हरिराम पाणेय
24.6.2011
भारत के इतिहास में तुर्की की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। हालांकि भारत का विभाजन भी तुर्की के कारण ही हुआ लेकिन कालांतर में धर्म निरपेक्षता की बुनियाद भी पड़ी। पहले विश्वयुद्ध में जब तुर्की के सुलतान पराजित हो गये तो उनकी खिलाफत को खतरा हो गया। चारों तरफ हवा फैल गयी कि ब्रिटिश हुकूमत येरुशलम के मुफ्ती को खलीफा की गद्दी सौंपना चाहती है। मुस्लिम विश्व में बड़ा आक्रोश था। महात्मा गांधी को लगा कि यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत में हिंदुओं मुसलमानों के संयुक्त आंदोलन का इक बढिय़ा मौका है अतएव उन्होंने तुर्की के खलीफा का समर्थन कर दिया। यहां भारत में व्यापक आंदोलन शुरू हो गया। यह देश का अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन था, यहां तक कि 1857के सिपाही विद्रोह से भी बड़ा। चौरा चौरी कांड के बाद गांधी जी ने इस आंदोलन को वापस ले लिया। यह मोहम्मद अली जिन्ना को बड़ा नागवार लगा और उन्होंने गांधी जी से मांग की कि मोती लाल नेहरू के प्रतिवेदन में मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी होनी चाहिये। गांधी जी ने उनकी बात नहीं मानी। जिन्ना गुस्से में भारत से चले गये। 6 साल तक वे लंदन में रहे और बैरिस्टरी करते रहे। जब भारत लौटे तो मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी की बात मुसलमानों के लिये अलग देश में बदल गयी। यहीं मांग आगे चल कर देश के विभाजन का आधार बनी। 1923 में जब कमाल अतातुर्क तुर्की की गद्दी पर आये तो उन्होंने धर्म को राजकाज से अलग कर दिया। उन्होंने राजनीति का आधार धर्मनिरपेक्षता को बनाया। उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अल्पसंख्यकों के धर्म की रक्षा करना या सभी धर्मों को समान दृष्टिï से देखना नहीं था। उनकी धर्मनिरपेक्षता मानवतावादी थी। उनका मानना था कि धर्म तुर्की को पिछड़ा हुआ रखेगा। धर्म आधुनिकता का निषेध है। अतएव संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी उन्होंने सेना को सौंपी। अब आठ दशक के बाद वर्ष के बाद एक नयी धार्मिक पार्टी ए के पी(न्याय और विकास पार्टी) ने सत्ता संभाली। यह पार्टी इस्लामी जरूर है पर इस्लामपंथी नहीं है। इसने विकास को अपना लक्ष्य बनाया है। लिहाजा यह वहां की फौज को बड़ा अजीब लग रहा है और वह एक तरह से पुरातनपंथी साबित होती जा रही है। वहां धर्म निरपेक्षता प्रासंगिक नहीं रह गयी है। वहां चुनौती आधुनिकीकरण की है। वह खिलाफत को लागू करने और तुर्की का प्राचीन धार्मिक गौरव वापस लाने जैसी बातें नहीं करती। भारत में लगभग सभी दल अपने को सेकुलर कहते हैं। लेकिन हमारे देश में कुछ दल जिनमें भाजपा भी शामिल है वह उन पुराने दिनों का सपना दिखाने से नहीं चूकती और इसे छोड़ भी दें तो राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को कैसे नजरअंदाज कर दिया जाय। भारत में धर्म निरपेक्षता दकियानूसी का एक तंत्र बन गयी है और इसके कारण स्वरूप कांग्रेस पार्टी भी मुसलमानों के हितों की हिफाजत के बदले उन्हें वोटबैंक के रूप में देखती है। जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस सही मायनों में सेकुलर थे। उन्होंने राजनीति में धर्म के हर स्वरूप का विरोध किया। आज धर्म निरपेक्षता का अर्थ है हिंदू नेताओं द्वारा टोपी पहन कर इफ्तार पार्टियों में शामिल होना और हर तरह के बाबाओं के चरण छुना। वे अपने आचरण में आधुनिकताओं को भूल गये हैं। एक तरफ विज्ञान की बातें करते हैं और दूसरी तरफ मंत्री बनने पर सही समय में शपथ लेने के लिये ग्रहों का योग दिखाते हैं। आज जरूरत है कि राजनीतिक दल हिंदू और मुसलमान के खांचे में वोटरों को न रखें और उन्हें भारतीय समझे। धर्म निरपेक्षता आज के संदर्भ में अप्रासंगिक हो गयी है। सरकार को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिये और विकास की दिशा को उसी तरफ मोड़ें।
Friday, June 24, 2011
धर्म निरपेक्षता अप्रासंगिक हो गयी र्है
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लोकतंत्र को लूटने की कोशिश
हरिराम पाणेय
23.6.2011
लोकपाल विधेयक पर अण्णा हजारे और उनकी टीम की सरकार से नहीं बनी और उन्होंने आंदोलन का ऐलान कर दिया है। बाबा रामदेव ने भी उनका साथ देने की घोषणा की है। जबसे करप्शन के खिलाफ सिविल सोसायटी ने शंख फूंका है और अण्णा बोट क्लब में अनशन पर बैठे हैं तब से सिविल सोसायटी के नेता ऐसा माहौल बना रहे हैं कि लोग अण्णा को गांधी समझने लगें। वे उन पर गांधी के मुखौटे को लगाने में लगे हैं। वे अण्णा के अनशन की गांधी के अनशन से तुलना कर रहे हैं। मजे की बात है कि डॉट कॉम संस्कृति में पले- बढ़े हमारे नौजवानों का एक समूह इस पर यकीन भी करने लगा है। लेकिन यह एक छलावा है और इससे पता चलता है कि 21वीं सदी में जी रही नौजवान पीढ़ी गांधी के बारे में कितना कम जानती है। गांधी जी ने अपने जीवन में 17 बार अनशन किया, जिनमें तीन बार आमरण अनशन था। वे अनशन ब्रिटिश हुकूमत से कुछ करवाने के लिये नहीें थे बल्कि उनका उद्देश्य अहिंसा के समर्थन में भारत को एकबद्ध करना था। केवल 1932 में बापू ने अछूतों के लिये पृथक निर्वाचक मंडल की अंग्रेज सरकार की घोषणा के विरुद्ध आमरण अनशन किया था। कुछ लोग इसे सरकार को झुकाने की गरज से किया गया अनशन करार देते हैं। पर वे गलत हैं क्योंकि उसका अद्देश्य भी छुआछूत को समाज से दूर करना था। इस अनशन के समर्थन में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने लिखा था कि 'भारत की एकता और अखंडता के लिये जीवन न्यौछावर कर देना अच्छा है। Ó वह अनशन भी न सरकार विरोधी था और ना राजनैतिक। गांधी जी ने कभी राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति या किसी किस्म की रियायत के लिये अनशन नहीं किया। उन्होंने नमक पर टैक्स वापस लेने के लिये कभी अनशन नहीं किया बल्कि इसके विरोध में आंदोलन किया। यहां तक कि उन्होंने कभी स्वतंत्रता की मांग को लेकर अनशन नहीं किया बल्कि इसके आंदोलन पर आंदोलन करते रहे। वे इस प्रकार के तरीकों को हिंसा मानते थे बेशक इसका उद्देश्य चाहे कितना ही लोक-हित का हो। वे इन तरीकों को बंदूक की नोक पर लूटना मानते थे। उनका कहना था कि उनके अनशन से लोग महसूस करें कि उन्हें क्या करना है और लोग हिंसा से विमुख हो जाएं। लेकिन अण्णा और रामदेव का अनशन आम लोगों के बीच क्रोध को हवा दे रहा है और इससे हिंसा के भड़कने की आशंका बनी हुई है। बापू के सोचने तथा करने में एवं अपने को आधुनिक युग के महात्मा अथवा ऋषि कहलवाने में सुख पाने वालों के सोचने में यही फर्क है। अण्णा और बाबा के अनशनों और चेतावनियों को अहिंसक बताने वाले आम जन को भ्रमित कर रहे हैं। यहीं आकर सिविल सोसायटी की मंशा पर भी संदेह होने लगता है। इस प्रकार के अनशनों का स्वरूप परम हिंसक होता है और यह स्वतंत्र भारत के उद्देश्यों के प्रतिगामी है। हो सकता है कि इनका उद्देश्य जनहित में हो, बहुत प्रशंसनीय हो तब भी इसका हमारे संविधान की व्यवस्था पर दुष्प्रभाव होगा। चूंकि हमारा संविधान समानता की बुनियाद पर अवस्थित है और इसकी मूल भावना आपसी सौहार्द है। अलबत्ता यह सच है कि समानता की इस सांविधानिक व्यवस्था का बहुत ज्यादा सामाजिक लाभ नहीं हासिल हुआ है और समाज में असमानता कायम है। लेकिन समानता एक ऐसा आदर्श है जो सभी प्रकार के मुकाबलों का शस्त्र बन सकता है। ऐसे में कोई भी आंदोलन जो संसद के अधिकारों पर आघात करता है वह दरअसल देश की समग्र क्रांतियों के लाभ और लोकतंत्र को लूटने की कोशिश है। यहां इरादा अण्णा हजारे और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सम्बंधों की निष्पत्ति पर न तो, बहस करना है न ही रामदेव के धंधों का विश्लेषण करना है और ना सिविल सोसायटी के अगवों को कम करने की कोशिश है यहां तो यह बताने का प्रयास है कि कोई भी हिंसक आंदोलन संसद की सत्ता और उसके सामथ्र्य का अवमूल्यन करता है चाहे उसका लक्ष्य संसद को मजबूत करना ही क्यों ना हो। इसलिये देश वासियों को ऐसे छद्मों से सतर्क रहने की जरूरत है।
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राजनीतिक तरीके से ही दूर होगा भ्रष्टïाचार
हरिराम पाणेय
22.6.2011
मजबूत लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार को मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम होने के बाद अब अण्णा हजारे फिर से आंदोलन की राह पर हैं। उन्होंने एलान किया है कि इस बार का उनका आंदोलन सरकार को सबक सिखाने के लिए होगा। बाबा रामदेव ने भी उनके इस प्रस्तावित आंदोलन को पूरा-पूरा समर्थन घोषित कर दिया है। अण्णा हजारे भड़के हुए हैं। कहते हैं कि पाकिस्तान से लड़े अब देश के दुश्मनों से लडेंग़े। वे और उनके साथी भ्रष्टïाचार मिटाने के लिये कमर कस कर निकल गये हैं। कभी अनशन कर सरकार को झुकाने पर आमादा हैैं तो कभी बिल के मसौदे को लेकर परेशान हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इससे भ्रष्टïाचार खत्म होगा?
