं जा सकता।हो सकता है कि अंदर ही अंदर नागरिकता सजग हो रही हो क्योंकि हम भरोसा करते हैं "संभवामि युगे युगे" पर। इस समय भी संभावनाएं सुलग रहीं हैं और समय आने पर निर्णायक रूप से प्रगट हों। यह उम्मीद गलत भी हो सकती है । फिर भी हम इस लोकतांत्रिक उम्मीद को छोड़ नहीं सकते।
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