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Tuesday, May 7, 2019

संस्कृति, मतभेद और सियासत

संस्कृति, मतभेद और सियासत

6 मई 2019
इसबार का चुनाव सियासत के संदर्भ में  संस्कृति पर बहस को हवा देकर मतभेद की नई बुनियाद खड़ी कर रहा है। एक वक्त जब बुद्धिजीवी मानवाधिकार, समाज सुधार और गरीबों के अधिकारों की बात करते थे। अब बुद्धिजीवी भी सियासत की बात में जुटे हैं और समाज संस्कृति के विभिन्न खांचों में विभाजित हो रहा है। यह विभाजन राजनीति की सतह से बहुत गहरा होता जा रहा है। राजनीति की इस ताजा गतिविधि को समझने के लिए जरूरी है कि पहले राजनीति के नीचे के सांस्कृतिक तनावों को समझें। विख्यात समाज शास्त्री पियरे बोर्दु ने "डिस्टिंक्शन" में लिखा है कि मनुष्य अवचेतन विभिन्न संस्कृतियों को प्राथमिकता प्रदान करता है। बोर्दु ने उदाहरण के तौर पर कहा है कि अधिकांश बुद्धिजीवी रूढ़ियों पर नहीं विश्वास करते वहीं श्रमिक वर्ग या किसान वर्ग के लोग उस पर विश्वास करते हैं। ऐसा इस लिए नहीं कि एक वर्ग बुद्धिजीवी है और एक किसान है बल्कि इसलिए कि दोनों का विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश में लालन पालन हुआ है। लेकिन जब यही श्रमिक या किसान वर्ग के लोग विकसित होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं तो उनके भीतर एक सांस्कृतिक द्वंद्व आरम्भ हो जाता है। इनके भीतर नए परिवेश के अनुरूप बदलाव आने लगता है। इस बदलाव के कारण उस बदलते व्यक्ति के कुटुम्ब में भी तनाव बढ़ जाता है।कुछ लोग इसे आर्थिक खुशहाली के कारण उत्पन्न स्थिति बताते हैं पर दरअसल यह नई संस्कृति में प्रवेश के कारण होता है क्योंकि इसके फलस्वरूप विचार, चिंतन तथा रहन-सहन में बदलाव आने लगते है। यही तनाव राष्ट्रीय सांस्कृतिक मतभेद के रूप में परिलक्षित होता है जो हमें इस चुनाव में देखने को मिल रहा है। बहस सम्प्रदायों के अस्तित्व को लेकर चल रही है। हम इस बात पर नहीं बहस कर रहे हैं कि कैसे शिक्षा की व्यवस्था में सुधार हो, भ्रष्टाचार खत्म हो ,लोंगो की आर्थिक हालत सुधरे, रोजगार के अवसर बढ़ें बल्कि हम बहस कर रहे हैं कि किस सम्प्रदाय के लोगों को  देश में रहने दिया जाय और किसे नहीं। हमारी कोशिश यह नहीं है कि चुनाव का नतीजा चाहे जो हो हमारा साम्प्रदायिक सद्भाव   बढ़े।
  समाज में फैल रही वैमनस्यता आगे चल कर हिंसा को जन्म देगी। जिसकी बानगी हम लिंचिंग और विभिन्न प्रकार के सीमित हिंसक प्रयासों में अभी ही देख सकते हैं। यह तय है कि हिंसा से कभी किसी देश या समाज का कल्याण नहीं हुआ। बेशक उसका धेय्य चाहे जो हो। दुनिया के सामने कम्यूनिज्म के नाम पर जितने लोग मारे गए उतने दोनों विश्वयुद्ध में नहीं मारे गए थे। नतीजा क्या हुआ कम्युनिज्म दुनिया से समाप्तप्राय है। इसके अलावा मिस्र, अफगानिस्तान, अरब इत्यादि कई देशों में हिंसक क्रांतियां हुईं पर क्या वह दीर्घकालिक रह सकीं? भारत में भी स्वतंत्रता  संग्राम के दौरान हिंसा हुई लेकिन संग्राम का मूल अहिंसक था इसलिए आज भी विविधता पूर्ण समाज कायम है।अब उस विविधता में विभाजन का प्रयास हो रहा है। वे यह शायद समझ नहीं पा रहे हैं कि विभाजन की नींव पर खड़ा समाज आगे चल कर और विभाजित होगा। 
यहां एक सवाल है कि हिंसा की सरभौमिक्ता की हमारे जीवन में प्रासंगिकता क्या है? इस के उत्तर के बारे में संकेत हमारे जीवन में निराशा की भावना को जाहिर करते हैं। क्या कभी हमने सोचा कि इसका विकल्प क्या है या सबपर शाषन करने के मौत के ड्राइव के मनोभाव से हम ग्रस्त हैं?
यह कोई समझने को तैयार नहीं दिख रहा है कि धर्म का मूल शांति और सद्भाव में है। शांति और मनवमूल्य धूलधूसरित होते दिख रहे हैं। न्याय ,समानता और एकता अब विशिष्ट समूहों के लिए होती जा रही है। समाज हम और वे दो भागों में तकसीम हो रहा है।     
हम यह नही सोचते कि सबलोग सद्भाव से रहें उल्टे यह सोचने के लिए समाज को उकसाया जाता है कि चुनाव के बाद अगर सरकार से सुविधाएं मिलेंगीं तो क्यों वह दूसरे सम्प्रदाय को मिले। हमारे देश में एक तिहाई बच्चे कुपोषण के शिकार हैं उनका पोषण प्राथमिकता नहीं है। समाज को विभाजित करने के लिए झूठी खबरें फैलाई जा रहीं हैं। सांस्कृतिक तनाव पैदा करने में हमारी सोशल मीडिया की भूमिका सर्वोपरि है। समाज के निम्न और मध्य स्तर तक मोबाइल फोन तथा इंटरनेट की पहुंच के कारण खबरें तड़ितवेग से फैलतीं हैं। एक सर्वे के अनुसार 52 प्रतिशत लोग फेस बुक और व्हाट्सऐप से खबरें मालूम करते हैं। आंकडें बताते हैं कि इस चुनाव के दौरान लगभग 25 करोड़ लोग फ़ेसबुक और व्हाट्सएप से जुड़ गए। झूठी खबरों में सबसे ज्यादा होती हैं राजनीतिक खबरें और उनमें भी समाज को विभाजित करने वाली खबरें। इससे होता यह है कि हम उन्हीं अंधेरों में भटकते रहते हैं जहाँ से निकलने की कोशिश करते रहे हैं। राजनीतिज्ञ यह अच्छी तरह समझते हैं कि विकास से समझ और विचार का दायरा भी विकसित होगा। इससे सियासी चालबाजियों का असर नहीं होगा। यह तय है कि सभी सम्प्रदाय को यहीं रहना है पर चुनाव के बाद हमारे सामने एक बदला हुआ समाज रहेगा जिसमें अविश्वास का बोलबाला रहेगा।

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