सिविल सोसाइटी व विभिन्न संस्थाओं से जुड़े लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आगे आयें। वे इसके खिलाफ अभियान चलाएं व जनता को जागरूक करें। वे सरकार पर तेजी से काम करने के लिए दबाव बनाएं। यह सब अच्छी बात है और हमारे देश के लोकतंत्र के मजबूत होते जाने के संकेत हैं। इनसे देश की राजनैतिक प्रक्रिया और भी स्वस्थ होती है। पर भ्रष्टाचार के जिस राक्षस का हम सामना कर रहे हैं, उसका वध तो अंतत: राजनैतिक प्रक्रिया के तहत होना है।
हमें इस मौके को बर्बाद नहीं करना चाहिए, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई सही तरीके से लड़ी जानी चाहिए। आज कुछ लोग अनशन और भूख हड़ताल को इसके खिलाफ लड़ाई का हथियार बना रहे हैं। यह तरीका सही नहीं है, क्योंकि अनशन में मुद्दा पीछे छूट जाता है और अनशन करने वाले आदमी पर सारा ध्यान केंद्रित हो जाता है। मुद्दे को पीछे छोड़कर हम कुछ हासिल नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ने अनशन का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था, लेकिन महात्मा गांधी का मामला अलग था और तब देश की हालत भी भिन्न थी।
आजादी के बाद किसी बड़े नेता ने कभी अनशन का सहारा नहीं लिया। अनशन के अलावा आंदोलन के अन्य तरीके हैं, जिनका इस्तेमाल करके सरकार और समाज पर दबाव बनाया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए हमें इसके स्वरूप को समझना पड़ेगा। भ्रष्टïाचार सत्ता की ही बुराई नहीं है, बल्कि एक सामाजिक बुराई भी है। यह हमारी सामाजिक व्यवस्था से निकलता है, इसलिए हमें उसके स्तर पर भी इसे मिटाना होगा।
आजादी के बाद हमारे देश में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। यह इतना व्यापक हो गया है कि इसका होना नियम है और न होना अपवाद, लेकिन पिछले कुछ महीनों से भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए हैं और उनमें जो बड़ी राशि शामिल है, उसने देश के लोगों के दिल और दिमाग को झकझोर दिया है। भ्रष्टाचार के इन मामलों पर सरकार ने जो प्रतिक्रिया दिखाई, वह भी लोगों को परेशान करने वाली रही। प्रधानमंत्री की छवि एक ईमानदार व्यक्ति की है और माना जाता है कि अपनी ईमानदारी के कारण ही वह इस पद पर पहुंचे हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में बनी सरकार में इतना भ्रष्टाचार हो तो, लोगों के होश उड़ेंगे ही।
भ्रष्टाचार का अंत राजनैतिक प्रक्रिया के इस्तेमाल से ही होगा। यह सोचना गलत है कि राजनैतिक लोगों को अलग-थलग करके इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बना है, वह राजनैतिक पार्टियों द्वारा पैदा किए गए दबाव की भी देन है। यह कहना गलत है कि बाबा रामदेव और अण्णा हजारे जैसे गैर राजनैतिक लोगों के कारण ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग उठ खड़े हुए हैं। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन दोनों के अनशन करने के पहले ही अनेक प्रभावशाली लोग 2 जी स्कैम में जेल में पहुंच चुके हैं। राजनैतिक दबाव के तहत मुकदमे दर्ज हुए। अदालतों का भी उसमें योगदान रहा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को लगाई गई लताड़ की हम अनदेखी नहीं कर सकते।
पिछले साल देश की सभी विपक्षी पार्टियों ने करप्शन के सवाल को लेकर सफल भारत बंद करवाया था। आईपीएल घोटाले में राजनैतिक दलों के दबाव के कारण शशि थरूर को मंत्रिपरिषद से बाहर जाना पड़ा था। 2 जी स्पेक्ट्रम स्कैम में जेपीसी की मांग करते हुए पूरे विपक्ष ने संसद के शरद सत्र को ही नहीं चलने दिया था। उसके कारण सरकार दबाव में आयी थी और जेपीसी का गठन भी हो गया।
इसमें मीडिया की भी जबर्दस्त भूमिका रही। उसने भ्रष्टाचार के मामले को अच्छा कवरेज दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने में संसद की सर्वोपरि भूमिका की कोई भी अनदेखी नहीं कर सकता। संसदीय और लोकतांत्रिक दबाव सरकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठाने के लिए बाध्य कर देंगे। हमें संसद पर भरोसा करना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ जो सवाल खड़े हो रहे हैं, उनका हल अंतत: संसद से ही निकलना है।
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बदलती सामाजिक व्यवस्था के संकेत हैं ये कुकर्म
हरिराम पाणेय
21.6.2011
भारत एक ऐसा देश है जहां नारी की पूजा करने का प्रावधान है। किशोरी पूजन से लेकर मां तक नारी के कई पूजनीय स्वरूप हमारे वांगमयों में वर्णित हैं। यही नहीं जिस देश की राष्टï्रपति और तीनों सेना की सर्वोच्च कमांडर नारी हैं उसी देश के एक सबसे उन्नत कहे जाने वाले राज्य -उत्तर प्रदेश जो राम और कृष्ण दोनों की जन्म स्थली है- में पिछले तीन दिनों में एक किशोरी के साथ बलात्कार कर उसकी आंखें फोड़ डाली गयीं, दूसरी लड़की का अपहरण कर उससे सामूहिक बलात्कार किया गया, तीसरी लड़की का बलात्कार कर हत्या कर दी गयी और लाश को फेंक दिया गया जो तीन दिनों के बाद बरामद हुई, चौथी महिला को उसके घर में बलात्कार कर जला दिया गया। ये घटनाएं उस प्रदेश में हो रहीं हैं जिसकी मुख्यमंत्री महिला हैं। दुखद बात तो यह है कि इन अपराधों से निपटने के बजाय सरकार इसे सियासी रंग देकर स्थिति का रुख बदल देना चाहती है।
वैसे यह स्थिति केवल उत्तर प्रदेश की नहीं है। इन दिनों लगभग हर रोज अखबारों में तथा टीवी चैनलों में खबर होती है रेप की। वह अपराध करने वाले कोई भयंकर अपराधी नहीं किशोर लड़के पाये जाते हैं। यह अचानक सामाजिक परिवर्तन हमारे देश की बिगड़ती सामाजिक स्थिति का संकेत है। राष्टï्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के गत वर्ष के आकड़ों के अनुसार पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में दर्ज होने वाले बलात्कार के मामलों में से एक चौथाई दिल्ली में घटित होते हैं। रिपोर्ट के अनुसार आलोच्य वर्ष में महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मामले 4.1 फीसदी बढ़े। महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मामलों में बलात्कार, अपहरण, दहेज सम्बंधित हत्याएं, प्रताडऩा, छेड़छाड़, यौन उत्पीडऩ, मानव तस्करी और अभद्र व्यवहार शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश भर में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। देश में हर तीन मिनट पर एक महिला अपराध की शिकार हो रही है। हर 29 मिनट में किसी न किसी महिला के साथ बलात्कार हो रहा है। महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार के मामले में भारत दुनिया के तीन देशों में शामिल है। सबसे अधिक बलात्कार के मामले अमरीका में दर्ज किए गए हैं, जहां ऐसे 93,934 मामले सामने आए हैं। इसके बाद दक्षिण अफ्रीका (54,926) और भारत (18,359) का स्थान आता है।
पिछले दिनों जिस तेजी से समाज में बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं वो न सिर्फ एक सभ्य समाज के नाम पर कलंक की तरह हैं बल्कि खुद को स्थापित करते महिला जगत के लिए एक गंभीर खतरा है। दुख की बात ये है कि इस अपराध का संबंध न तो अशिक्षा से है न मजबूरी से। एक और आश्चर्य की बात ये है कि ये अपराध जितना अधिक विकासशील और पिछड़े देशों में हो रहा है लगभग वही प्रतिशत विकसित और आधुनिक कहलाने वाले देशों में भी है, किंतु भारत के महानगरीय जीवन विशेषकर दिल्ली -मुंबई जैसे शहरों में तो अब ये एक नियति सी बन चुकी है। भारतीय कानून संहिता में बलात्कार शब्द की बहुत विस्तृत व्याख्या की गई है। समाजशास्त्री मानते हैं कि इस घृणित अपराध को कम करने के लिए सजा से उसके ऊपर नियंत्रण पाने के साथ ही जरूरी है कि सरकार इसके कारणों को समझते हुए इसे कम करने के प्रयासों की ओर ध्यान दे। महिलाओं को आत्मसुरक्षा का प्रशिक्षण, छोटे अवयस्क बच्चों में यौनिक सजगता एवं सचेतना और बलात्कारियों के मनोविज्ञान का अध्ययन करके उन कारणों की तह तक पहुंच कर उसे दूर करने जैसे उपायों पर काम करना चाहिए। अब समय आ गया है कि सरकार , समाज , पुलिस, कानून, अदालत सब संगठित होकर इस अपराध के खिलाफ एक रणनीति बनाएं और इसे खत्म करने का प्रयास करें।
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बेअसर क्यों है भ्रष्टïाचारविरोधी यह आंदोलन
हरिराम पाणेय
20.6.2011
इन दिनों देश में बहुत बड़ा आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन भ्रष्टïाचार के खिलाफ है और 1974 के जे. पी. आंदोलन के बाद देश में सबसे बड़ा आंदोलन है। यों तो संविधान ने सरकार को लोकहित में शासन चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है, पर इसे मानता कौन है? किस पार्टी में दागी नेता नहीं भरे पड़े हैं? फिर वे किस मुंह से भ्रष्टाचार का मुद्दा उठायेंगे? केंद्र और राज्यों में विपक्षी पार्टियां जरूर सत्ता पक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही हैं, पर उनकी आवाज में कोई दम नहीं होता। चोर-चोर मौसेरे भाई! भूतपूर्व केंद्रीय सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा कहते हैं कि 30 प्रतिशत लोग पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हैं और 50 प्रतिशत लोग भ्रष्ट होने के कगार पर हैं। मात्र 20 प्रतिशत लोग ही पक्के तौर पर ईमानदार हैं। 30 प्रतिशत लोग कम नहीं होते। इसका अर्थ होता है कि हर तीसरा व्यक्ति पक्के तौर पर भ्रष्टï। अब सरकार कुछ कर नहीं पायी इसीलिए इस बार आंदोलन की कमान गैर राजनीतिकों के हाथों में आ गयी है। अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन के तरीके अलग हो सकते हैं, आंदोलन का प्रभाव और परिणाम भी अलग हो सकता है, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी मुहिम ने पूरे देश को उद्वेलित कर दिया है। जनता-जनार्दन को लग रहा है कि इस बार बात दूर तक जायेगी।
दरअसल, अभी तक प्रौढ़ या बुजुर्ग ही भ्रष्टाचार को कोसते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इन आंदोलनों ने युवा मनों को भी छुआ है। उन्हें भी समझ में आ गया है कि यह बात उनके कैरियर व भविष्य से सीधे जुड़ी है। अगर भ्रष्टाचार नहीं होगा, या कम होगा, तो सीधे रास्ते से उन्हें कैरियर और भविष्य की सीढिय़ां नजर आयेंगी। उनकी मंजिल आसान होगी। सोने पे सुहागा ये कि इससे समाज और देश भी खुशहाल होगा। अंतत: इन सबका असर उनके जीवन-स्तर और जीवन-शैली पर पड़ेगा। इसलिए युवाओं का प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन इस आंदोलन को है। वे बदलते भारत की चाह कर रहे हैं और भारत के बदलने का स्वप्न देख रहे हैं।
यहां तक सब ठीक है... पर एक गड़बड़ है! तमाम कोशिशों, इच्छाओं और सपनों के बावजूद भारत बदल नहीं रहा, लेकिन इस तरह के भ्रष्टïाचार को संरक्षण कौन देता है? राजनीति या नौकरशाही। अब लोग देखते हैं कि तथाकथित बड़े- बड़े सम्मानित लोग भ्रष्टïाचार में लिप्त हैं और उनकी संपत्ति, धन- वैभव दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है तो लगता है सभी को कि यही रास्ता है सुख सुविधा से जीने का। प्रत्यूष सिन्हा ठीक कहते हैं कि समाज में अब भ्रष्टïाचार को निम्न दृष्टि से नहीं देखा जाता। भ्रष्टïाचार के मामले में पकड़े जाने पर भी सामाजिक प्रतिष्ठाï कम नहीं होती।
इसकी वजह भी साफ है। नेताओं और अफसरों को लग रहा है कि यह आंदोलन पानी का बुलबुला है, जो समय के साथ फूट जायेगा। आखिर वे घाट-घाट का पानी पिये हुए हैं। जानते हैं कि एक बार जनता का जोश ठंडा होने पर सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा। इसीलिए वे बेखौफ पहले की तरह भ्रष्टाचार कर रहे हैं। किसी का डर नहीं है उन्हें। संदेश साफ है। सिस्टम की जड़ों तक को भ्रष्टाचार ने इस कदर जकड़ लिया है कि अण्णा या रामदेव या फिर पूरे देश के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से भी वह बेअसर है। क्या भ्रष्टाचार की जड़ों को उखाडऩे वाला कोई महा-आंदोलन होगा? अगर हुआ, तो क्या वह सफल होगा?
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संज्ञा से विशेषण बनता बंगाल
हरिराम पाणेय
19.6.2011
पश्चिम बंगाल इन दिनों अजीब विरोधाभासों का स्थान बना हुआ है। एक ही साथ एक ही स्थान पर कहीं सकारात्मक आशाओं का स्रोत है और वहीं वह नकारात्मक निषेध का सीमांत। एक तरफ सरकार कहती है कि उद्योगपति अपने उद्योगों के लिये खुद जमीन खरीदें तो दूसरी ओर सरकार देश भर के उद्योगपतियों को बुला कर बातें कर रही है। अब सिंगुर को ही लें। यह राज्य का एक छोटा सा स्थान नहीं है जहां कभी टाटा ने छोटी कार बनाने का कारखाना लगाया था जो लगा नहीं। लेकिन वह आंदोलन की भूमि बन गयी तथा उससे नयी सियासत का राज्य की सत्ता में प्रवेश हुआ, उसी के साथ वह वामपंथी राजनीति के अवसान की पहचान बन गया। ममता बनर्जी इसी रास्ते सत्ता में आयीं। हालांकि अन्य राजनीतिज्ञों की तरह सत्ता हासिल होने के बाद उधर देखने की जरूरत नहीं थी। लेकिन दल और देश को देखते हुए वह ऐसा नहीं कर सकती हैं। उन्होंनें अपने चुनाव प्रचार के दौरान राज्य की जनता से वायदा किया था कि वह सिंगुर में उन लोगों की जमीन वापस कर देंगी जोश अपनी देने के इच्छुक नहीं थे। सरकार ने कथित तौर पर वहां एक तरफ से सभी किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर लिया था- उनमें वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने अपनी- अपनी जमीन देने से इंकार किया था। हालांकि इसके लिये काफी आंदोलन हुआ, खून बहा, पुलिस का बल प्रयोग हुआ और राजनीतिक नाटक हुए, जिसमें ममता जी का अनशन और राज्यपाल से कई पक्ष की कई दौर की बातें हुईं , पर बात नहीं बनी। सरकार और पीडि़तों के पक्षकार अपनी- अपनी जगह पर अड़े रहे। इसके बाद ममता जी ने इसे ही चुनाव का मुद्दा बनाया। वे चुनाव जीत गयीं। हालांकि इस विजय में सिंगुर की अकेली भूमिका नहीं थी लेकिन सिंगुर भी एक था। मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता जी ने अपना वायदा निभाया और विधानसभा में एक विधेयक पारित कर उन्होंने सिंगुर की वह सारी जमीन वापस ले ली जिसे सरकार ने टाटा को देने के लिये अधिगृहीत कर लिया था, इसमें वे लोग भी शामिल थे जो जमीन देना नहीं चाहते थे। ममता जी का निर्णय कई मामलों में बड़ा ही महत्वपूर्ण है और इतिहास में दर्ज होने के काबिल है। इसमें प्रमुख है कि कोई भी नेता या यों कहें कि बहुत कम नेता चुनाव प्रचार के दौरान किये गये वायदों को पूरा करते हैं। अधिकांश तो उन वायदों को याद ही नहीं करते। लेकिन सिंगुर तो ममता जी के लिये एक तीर्थ बन गया है। विजयी होने के बाद और मुख्यमंत्री बनने के बाद वे अपना आभार प्रगट करने के लिये सिंगुर गयी थीं। ममता जी का यह अकेला कदम ही बेहद सराहनीय है। इसके बाद उनका दूसरा उल्लेखनीय कार्य है जमीन को वापस देने का फैसला। भारत के इतिहास में इस कदम की नजीर नहीं है। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि सरकार का यह निर्णय समस्याओं से घिरा था। पहले योजना थी एक अध्यादेश लाने की। लेकिन यह तकनीकी कारणों से संभव नहीं हो सका। इसके बाद आनन- फानन में विधेयक विधान सभा में पेश करने की योजना बनी और उसे क्रियान्वित कर दिया गया। पूरी प्रक्रिया में जल्दबाजी बहुत दिखी। चुनावी वायदे पूरे करने की कटिबद्धता और उन्हें पूरे करने के संकल्प सब अत्यंत सराहनीय कार्य हैं पर सरकार को जल्दीबाजी से बचना चाहिये, क्योंकि इसमें जहां गलतियों की काफी गुंजायश रहती है वहीं अपमान का जोखिम भी रहता है। विपक्ष के पास शोर मचाने और राजनीतिक लाभ लेने का एक हथकंडा आ जाता है। सरकार ने यदि अधिग्रहण खत्म करने के पहले इस विषय पर टाटा से बातचीत कर ली होती तो बेहतर होता। ऐसा करने से कम से कम निर्णय पर उंगली उठाने का मौका नहीं मिलता किसी को भी। इन सबके बाद भी एक महत्वपूर्ण तथ्य अभी बाकी है। सिंगुर राज्य की राजनीति में इतना प्रयुक्त हुआ कि यह एक बिम्ब बन गया। यदि यह पश्चिम बंगाल में जमीन और राजनीतिक सत्ता का बिम्ब है तो यह उद्योग और राजनीतिक दुर्घटना का भी प्रतीक है। पश्चिम बंगाल को यदि विकसित होना है तो यहां उद्योग और निवेश की जरूरत है। इसी उद्देश्य से मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता जी ने देश भर के उद्योगपतियों को शनिवार को कोलकाता बुलाया और राज्य में उद्योग लगाने का न्यौता दिया। उद्योगपतियों की समस्याएं सुनने के बाद उन्होंने एक कोर कमेटी बनाने की घोषणा की जिसमें उद्योग-व्यवसाय के प्रतिनिधियों के अलावा सरकारी अफसर और दो मंत्री रहेंगे और ये उद्योग लगाने में आने वाली समस्याओं को दूर करेंगे। इस बैठक में देश भर से डेढ़ सौ से ज्यादा उद्योगपति शामिल हुए। इसमें टाटा और अंबानी जैसे बड़े उद्योगपति नहीं आए, सिर्फ अपने प्रतिनिधि भेजे। ममता जी ने राज्य के उद्योग और वित्त मंत्री के नेतृत्व में एक कोर कमिटी के गठन की घोषणा की। इस कमिटी में 25 सदस्य होंगे जिनमें चेंबर ऑफ कॉमर्स के प्रतिनिधि और विभिन्न विभागों के अधिकारी होंगे। कहा गया है कि यह कमिटी उद्योग लगाने के रास्ते में आने वाली सारी दिक्कतों को दूर करेगी।
अभी पिछले हफ्ते ही ममता जी की सरकार ने सिंगुर में टाटा मोटर्स की लीज खत्म करने का कानून विधानसभा से पारित किया है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि उद्योगपति उसी सरकार पर किस तरह से भरोसा करते हैं। फिलहाल हर निवेशक की नजर ममता जी के फैसले पर टिकी है। कोई भी गलत फैसला उन्हें यहां आने से रोक देगा। पूंजी लगाने के लिये जो भरोसा चाहिये वह जमीन से जुड़ी भावनाओं से कम नहीं है।
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कहीं 'नत्थाÓ की गत ना हो अण्णा की
हरिराम पाणेय
17.6.2011
कई बार ज्यादा बक- बक करने वाले लोफर किस्म के राजनीतिज्ञ भी अनजाने ही सही बात बोल जाते हैं। मसलन अण्णा हजारे का मखौल उड़ाते हुये कांग्रेस के 'बयान पुरूषÓ दिग्विजय सिंह ने कहा कि अनशन करते- करते अण्णा हजारे की हालत कहीं 'नत्थाÓ की ना हो जाये। 'नत्थाÓ एक हिंदी फिल्म का अनशनकारी चरित्र है। अण्णा भ्रष्टïाचार मिटाने की बात करते हैं और उनके साथ कुछ नामी-गिरामी पांच अक्लमंद लोग (बाइबिल के फाइव वाइज मैन की तरह ) हैं। अन्ना को अच्छी तरह मालूम है कि अनशन पर बैठकर या फिर आंदोलन करके भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने वाला है। भ्रष्टाचार विरोधी दूसरे संगठन वाले ये सब गैरसियासी तरीके से भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं। ये बार बार कह रहे हैं कि उनका आंदोलन किसी नेता या पार्टी के खिलाफ नहीं है। यानी यह सब सियासत से दूर रहकर ही भ्रष्टाचार का नाश करने और व्यवस्था परिवर्तन करने की सोच रहे हैं।
लेकिन, इससे कुछ होने वाला नहीं है। क्योंकि भ्रष्टाचार हो या व्यवस्था की खामियां ये सब राजनीति की वजह से ही हैं। गंदी राजनीति की वजह से ही आम आदमी परेशान रहता है। गंदी राजनीति ही भ्रष्टाचार की जड़ है। तो फिर राजनीति से दूर रहकर यह सब कैसे ठीक किया जा सकता है। किसी भी दिक्कत को जब तक जड़ से खत्म नहीं किया जाएगा वह फिर उभरती रहेगी और विकराल रूप लेती रहेगी। जो दिक्कतें भ्रष्ट और गंदी राजनीति की देन हैं उन्हें राजनीति में सुधार करके ही ठीक किया जा सकता है। राजनीति ही सारी दिक्कतों का हल है।
अब अण्णा के आंदोलन को ही देख लें। पूरा देश आंदोलन के समर्थन में है। सब चाहते हैं कि सशक्त लोकपाल बिल बने। आंदोलन को देखकर सरकार भी जॉइंट ड्राफ्टिंग कमिटी बनाने को मान गयी। लेकिन हुआ क्या....गैरसियासी लोगों पर फिर से सियासत भारी पड़ी। अब दो ड्राफ्ट कैबिनेट के पास भेजने की बात हो रही है। अण्णा कह रहे हैं कि सरकार ने उनके साथ धोखा किया। अब अगर दो ड्राफ्ट कैबिनेट में जाएंगे यानी पॉलिटिकल लोगों के पास तो वह तो फिर अपने फायदे वाले ड्राफ्ट को ही चुनेंगे। तो क्या फायदा हुआ आंदोलन से। अण्णा 16 अगस्त से फिर अनशन पर बैठ भी जाएं और फिर पूरा देश उनका साथ दे भी दे तो क्या होगा...यही कहानी दोहराई जाएगी। जब तक सियासत और सत्ता भ्रष्ट लोगों के हाथ में है तब तक यही होना है।
अण्णा या अण्णा जैसे लोग आंदोलन करके अपनी कुछ बातें मनवा तो सकते हैं लेकिन भ्रष्ट नेताओं को सुधार नहीं सकते। वह नहीं सुधरेंगे तो सियासत नहीं सुधरेगी और सियासत नहीं सुधरेगी तो व्यवस्था नहीं सुधरेगी। अगर सच में अण्णा और हम सबको व्यवस्था बदलनी है तो या तो जनता आंदोलन कर तख्ता पलट कर दे। यह क्रांति से ही हो सकता है। अथवा सियासत से भ्रष्ट लोगों के नामोनिशान ही मिटा दे। अगर सियासत में अच्छे लोग आएंगे तो उन्हें सुधारने की जरूरत नहीं पड़ेगी और न ही आंदोलन की जरूरत पड़ेगी। इसलिए अगर सच में अच्छी व्यवस्था चाहिए तो राजनीति से घबराने की जरूरत नहीं है बल्कि राजनीति में घुसकर उसे साफ करने की जरूरत है। जरूरत यह है कि भ्रष्टï लोगों को राजनीति से बेदखल किया जाए और अच्छे लोग उन जगहों पर काबिज हों। सिर्फ वोट देने से कुछ नहीं होगा क्योंकि वोट लेने के लिए जो सामने होंगे वह भी तो भ्रष्टï होंगे। जब जनता साथ देगी तो व्यवस्था में परिवर्तन होकर रहेगा और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलग से लड़ाई लडऩे की जरूरत नहीं होगी।
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Thursday, June 16, 2011
सरकार महंगाई रोके वरना विकास का बंटाधार हो जायेगा
हरिराम पाण्डेय
16.6.2011
एक बार फिर भयानक महंगाई मध्यवर्गीय घरों पर दस्तक दे रही है। हालांकि यह कहना लोगों को आतंकित करना होगा कि दुनिया जब आर्थिक दुरवस्था से उबर रही है तो हमारा देश आर्थिक मंदी का शिकार होने जा रहा है। आर्थिक स्थिति के हालात के जो संकेत मिल रहे हैं उससे तो साफ जाहिर होता है कि यदि महंगाई को नहीं रोका गया और ब्याज की दरें नहीं नियंत्रित की गयीं तो आर्थिक विकास जो हो चुका है वह तो व्यर्थ हो ही जायेगा साथ ही उस विकास का सपना भी चूर- चूर हो जायेगा। गत वर्ष जनवरी से मार्च के बीच सकल घरेलू उत्पाद के विकास की दर 9.4 प्रतिशत थी जो इस साल उसी अवधि में घट कर 7.8 प्रतिशत हो गयी। अब सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले आर्थिक विशेषज्ञ कह सकते हैं कि विकास की गिरती हुई दर वित्त मंत्रालय की सोची स्कीम के कारण है। वित्त मंत्रालय ने 'ओवर हीटेड इकॉनोमीÓ की संभावना से ऐसा किया है जिससे दूरगामी दुष्परिणाम से बचा जा सके। दलील चाहे जो भी हो लेकिन आम आदमी के लिये यह सही नहीं है। लम्बी अवधि तक आर्थिक विकास को अवरुद्ध किया जाना दरअसल समाज की वित्तीय स्थिति पर एक तरह से ऐसा पेंडुलम इफ्ेक्ट पैदा करता है जिसके एक सिरे पर विकास का प्रकाश है और दूसरे पर गरीबी का डरावना दु:स्वप्न। अतएव भारतीय रिजर्व बैंक को ब्याज दरें बढ़ाने से पहले गंभीरता से सोचना चाहिये। चूंकि मुद्रास्फीति और मौद्रिक घाटा आपस में सम्बद्ध हैं इसलिये सरकार यदि मुद्रास्फीति को बढऩे देती है तो बेशक मौद्रिक घाटा भी बढ़ेगा और इसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था की हालत जर्जर हो जायेगी और राजस्व को भी हानि पहुंचेगी। सरकारी रणनीतिकार तो यह कहेंगे कि ब्याज दरें बढ़ाने की बात में दम है क्योंकि इससे उनलोगों पर लगाम लगेगी जो असाधु हैं, लेकिन इस नीति से अतीत में भी बहुत क्षेत्रों को भारी घाटा लग चुका है। इसका नतीजा होगा कि जो क्षेत्र पिछड़ेंगे वे दूसरे को भी नीचे घसीट लेंगे। पिछले वर्ष लगभग नौ प्रतिशत विकास दर रही जो चालू वित्त वर्ष में 7.5 पतिशत होने की संभावना है। वैसे 7.5 प्रतिशत बहुत कम नहीं है, खास कर भारतीय अर्थव्यवस्था को देखते हुए यह ठीक- ठाक है क्योंकि विश्व के कई देशों की आर्थिक व्यवस्था लडख़ड़ा रही है। लेकिन हम उससे अपनी तुलना क्यों करें, हमारा मुकाबला तो चीन जैसी सशक्त अर्थ व्यवस्था से है। आर्थिक विकास और सहयोग संगठन ने भी लगातार कायम रहने वाली मुद्रास्फीति के खिलाफ चेताया है और निजी क्षेत्र के विकास में सब्सिडी बंद करने का सुझाव दिया है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने भारत के अपने ताजा सर्वे में कहा है कि तेल का आयात करने वाले देशों में भारत का स्थान सर्वोपरि है और इसे इस सब्सिडी को इस तरह घटाना चाहिये कि उससे गरीब ज्यादा प्रभावित न हों। यह एक ऐसा निर्णय है जिसमें कई जोखिम हैं और इसके लिये व्यापक राजनीतिक सहमति की जरूरत है। ऐसा आज नहीं तो कल होना ही है क्योंकि तेलों की कीमतों में सब्सिडी का असर उन लोगों तक बमुश्किल पहुंचता है जिनके लिये वह बनाया गया है। इसका अधिकांश भाग तो दलाल खा जाते हैं। आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन के उस सर्वे में सबसे चौंकाने वाले सुझाव हैं जिसमें कहा गया है कि शासन में पारदर्शिता बढ़ानी चाहिये और एंटी करप्शन एजेंसियों को ज्यादा चुस्त बनाया जाना चाहिये। फिलहाल दोनों मसले सबसे ज्यादा लोगों को आकर्षित कर रहे हैं लेकिन सरकार का रवैया कुछ ऐसा है मानो 'आल इज वेल।Ó
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Wednesday, June 15, 2011
सिविल सोसायटी को हर्गिज तरजीह ना दे सरकार
हरिराम पाण्डेय
15जून 2011
केजरीवाल -भूषण एंड कम्पनी ने एन दिनों इक नया शिगूफा छोड़ा है। उनकी कोशिश है कि संसद -विधानसभाओं को लोगों की नजरों में व्यर्थ साबित कर दिया जाय और खुद को सबसे बड़ा बना लिया जाय ताकि सरकार की हस्ती ही खत्म हो जाय। अभी हाल में प्रशांत भूषण और उनके पांच साथियों ने एक पत्र लिख कर कहा है कि हमारी व्यवस्था इतनी नकारा है कि कौन प्रधानमंत्री बन जाय पता नहीं चलता। अगर मधु कोड़ा या ए. राजा जैसा कोई प्रधानमंत्री बन जाये तो क्या किया जा सकता है? यह एक फालतू बहस है। अब इन महानुभावों को कौन बताये कि संसद देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है। इसका गठन देश भर के वयस्क मतदाताओं के वोट से निर्वाचित सदस्यों से किया जाता है। यानी ऐसे लोगों का समूह जिस पर देश ने भरोसा जताया है। अब इस संस्था को किसी एक आदमी या गुट की इच्छाओं से बांधा नहीं जा सकता है। इस गुट में मामूली पढ़े-लिखे लोग, शिक्षक से लेकर ग्रामीण स्तर के समाज सुधारक, जो खुद को भविष्य के गांधी के रूप में देख रहे हैं, तक शामिल हैं। उनके साथ हैं चंद वकील और कुछ पढ़े लिखे लोगों की एक ऐसी टोली जिन्हें पूरी स्थिति की जानकारी ही नहीं है। नारों और अनशनों के बीच जो बताना सबसे जरूरी है वह है कि इनमें कोई भी ऐसा आदमी नहीं है जो आम जनता के प्रति जवाबदेह हो। यह कथित सिविल सोसायटी जो सबसे बड़ी बात कह रही है वह है भ्रष्टïाचार की, खास कर ऊंचे पदों पर भ्रष्टïाचार की। । यहां यह जिक्र करना उचित होगा कि भ्रष्टïाचार के मामले में कम से कम एक कैबिनेट मंत्री, जो अत्यंत ताकतवर राजनीतिक नेता की बेटी हैं और कई नामी गिरामी कम्पनियों के टॉप मैनेजर इन दिनों जेल में हैं। यानी मौजूदा एजेंसियों को ठीक से काम करने दिया जाय तो वे किसी भी संदेहास्पद व्यक्ति पर कार्रवाई कर सकती हैं। सबसे बड़ी बात है कि केजरीवाल - भूषण एंड कम्पनी यह देखने के बजाय कि मौजूदा व्यवस्थाओं को कैसे ताकतवर बनाया जाय वे लोग उस मध्यवर्गीय लोगों की उस मध्ययुगीन भावनाओं को हवा देने में लगे हैं जिसमें यह माना जाता है कि नेता का उद्धव जनता के मध्य से उसी तरह से होता है जैसे हमलोग आये हैं। यह बेहद खतरनाक स्थिति और प्रवृत्ति है क्योंकि यह समाजसेवा के नाम पर लोकतंत्र के तंतुओं को समाप्त करने की गहरी साजिश है। इस साजिश को समझने के लिये जरूरी है कि रामदेव - हजारे - केजरीवाल- भूषण फिनोमिना को समझना जरूरी है। दरअसल जिसे सिविल सोसायटी का नाम दिया गया है वह एक एनजीओ संस्कृति का हिस्सा है। एनजीओ संस्कृति नियोजित काँरपोरेट पूंजी की संस्कृति है। स्वत:स्फूर्त संस्कृति नहीं है। देश में सैकड़ों एनजीओ हैं जिन्हें विदेशों से हजारों करोड़ रुपये मिलते हैं। एनजीओ समुदाय में काम करने वाले लोगों की अपनी राजनीति है, विचारधारा है, वर्गीय भूमिका और एक खास मकसद भी है। वे परंपरागत दलीय राजनीति के विकल्प के रूप में काम करते हैं। यह एक बहुत बड़ी साजिश की भूमिका है भारत में लोकतंत्र को खत्मकर या पंगु बनाकर देश को किसी निहित स्वार्थी देश या संस्था के हवाले कर देने की। इसलिए बेहद जरूरी है कि मीडिया उन्माद, अण्णा की संकीर्ण वैचारिक प्रकृति और भ्रष्टाचार इन तीनों के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों के विचारधारात्मक स्वरूप का विश्लेषण किया जाय। दरअसल वे छद्म संदेश दे रहे हैं कि सरकार, संसद और विधिक संस्थान कोई सही नहीं हैं। दरअसल यह जो कथित सिविल सोसायटी है उसका मकसद लोकतांत्रिक संस्थाओं, नियमों और परंपराओं की अवहेलना कर उन्हें व्यर्थ बनाना है। ये सत्ता सर्किल में पैदा हुए संकीर्णतावाद का सामाजिक स्वरूप हैं। इनका लक्ष्य है राजनीतिक दलों को बेमानी करार देना। यह साजिश का पहला भाग है। दूसरा भाग बेहद गोपनीय है और इस पर आने वाले समय में रोशनी पड़ सकती है। यह तो तय है कि यह सिविल सोसायटी संकीर्णतावादी विचारों को हवा दे रही है। इसका तेजी से मध्यवर्ग में प्रचार- प्रसार हो रहा है। ये सत्ता के विकल्प का दावा पेश कर रहे हैं। तुरंत समाधान की मांग कर रहे हैं। इसलिये जरूरी है कि सरकार सिविल सोसायटी के चक्कर में ना पड़े और भ्रष्टïाचार के विरुद्ध जंग छेड़ दे। इसमें सरकार का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन यदि उसने सिविल सोसायटी या या अण्णा या भूषण या केजरीवाल जैसे लोगों को तरजीह दी तो देश का बहुत कुछ बिगड़ जायेगा।
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करात का कानून
हरिराम पाण्डेय
14 जून 2011
किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के चंद कायदे- कानून होते हैं जो सार्वदैशिक या कहें कि वैश्विक होते हैं। हालांकि वे कोई लिखित संविधान के अंग नहीं होते पर रिवाजों में उसे अपनाया जाता है। मसलन दुनिया में हर जगह पार्टी के काम- काज के लिये पार्टी का नेता जिम्मेदार माना जाता है और चुनाव में पार्टी अगर हार जाती है तो वह नेता अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए पद से इस्तीफा दे देता है। पर लगता है कि ऐसा कोई लोकतांत्रिक रिवाज कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं माना जाता है। अब इसमें कोई हैरत नहीं है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने पश्चिम बंगाल में पार्टी की शर्मनाक पराजय के बाद पद नहीं छोड़ा। प्रकाश करात के दिमाग में जवाबदेही की वह प्रतिबद्धता है ही नहीं जो एक जन नेता में होनी चाहिये। उनके भीतर वह नैतिकता है ही नहीं जिसके कारण वह नेता पार्टी की पराजय के बाद अपनी जिम्मेदारी को कबूल करते हुए पद से इस्तीफा दे देता है। इस पूरे प्रकरण में जो सबसे आहत कर देने वाला तथ्य है वह है पद नहीं छोडऩे के बारे में उनकी दलील। प्रकाश करात की दलील है कि पार्टी के नेता का पद चुनाव के नतीजों के आधार पर तय नहीं किये जाते बल्कि उसका निर्णय पार्टी की विचारधारा (पार्टी लाइन) और अन्य मुद्दों के आधार पर होता है। इस दलील की व्यर्थता सब समझते हैं। सी पी एम संसदीय लोकतंत्र की वकालत करती है। पार्टी के नेता के पद पर किसे रखा जाय इसके लिये चुनाव के परिणाम को आधार नहीं बनाया जाता है। यह कहना सरासर सियासी बेईमानी है। सीधी सी बात है कि एक राजनीतिक विचारधारा जिसे आम जनता ने मानने से इंकार कर दिया हो तो इसका साफ मतलब है कि उस विचारधारा में कहीं ना कहीं भारी दोष है। प्रकाश करात का पद नहीं छोडऩे के बारे में दलील यह छिपाने की कोशिश है कि चुनाव में पराजय का मतलब आम जनता ने पार्टी लाइन को अस्वीकार नहीं किया है। स्व. हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद श्री प्रकाश करात ने पद संभाला और तबसे उन्होंने पार्टी की हैसियत और मकसद दोनों को ओछा कर दिया। पार्टी कांग्रेस के विपक्ष की भूमिका निभाने लगी। कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस लेने के पीछे यही मनोवृत्ति थी। उनके काल में पार्टी लाइन कितनी कमजोर हुई इसका अंदाजा विभिन्न चुनावों के नतीजों से लगाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल में पार्टी की स्थिति बेहद शर्मनाक हो गयी ओर संसद में भी इसकी ताकत काफी घटी। आज प्रकाश करात एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं जे न केवल बंगाल और केरल में चुनाव हारी है बल्कि उसने बड़ी तेजी से जनाधार भी खोया है। पार्टी धीरे धीरे राष्टï्रीय स्तर पर अप्रासंगिक होती जा रही है। अगर यह पराजय पार्टी लाइन का नतीजा है तो इस लाइन को जितनी जल्दी हो त्याग दिया जाना चाहिये। पार्टी का नेता जो कुर्सी पर बना रहना चाहता है वह इसी तरह के अहमकाना दलीलें दिया करता है। अब अगर करात की यह पार्टी लाइन कायम रही तो बेशक पार्टी का भविष्य अंधकारमय है।
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Monday, June 13, 2011
कोई भाजपा से पूछे तो जरा
12 जून 2011
गत महीने भर से देश का सियासी माहौल गरमा रहा है। कभी हजारे के अनशन के पीछे हजारों नारे तो कभी बाबा के आंदोलन को रोकने के लिये आवभगत से लेकर बल प्रयोग तक। साथ ही गांधी जी की समाधि पर ठुमके और जिले जिले में नारे। सबका निशाना संप्रग सरकार, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं। इन सबमें सबसे प्रगल्भ भारतीय जनता पार्टी है तथा लेफ्ट वाले भी कहीं कहीं जोर लगाते नजर आ रहे हैं। वैसे यह सही है कि घोटालों के कारण केंद्र सरकार की विश्वसनीयता को काफी आघात लगा है। विपक्ष जनता को यह बताने में लगा है कि मौजूदा सरकार एकदम नकारा है। इसे बदल दिया जाना चाहिये। वह सरकार में इतने खोट गिना रहा है कि यदि वश चले तो जनता अभी उसे बदल दे। पर विपक्ष के शोरशराबे में यह पूछना लोग भूल जाते हैं या यों कहें कि तेजी आ रही आरोपों की बाढ़ में जनता को यह पूछने का मौका ही नहीं मिलता कि 'विपक्ष की दशा क्या है। यदि सत्ता में वे लोग आते हैं तो प्रधानमंत्री कौन होगा?Ó सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को ही यूपीए सरकार का स्वाभाविक विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए, लेकिन भाजपा अब भी अपने लिए अगली पीढ़ी का नेता तलाशने की जद्दोजहद कर रही है। शायद यही कारण है कि लालकृष्ण आडवाणी अब भी भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बने हुए हैं, जबकि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में शिकस्त के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने का संकेत दिया था। इस नवंबर में आडवाणी 84 वर्ष के हो जाएंगे और आम चुनाव अब भी तीन वर्ष दूर हैं। केरल चुनाव में वीएस अ'युतानंद के उल्लेखनीय प्रदर्शन ने भले ही वयोवृद्ध राजनेताओं के लिए आस जगायी हो, लेकिन इस तरह की कामयाबी लोकसभा चुनाव में भी दोहरायी जा सकती है, यह निश्चित नहीं है।
राजनीतिक वापसी के आडवाणी के संजीदा प्रयासों के बावजूद अयोध्या मामले की छाया उनकी सर्वमान्यता को हमेशा चुनौती देती रहेगी। लेकिन अगर आडवाणी नहीं तो कौन? कैडर आधारित संगठन के रूप में आरएसएस संगठित नेतृत्व की धारणा पर जोर देता रहा और राजनीतिक वंशवाद और मतवाद की परिपाटी से दूरी बनाए रहा।
लेकिन समय के साथ संघ को वाजपेयी की लार्जर दैन लाइफ छवि को स्वीकारने के लिए विवश होना पड़ा। अब जब आडवाणी-वाजपेयी युग समाप्त हो गया है तो संघ भी अपनी इस पुरानी आस्था की ओर लौट गया है कि संगठन व्यक्ति से ऊपर होता है। अब नितिन गडकरी जैसे 'लो प्रोफाइलÓ व्यक्ति की भाजपा अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति संघ नेतृत्व की ओर से भाजपा को यह संकेत था कि उसने किसी भी अपेक्षाकृत युवा नेता को समकक्षों में प्रथम नहीं पाया है। संदेश स्पष्ट था, नेता के रूप में किसी के नाम पर तभी विचार किया जाएगा जब वह अहंकार व गुटबाजी से ऊपर उठ जाए।
भाजपा के लिए दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि अतीत की दुश्मनी के घाव अब भी नहीं भरे हैं। सुषमा स्वराज ,वसुंधरा राजे और उमा भारती करिश्माई 'वोट कैचरÓ नेता हैं, लेकिन संघ के पुरुष प्रधान परिवेश में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध है। हाल के उदाहरण भी यही बताते हैं कि भगवा भ्रातृत्व के दायरे में एक महिला नेता को किस तरह के प्रतिरोधों का सामना करना पड़ सकता है। अरुण जेटली भाजपा के शहरी, सुसंस्कृत नेता के रूप में हैं। लेकिन जो लोग टीवी के एसएमएस पोल में वोट देते हैं, वे आमतौर पर चुनाव में वोट डालने नहीं जाते। अब बचे नरेंद्र मोदी। बेशक वे अग्रपंक्ति के नेता हैं पर इन दिनों एकल पाटीं के शासन का समय लद चुका है और वे गठबंधन की सरकार में कितने मुफीद होंगे यह बताने की जरूरत नहीं है। तो 2014 के आम चुनाव में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा? साफ है कि विपक्ष को ऐसा नेता चाहिए, जिसका अपना जनाधार हो, जो निष्णात रणनीतिकार हो, जिसकी साफ छवि हो और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उसे एक गठबंधन निर्माता के रूप में देखा जाता हो। क्या भाजपा के पास कोई ऐसा नेता है? आंदोलनों को हवा देने वाले विपक्ष से यह पूछना जरूरी है।
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राजनीतिक महत्वाकांक्षा का मंचन
11 जून
हरिराम पाण्डेय
बाबा रामदेव ने मांगों को मनवाये बगैर अनशन तोड़ दिया। हफ्ते भर से ज्यादा समय गुजर गया, बाबा रामदेव का मामला चलते हुए। उनके अनशन और आंदोलन को लेकर इस अवधि में काफी कुछ लिखा जा चुका है। बाबा रामदेव के अनशन को लेकर सरकार पर सवाल उठाये जा रहे हैं। कई लोगों ने सन्मार्ग में भी फोन किया और जानना चाहा कि बाबा पर कार्रवाई से क्या भारत सरकार की छवि को आघात लगा है। यहां यह कहने में बिल्कुल हिचक नहीं है कि इससे भारत की छवि को भारी आघात लगा है। यह सारा तमाशा खुद को योगी कहने वाले एक अपढ़ इंसान की महत्वाकांक्षा है। उन्होंने राजनीतिक ड्रामेबाजी पर भ्रष्टïाचार का मुलम्मा चढ़ा कर भोले भाले लोगों को ठगने की ठीक वैसी ही कोशिश की है जैसी कोशिश पतंजलि की कृति को अल्युमिनियम फॉयल में लपेट कर पेश करने की है। बहस का विषय है कि लोकपाल कमिटि की कार्रवाई को टी वी पर दिखाया जाय। इससे क्या होगा? लोक सभा की कार्रवाई जब से टी वी पर दिखायी जाने लगी सदन की कार्रवाई का स्तर और गिर गया। यहां भी वही होगा। सुधार की चिंता छोड़ सब अपने को दिखाने में लग जायेंगे। कोई इस बात पर बहस नहीं करता कि बुराइयों को दूर कैसे किया जाय पर सब इस पर बहस करते पाये जा रहे हैं कि कैसे अपने को 'शोÓ किया जाय। यहां कोई यह कल्पना नहीं कर सकता है कि कोई भी आदमी इस चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टïाचार के कारण सियासी, सामाजिक या कानूनी जटिलताओं में उलझ सकता है। जिन्होंने भारत का प्रशासनिक इतिहास पढ़ा होगा उन्हें मालूम होगा कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिये संतानम कमिटि ने सिफारिश की थी और उसे जांच एवं पूछताछ के व्यापक अधिकार देने की सिफारिश भी की थी। उसकी समीक्षा के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कृ पलानी कमिटि बनायी और उस कमिटि ने ऐसे व्यापक अधिकार देने की सिफारिश को अमान्य कर दिया। उस समय से अब तक जो भी सरकार बनी सबने किसी ना किसी रूप में उन सिफारिशों को मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि सभी जानते र्हैं कि कोई भी राजनीतिज्ञ चुनाव के खर्चे को लेकर गलतबयानी करता है, यहां तक कि यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बाबा या अन्ना की मांग के अनुरूप लोकपाल बिल को मान भी लेते हैं तब भी पूरी व्यवस्था उसे लागू नहीं होने देगी। यहां एक बार जयप्रकाश नारायण ने भी कहा था 'कि जिस तरह राजनीतिज्ञों और अफसरों में भ्रष्टïाचार व्याप्त है वह केवल लोकायुक्त या लोकपाल के गठन से खत्म हो जायेगा।Ó जे पी के जमाने में अफसरों के तबादले और उनकी तैनाती है राजनीतिज्ञों की नाजायज आय का जरिया थी। अब तो जबसे आर्थिक उदारीकरण हुआ तबसे आय के कई स्त्रोत खुल गये। बेशक भ्रष्टïाचार को मिटाना समय की जरूरत है और इसकी मांग करने का भी लोकतंत्र में सबको हक है पर लोकतंत्र अज्ञानियों की भीड़ को नहीं कहते हैं। लोकतंत्र के कुछ नियम कायदे होते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं, निश्चित परम्पराएं होती हैं और रस्मोरिवाज होते हैं। भक्ति का दिखावा धर्म को भी हल्का कर देता है। सवाल पूछा जाता है कि सरकार ने पहले बाबा को प्रदर्शन की इजाजत क्यों दी और अगर दे दी तो उन्हें लाठियों के बल पर वहां से क्यों हटाया? सरकार ने बाबा के साथ जुड़ी भक्तों की भीड़ के कारण अपने वोट बैंक पर होने वाले दुष्प्रभाव के भय से इजाजत दे दी पर बाद में उसे लगा कि यह तो लोकतंत्र का मखौल है तो कानून को अपना काम करने की अनुमति दे दी। इसका मतलब साफ है कि लोकतंत्र के नाम पर निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकार में कटौती नहीं की जा सकती है। जहां तक रामदेव जी का सवाल है तो उनके अनशन के समय एक तरफ डॉक्टर कहते रहे कि बाबा का स्वास्थ्य ठीक है और सुधार हो रहा है, वहीं मुख्यमंत्री कहने लगे कि बाबा कोमा में जा सकते हैं। इन सबका तो एक ही मतलब निकलता है कि भले ही बाबा के उठाए मुद्दों में जान हो, लेकिन बाबा की नीयत और ईमानदारी पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता है। बाबा पूरी दुनिया के करप्शन पर भले ही बोलते रहे लेकिन जिस राÓय से वह जुड़े हैं, वहां का भ्रष्टाचार उन्हें कभी नजर ही नहीं आया। उत्तराखंड में कुछ ही महीनों में चुनाव होने हैं और मौजूदा बीजेपी सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। ऐसे में वहां के मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा का साथ देने की बात कहते हैं और बाबा भी वहां के भ्रष्टाचार पर मूक दर्शक बने रहते हैं, तो शक होना लाजिमी है। सवाल तो यह भी उठ रहे हैं कि कहीं बाबा का अनशन पूरा नाटक ही तो नहीं था। नींबू पानी पीकर और शहद लेकर भला यह कौन सा अनशन हुआ।बाबा को अगर सच में अपने मुद्दों के आगे और देश हित के आगे अपनी जान की परवाह ही नहीं थी तो वह रामलीला मैदान से भागे ही क्यों? अगर नहीं भागते तो क्या होता...पुलिस गिरफ्तार कर लेती....जेल भेज देती....या अगर बाबा पर यकीन करें तो बाबा का एनकाउंटर कर देती....तो.....बाबा तो मौत से नहीं डरते ....तो फिर बाबा को क्या हुआ जो भाग गये और 9 दिन के अनशन पर जब हालत खराब होने लगी तो जूस पीकर अनशन तोड़ दिया। यह देशवासियों के लिये सबक है कि वे ऐसे बाबाओं के चंगुल में आ कर अपना समय बर्बाद ना करें। यह सब उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का निर्लज्ज मंचन है।
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Friday, June 10, 2011
गंगा आरती : पुनर्जन्म और कायान्तर के बीच शृ्रंखला
हरिराम पाण्डेय
11जून 2011
कभी शाम को सूरज डूबने ठीक पहले कोलकाता के बाबूघाट से हावड़ा के रामकेष्टïोपुर घाट तक नाव से आकर तो देखें, गंगा के पश्चिमी तट पर सूरज डूबता सा नहीं दिखता लगता है बल्कि आग की एक लपट पानी में बुझती सी लगती है। इसके बाद नदी उस बड़े कटोरे के पानी की तरह काली - नीली हो जाती है जिसमें ढेर सारे कोयले बुझाये गये हों। पर वह अम्बरी आग बुझती नहीं है, थोड़ी ही देर में आग वह टुकड़ा मल- मल कर पानी में नहाया हुआ और पहले से भी ज्यादा चमकता हुआ पानी में से निकल आता है। पीछे कोलकाता शहर की बत्तियां जल उठती हैं, पानी झिलमिल करने लगता है। मैं अक्सर कहता हूं कि वे शहर बड़े अभागे हैं या कहें दुर्भागे हैं जिनकी अपनी कोई नदी नहीं होती और वे शहर बड़े किस्मत वाले हैं जिन्हें छूकर पुण्यसलिला गंगा निकलती है और कोलकाता तो और भी खुशकिस्मत है जहां गंगा अपना सफर खत्म करने के पहले अपने इस धरा पर आने का उद्देश्य खत्म करती सी दिखती है। आज गंगा दशहरा है , आज गंगा के आने की ही सार्थकता नहीं दिखती बल्कि उसके अस्तित्व का मानव जीवन पर प्रभाव भी दिखता है। पता चला कि गंगा दशहरा के अवसर पर रामकेष्टïोपुर घाट पर गंगा की आरती होगी। हालांकि पिछले साल भर से ज्यादा समय बीत गया जब हावड़ा कोलकाता के सुधी सज्ज्नों का एक संगठन- सम्मिलित सद्भावना - हर हफ्ते गंगा की आरती यहां करता रहा है। शास्त्रीय श्लोकों की लय पर आरती की लौ का गंगा के पानी में कत्थक अचानक मन में घूम गया। अभी हाल में ही तो पर्यावरण दिवस था। शहर भर के 'एलीटÓ समुदाय ने तरह- तरह से मनाया यह दिन। फिर कुछ लोगों के समुदाय को गंगा दशहरा मनाने की क्या सूझी? लेकिन इसकी जरूरत है। इस जरूरत को हम या आप या कोई बी गंगा में घूम कर और मंथर गति से प्रवहमान उस धारा से तटों को देख कर ही महसूस कर सकता है। एक अजीब सा अहसास। लगता है इंसान अपने बीतर अपने अतीत को ढो रहा है। उसकी स्मृतियां अभी इतिहास नहीं बन पायीं हैं। गंगा में घूमते हुये हम एक साथ दो-दो स्थितियों से गुजरते हैं।एक है प्रकृति, जो शाश्वत है, और दूसरी है उसकी ऐतिहासिकता। दोनों अपने आप में विपरीत हैं। एक ठोस और स्थाई और दूसरा सतत प्रवहमान। उसमें घूमते हुये हम दूसरे कालखंड में पहुंच जाते हैं जहां हमारा अस्तित्व असकी गवाही नहीं होती बल्कि वह यानी गंगा हमारे होने की साक्षी होती है। वह गवाह है हमारे बीतने की, घुटती इंसानी सभ्यता की और अपने ही कर्मों से मिटने की ओर बढ़ते इस विकास की। यहीं समझ में आता है कि 'एनवायमेंट डेÓ के जलसों- नारों और गंगा आरती की जलती लौ में कितना अंतर है। एक तरफ तो हम संसार को समझने- संचालित करनेश् का दम्भ भरते हैं दूसरी तरफ इतिहास से और भविष्य से त्रस्त हैं। एक त्रस्त और डरी हुई कौम की समझ क्या हो सकती है? पर्यावरण दिवस के नारे- जुलूस उसी डर की अभिव्यक्ति हैं और जलसे उसका 'अपीयरेंस।Ó एक त्र्स्त कौम ना इतिहास रच सकती है और ना असका अतिक्रमण कर सकती है। यहीं आरती जरूरी लगती हे, क्योंकि ना उसमें उसमें ना इतिहास या भविष्य का त्रास है और ना उसे समझने का दंभ। वह एक ऐसा संस्कार है जो हमें इतिहास के उस मिथक क्षण में ले जाता है जब भगीरथ की 'तपस्याÓ के बाद सगर पुत्रों की 'मुक्तिÓ के लिये गंगा स्वर्ग से धरती पर आयी थी। यहां 'तपस्याÓ और 'मुक्तिÓ दो शब्दों में 'इतिहासÓ और 'मिथकÓ का सम्पूर्ण भेद छिपा है। गंगा अपने प्रवाह में जहां इतिहास के पन्ने पलटती हे वहीं मिथक के भेद भी खोलती है। वह हमारे भीतर उन पौराणिक क्षणों का 'रीक्रियेटÓ करती है जिसकी आज हमें बहुत जरूरत है। जो लोग खुद को ज्ञानी कहते हैं वे हो सकता है मिथक की बात पर हंस दें । गंगा की उत्पत्ति और उद्देश्य की अवधारणा को मानने से मना कर दें, वे यह भी साबित कर दें कि गंगा अवतरण के उस मिथक काल की वास्तविकता थी ही नहीं। लेकिन इन सब से ना सपना झूठा हो जाता है और ना आकांक्षा की तीव्रता मंद पड़ जाती है। दर असल सारा मिथक प्रकृति के करीब जाने और उसे समझने का प्रयास है। यह करीब जाना एक तरह से अपने छिछोरे अहम का अतिक्रमण करना भी है। गंगा की आरती गंगा को बचाने की कोशिश नहीं है, जैसा कि इन दिनों फैशन में कहा जाता है, बल्कि उसे समझने का प्रयास है। गंगा के सम्बंध में सारे मिथक उसे नदी नहीं देवी कहते हैं। यहां आस्था प्रमुख है शंका क्षीण है। आज हमारे भीतर आस्था पीण हो गयी है। हम अंधेरे की भाषा पढ़ नहीं पाते और उसे आतंक का पर्याय मान लेते हैं। आज का मनुष्य एक तरफ प्रकृति के विनाश और दूसरी तरफ स्मृति की मृत्यु के बीच झूल रहा है। आज की सभ्यता की कोशिश यह है कि वह स्मृति की मृत्यु और प्रकृति के विनाश को अलग- अलग खानों में बांट दे। यह अलगाव की कोशिश ही मनुष्य की त्रासदी है। सगर पुत्रों की जिस मुक्ति की कथा गंगा के साथ जुड़ी है वह इसी अलगाव को खत्म करने का बिम्ब है। गंगा इस सभ्यता के इसी अलगाव को खत्म करने में लगी है। वर्ना दुनिया की कोई भी नदी इतने लम्ब अर्से तक एक पूरी जाति की आस्था का वाहक नहीं बनी रह सकती है। यह प्रकृति की वास्तविकता के साथ- साथएक पौराणिक संकल्पना है जो पुनर्जन्म और कायान्तरयों के बीच अटूट श्रृंखला बनाती है। यहां गंगा आरती के समय एक अजीब रोमांच होता है। सामने दूसरे तट पर झिलमिलाता शहर और बीच में कांपता चांद। जैसे रोशनी के फ्ूल खिले हों चारों ओर और इसमें आरती गाते कंठ स्वर तथा शंख की लम्बी अनुगूंज एक पक्का आश्वासन देती है कि गंगा है और गंगा है तो हमारा अस्तित्व है, हमारा भविष्य है।
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कम से कम बापू को तो बख्श दो बाबा
हरिराम पाण्डेय
10जून 2011
रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के आंदोलन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई को भाजपा नेता लाकृष्ण आडवाणी ने जलियांवाला बाग कांड की संज्ञा दी और उसके विरोध में राजघाट पर अनशन किया, सुषमा जी ने (देशभक्ति गान पर) ठुमके लगाये और बुधवार को गांधीवादी अण्णा हजारे ने गांधी टोपी पहन कर दिन भर का अनशन भी किया। बड़ी भीड़ थी। कहां - कहां से लोग आये थे पता नहीं। इरादा था बताने का कि दमन की ताकत के मुकाबले नैतिकता की शक्ति है। जब जिक्र जलियांवाला बाग का हुआ तो जरूरी है इतिहास में झांकना। इस कांड के एक दिन पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने बापू से कहा था कि 'शक्ति किसी भी रूप में असंगत है।Ó संभवत: विश्व को यह मालूम था कि सत्ता की शक्ति, चाहे तब की हो या अब की, कितनी दमनकारी और विध्वंसक होती है। लेकिन उनकी चेतावनी केवल सत्ता की ताकत के लिये नहीं थी, उनकी चिंता का विषय था जनता का नैतिक बल। उन्हें मालूम था कि जनता न केवल खून खराबा कर सकती है बल्कि वह उसे जन आक्रोश बता कर उचित भी बता सकती है। गुरुदेव को चिंता इसी स्थिति की थी। उनकी चेतावनी सत्याग्रह के खिलाफ थी जिसे वे नैतिक नहीं मानते थे। उस काल में देश में गांधी के नैतिक बल के बारे में सबसे ज्यादा जानने वाले और उसके प्रति सबसे ज्यादा आश्वस्त रहने वाले रवींद्रनाथ ही थे। इसके बावजूद वे भीड़ की राजनीति के प्रति सशंकित थे। महात्मा गांधी की तरह उनका भी मानना था कि राजनीति में हथकंडे ठीक नहीं होते और उनका प्रयोग पूरी तरह नैतिक नहीं होता है। सत्याग्रह यानी राजनीति में सत्य की क्षमता का उपयोग दरअसल आत्म बल का उपयोग होता है जो अपने आप में प्रेम और करुणा का स्वरूप है। प्रेम और करुणा केवल उनके लिये नहीं होती जो कुचले हुए हैं या पीडि़त हैं बल्कि उनके लिये भी है जिनके खिलाफ आंदोलन हो रहा है। जब आप दूसरे की मानवीयता को स्वीकारेंगे तब कहीं जा कर सच के धरातल पर वार्ता हो सकती है क्योंकि इसके लिये जरूरी है कि दोनों पक्ष नैतिकता को मानें। शैतानियत में नैतिकता के लिये कोई स्थान नहीं होता। सत्याग्रह दमन , अत्याचार और पाखंड से मुक्ति की कार्रवाई है पर साथ ही साथ यह दूसरे को नहीं दबाने या नहीं सताने की भी कार्रवाई है। रवींद्रनाथ नाथ ने गांधी से हुई अपनी बात के आखिर में कहा था कि 'हमारी कोशिश आत्मा की ज्योति से मुर्दों में प्राण देने की होनी चाहिये।Ó अतएव गांधी और रवींद्रनाथ दोनों का मानना था कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम दोहरा मुक्ति संग्राम है जिसमें पहला है भारत की आजादी की जंग और दूसरा है यूरोप को साम्राज्यवाद से मुक्त करने का संघर्ष। महात्मा गांधी के अनुसार सत्याग्रह का अर्थ परिवर्तनकारी राजनीति ही नहीं है बल्कि सबके लिये एक सुसंगत समाज की रचना भी है। गांधी के लिये अनशन आत्मशुद्धि का साधन था। वे सार्वजनिक अनशन के अवपीड़क स्वरूप से पूरी तरह परिचित थे और यही कारण था कि वे इसके परपीड़क प्रभाव से हमेशा सचेत रहते थे। बाबा रामदेव और अण्णा हजारे के अनशन या सत्याग्रह के औचित्य में कहीं कोई कमी नहीं है। लेकिन यह सत्याग्रह वैसा नहीं है जैसा गांधी इसके बारे में मानते थे। इसलिये जरूरी है कि सत्ताधारियों के प्रति अपने सम्बंंधों के मामले में हम गांधी को बख्श दें क्योंकि आज की सत्ता और सियासत दोनों परिवर्तन के भयानक दौर से गुजर रही हैं। यहां सवाल है कि क्या यह सत्याग्रह सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को बढ़ावा देने के उपाय के रूप में सक्रिय हो सकता है। नैतिक होने की जिम्मेदारी केवल सरकार पर नहीं होती बल्कि यह बराबर रूप में जनता पर भी होती है। भ्रष्टïाचार तो केवल नैतिक आचरण का एक पक्ष है, इसका सर्वाधिक व्यापक पहलू है सद्व्यवहार। आम जनता आज के आंदोलन के नेताओं से अपेक्षा करती है कि वे राजनीति में नैतिकता को बढ़ावा दें ताकि सही एवं संगतिपूर्ण सियासत से जुुड़े समाज की संरचना हो सके। अगर ऐसा होता है तो भ्रष्टïाचार अपने आप समाप्त हो जायेगा। लेकिन यहां समस्या हैै कि अनशन या सत्याग्रह का स्वरूप बड़ी तेजी से अवपीड़क तथा दबाव मूलक होता जा रहा है। गांधी ऐसा नहीं चाहते थे अतएव कम से कम ऐसे आंदोलनों से गांधी के नाम को ना जोड़ें तो बेहतर है।
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Wednesday, June 8, 2011
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
हरिराम पाण्डेय
8 जून 2011
इन दिनों भ्रष्टïाचार के खिलाफ आंदोलनों- अनशनों, सिविल सोसायटी की ना बोलती सी भूमिका और सरकार के किरदार को लेकर बड़ा गंभीर कनफ्यूजन बन रहा है। जितनी मुंह और उतनी बातें, तरह- तरह की दलीलें और उन पर लंतरानियों की मानिंद लगाये जाने वाले कयास और मीडिया के खबर परोसने के तरीके सब मिल कर कुछ ऐसा वातावरण बना रहे हैं कि आम आदमी अनिर्णय की स्थिति में आ गया है और उसमें एक मुर्दा शांति भर गयी है। यह बड़ी खतरनाक स्थिति है।
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मु_ी सबसे खतरनाक नहीं होती
यहां इरादा यह कहने का नहीं है कि कोई किस पार्टी का समर्थक है या किसी को राजघाट पर सुषमा स्वराज का ठुमका कितना अच्छा या बुरा था या आहत करने वाला था अथवा जनार्दन द्विवेदी को एक नौजवान द्वारा जूता दिखाया जाना ठीक अथवा गलत था या कौन सी पार्टी दूध की धुली है और कौन घोटाला कलंकित है या मनमोहन सिंह के हाथों में ताकत अथवा सोनिया जी के हाथों में है या हजारे अच्छे हैं या रामदेव ठग हैं या संत हैं। इन सबके बावजूद गुजारिश है कि भ्रष्टïाचार के खिलाफ चलने वाले या चलाये जा रहे आंदोलनों का समर्थन होना चाहिये। इसलिये कि ये आंदोलन किसी पक्ष अथवा विपक्ष में नहीं हैं । ये आंदोलन किसी मोदी, किसी रमण सिंह और किसी आडवाणी की वकालत करने के लिए नहीं हैं। और, रामदेव बाबा तथा उनके समर्थकों से क्षमा याचना सहित, ये रामदेव बाबा की योग की दुकान चमकाने के लिए भी नहीं हैं। यह अनशन हजारे के लिए भी नहीं है। न ही जनलोकपाल बिल के पक्ष और विरोध के लिए है। आखिर एकाध नेताओं ने खुद को समझ क्या रखा है? वह जब जिस बात को सही कह देंगे वह सही हो जाएगी और जिस बात को गलत करार देंगे वह गलत हो जाएगी? उन्होंने जब तक चाहा हजारे ठीक रहे, जब उन्होंने तय किया वे गलत हैं तो गलत हो गये। यह आंदोलन है उन लोगों को यह बताने के लिए कि देश में लोकतंत्र है, देश की संप्रभुता सरकार में नहीं, जनता में निहित है, जनता अगर चुप है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह गूंगी है।
इसीलिए इस आंदोलन को समर्थन मिलना चाहिये। सीधा समर्थन ना दे सकें तो कम से कम इतना जरूर करें कि भीतर से सारे संशय निकाल कर अपने मन में दोहराएं कि जैसा भी है हमारे समय का जनांदोलन यही है।
क्योंकि सबसे खतरनाक होता है
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
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बाबा रामदेव ने देश को छला है
हरिराम पाण्डेय
7जून 2011
इन दिनों देश में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टïाचार विरोधी आंदोलन की सबसे ज्यादा चर्चा है। ताजा खबरों के मुताबिक बाबा ने सरकार को माफ कर दिया और अन्ना जंतर मंतर के बजाय राजघाट पर अनशन करने को अड़े हैं। इन आंदोलनों में सबसे बड़ा मोहरा है आम जनता। नेता और मीडिया जो चाहते हैं उन्हें समझाते हैं, उकसाते हैं और फिर समझा- बुझा कर हट जाते हैं। यह वोट लेने के लिये दिये जाने वाले आश्वासनों से लेकर अन्ना के अनशन तक सबमें दिखता है। आखिर बाबा ने इतने लोगों की भावनाओं से क्यों खिलवाड़ किया? क्या इसे आचरण की ईमानदारी कहा जा सकता है। भ्रष्टïाचार खत्म करने के इतने नारों के बाद यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफसोस भी होता है कि हमारे पास ईमानदारी नहीं है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में भ्रष्टाचार गहराई तक उतर चुका है और बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन गयी है। आज स्थिति यह है कि हमारे यहां बेईमानी, भ्रष्टाचार की खुली लूट है। जो चाहता है वह लूट लेता है। यहां तक कि हम खुद ही खुद को लूट रहे हैं। जुर्म, वारदात, नाइंसाफी, बेईमानी,चालाकी और भ्रष्टाचार का सैकड़ों साल पुराना किस्सा कभी गेरुआ बाने में कभी गांधी टोपी में या फिर कोई और नयी पोशाक पहनकर फिर हमारे दिलों पर दस्तक दे रहा है। रगों में लहू बन कर उतर चुका है भ्रष्टाचार का कैंसर। अवाम सियासत के बीज बोकर हुकूमत की रोटियां सेंकने वाले भ्रष्ट नेताओं के भविष्य का फैसला करना चाहती है। बेईमान सियासत के इस न खत्म होने वाले दंगल में ईमानदारी थक कर चूर हो चुकी है। बेईमान और शातिर सियासतदानों की नापाक चालें हमें जख्मी कर जाती हैं तो हम संन्यासी और गांधीवादी की ओर कराहते हुए देखते हैं लेकिन वहां भी भावनाएं दम तोड़ जाती हैं। महंगाई, गरीबी, भूख और बेरोजगारी जैसे अहम मुद्दों से रोजाना और लगातार जूझती देश की जनता के सामने भ्रष्टाचार इस वक्त सबसे बड़ा मुद्दा और सबसे खतरनाक बीमारी है। अगर इस बीमारी से हम पार पा गये तो यकीनन हमारा देश सोने की चिडिय़ा वाला वही सुनहरा हिंदुस्तान हो जायेगा। पर क्या ऐसा हो पाएगा, क्या आप ऐसा कर पाएंगे जी हां, हम आप से पूछ रहे हैं। अनशनकारियों और बाबाओं! के समाने भीड़ï लगा कर , मोमबत्तियां जला कर, नारे लगा कर, या सरकार को झुका कर हम भ्रष्टाचार की जंग नहीं जीत सकते। इस जंग को जीतने के लिए खुद हमारा बदलना जरूरी है। भ्रष्टाचार और बेईमानी को बढ़ावा देने में हम भी कम गुनहगार नहीं हैं।
मंदिर में दर्शन के लिए, स्कूल अस्पताल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए, नौकरी के लिए, रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए, मुकदमा जीतने के लिए भी हम ही तो रिश्वत देते हैं। एक बार ठान कर तो देखिए कि आज के बाद किसी को रिश्वत नहीं देंगे। फिर देखिए ये भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी कैसे खत्म होते हैं। दिल्ली का जन्तर-मंतर। यानी वह दहलीज जहां से देश का गुस्सा अपनी सरकार से फरियाद करता है।पिछली बार जब अन्ना का अनशन हुआ था तो जंतर मंतर पर गम और गुस्से का अजीब संगम था। क्योंकि अन्ना के समर्थन में आने वालों का ये मानना है कि अन्ना जो कहते हैं सही कहते हैं।
इसी तरह की भीड़ पिछले हफ्ते रामलीला मैदान में भी दिखी थी। ये भीड़ किसी वोट बैंक का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी थी जो भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं। लेकिन क्या हुआ। फिर एक चुप्पी सी दिखने लगी है फिजां में । बाबा रामदेव के माफी की खबर ने आमजनता के सपनों से छल किया है। वे एक मुर्दा चुप्पी को आवाज दे रहे हैं। सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना:
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।
क्या बाबा रामदेव की माफी इस बात का जवाब दे सकती है?
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संत का सत्याग्रह बनाम सरकार की सख्ती
हरिराम पाण्डेय
6जून 2011
बाबा रामदेव के आंदोलन के प्रति मनमोहन सिंह सरकार की सख्ती के जनता में अच्छे संदेश नहीं जायेंगे यह तय है और ना इससे सोनिया जी के कांग्रेस या सरकारी तंत्र के बारे में जनता अच्छा सोचेगी। बाबा रामदेव ने विदेशों में जमा भारतीयों के अघोषित धन को देश में लाने और उन धनपतियों को दंड देने की मांग को लेकर सत्याग्रह तथा अनशन शुरू किया है। शनिवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में उनके मंच को तोड़ कर और उनहें जबरन वहां से उठा कर हरिद्वार ले जाने की पुलिस कार्रवाई से जनता गुस्से में है। यह गुस्सा अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में साफ दिखता है। बोफोर्स कांड में बार- बार की लीपा- पोती से धोखा खायी जनता इस मसले को लेकर काफी शंका में है। सरकार की मजबूरी भी बहुत नाजायज नहीं है क्योंकि इस सारे मामले में विदेशों की भी भूमिका है जिसके लिये न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति अनिवार्य है बल्कि कूटनीतिक कुव्वत भी जरूरी है। अमरीका और इंग्लैंड के समक्ष भी विदेशों में जमा धन को लेकर समस्या खड़ी हुई थी पर उन्होंने इसे सफलतापूर्वक सुलझा लिया। अब चूंकि समस्या सरकार के साथ है पर उसे वह राजनीतिक लाभ के लिये जनता के सामने स्पष्टï ना कर इस पर लीपापोती करती है। और उसकी इस क्रिया से जनता की शंका और बढ़ती जाती है। अगर कोई सूचना भी मिलती है तो वह उस पर गंभीरता से विचार करने के बदले हल्के से लेती है। इससे जनता में शंका बढ़ती जाती है। अब जनता के मन में यह बात घर कर चुकी है कि सरकार विदेशी बैंकों में जमा काले धन के धारकों के विरुद्ध कार्रवाई ही नहीं करना चाहती है। इसके कारण जनता में गुस्सा बढ़ता गया और सरकार को इसका इल्म नहीं हो सका, क्योंकि सरकारी सूचनातंत्र वास्तविक कम और पसंदीदा खबरें ज्यादा परोसते हैं तथा अखबार मीडिया जनता के गुस्से को ठीक से प्रतिबिम्बित नहीं कर पायी। सरकार चाहती तो इस गुस्से को कम कर सकती थी। इसके लिये मनमोहन सिंह सरकार को सिविल सोसायटी के नेताओं से और आम जनता से बातें कर अपनी कठिनाइयों को बताना चाहिये था पर मनमोहन सिंह चुप्पी साधे रहे। प्रधानमंत्री को उन देशों में जाना चाहिये था जो भारत के आर्थिक अपराधियों के लिये मददगार हैं और उनसे सहयोग मांगना चाहिये था। उन देशों के नेताओं को बताना चाहिये था कि उनके सहयोग पर ही हमारे देश से उनके देश का कारोबार निर्भर होगा। सरकार को एक टास्क फोर्स का गठन करना चाहिये था जो न केवल फाइनेंशियल इंटेलिजेंस का काम करे बल्कि इस बात का भी पता लगाये कि अमरीका और इंग्लैंड ने कैसे इस पर फतह हासिल की साथ यह भी पता लगाये कि हमारी संस्थाओं में कहां और क्या खोट है जिससे ब्लैक मनी का सृजन होता है। सरकार ऐसे तंत्र भी तैयार कर सकती थी जो जनता को अनवरत यह बताये कि इस दिशा में क्या कुछ हो रहा है, पर सरकार ने कुछ नहीं किया। इसके बावजूद सरकार को जब पता लगा कि बाबा रामदेव इस मसले को लेकर व्यापक आंदोलन करने वाले हैं तो उसे उनके पास अपने दूत भेज कर अपनी पोजिशन बता देनी चाहिये थी पर उसने यह भी नहीं किया। उल्टे बाबा को अण्णा हजारे के आंदोलन को नगण्य बनाने में लग गयी। अब जब बाबा रामदेव अनशन पर बैठ गये तो सरकार उन्हें जबरन उठवा रही है। इससे आमतौर पर जनता गुस्से में आ गयी है। अब सरकार को चाहिये कि वह जनता को विश्वास में ले। इसके लिये संभव हो तो प्रधानमंत्री राष्टï्र को सम्बोधित करें और अपने मंत्रियों को काबू में रखें ताकि वे भड़काऊ भाषण न दें। जनता को विश्वास में न लेना और रामदेव के साथ ज्यादती करना सरकार के लिये लाभदायक नहीं हुआ।
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बाबा एवं सरकार की रस्साकशी
हरिराम पाण्डेय
5 जून 2011
रामलीला मैदान में भ्रष्टïाचार और कालाधन के मुद्दे पर अनशन पर बैठे बाबा रामदेव के आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने शनिवार देर रात डंडे के जोर पर खत्म करवा दिया। करीब दो घंटे तक पुलिस और बाबा के समर्थकों में जबर्दस्त झड़प हुई। आखिर में पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़कर समर्थकों को तितर-बितर किया और बाबा रामदेव को अपने साथ ले गयी, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में सरकार की किरकिरी हुई और रामदेव और हीरो बन गये। क्या सरकार को यह मालूम नहीं था कि वह जो कर रही है, उससे रामदेव को ही फायदा होगा? या कहीं यह इसीलिए तो नहीं हो रहा है कि सरकार चाहती है कि रामदेव को हीरो बनाया जाए, उनका गुस्सा बढ़ाया जाए, इस गुस्से की आग में उनका कद और उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ायी जाए। इतनी बढ़ाई जाए कि वह खुद को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखने लगें और इस दिशा में अपनी पार्टी बना लें, चुनाव लड़ें। अब आप सोच ही सकते हैं कि अगर रामदेव के मन में यह इच्छा जग गयी (या हो सकता है पहले से जगी हुई हो) तो उनके इस कदम से किसको फायदा और किसको नुकसान होगा? लेकिन फिलहाल बाबा रामदेव का मामला अब बीजेपी और कांग्रेस के बीच का मामला बन गया है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि यह घटना लोकतंत्र पर कलंक है और इसके लिए प्रधानमंत्री को देश से माफी मांगनी चाहिए, लेकिन जरा गहराई से सोचेें तो साफ हो जाएगा कि रामदेव को हीरो बनाने से कांग्रेस को ही फायदा है और नुकसान है बीजेपी को। बीजेपी और आरएसएस आज भले ही बाबा रामदेव का खुला समर्थन कर रहे हों, लेकिन अंदर ही अंदर उनको यह डर भी है कि कहीं बाबा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग गयी तो उनके ही वोट कटेंगे। कांग्रेस का यह पुराना तरीका है। हो सकता है, बीजेपी के वोट काटने के लिए ही रामदेव को हीरो बना रहे हैं। यह चाल कितनी कामयाब होगी, अभी से कहना मुश्किल है। लेकिन हालात अपनी बात तो बता ही रहे हैं।
शनिवार की शाम मंत्री कपिल सिब्बल ने बाबा का लिखा पत्र प्रेस के सामने रख दिया और बाबा की बोलती बंद हो गयी। जहां आंदोलन वापस लिये जाने की बात थी वहीं बाबा ने आंदोलन को आगे बढ़ाने का ऐलान कर दिया। इस मसले को लेकर जनता में भारी विभ्रम है। कौन कितनी चालें चल रहा है यह कहना बड़ा कठिन है।
बाबा रामदेव राष्टï्रीय नायक बनना चाह रहे हैं। उन्होंने लोगों में उम्मीद जगायी है कि वे बाबा चमत्कार कर दिखाएंगे। विदेशों में जमा भारत के अरबों-खरबों के काले धन को वापस लाने का या भ्रष्टाचार के संहार जैसा कुछ चमत्कार। इस वजह से जिस आम आदमी ने वक्त से पहले ही भ्रष्टाचार मुक्त भारत के सपने देखने शुरू कर दिये थे, वह एक बार फिर निराश है। आम आदमी एक बार फिर सोच रहा है कि भ्रष्टïाचार से देश को कब और कैसे छुटकारा मिलेगा। दिलचस्प बात है कि इस ताजा स्थिति से देश के भ्रष्टाचारी ही खुश हैं। सवाल यह है कि क्या बाबा अपनी मांगों को पूरा करवा पाएंगे? एक मांग जन लोकपाल की है। इस मांग को लेकर अन्ना हजारे भी सरकार पर चढ़ाई कर चुके हैं। अब अन्ना कह रहे हैं कि सरकार ने उन्हें धोखा दे दिया। बाबा रामदेव सरकार से बच कर रहें। लेकिन एक सवाल यह भी है कि इतने घोटालों आदि से लगभग खलनायक बन चुकी सरकार अपने मनमुताबिक जन लोकपाल विधेयक को लागू करके अपने अगले कार्यकाल के लिए आधार न बना ले।
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Saturday, June 4, 2011
जमीन की सियासत में मोहरा बना किसान
हरिराम पाण्डेय
3.06.2011
प्रख्यात इतिहासकार प्रो. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक 'महात्मा गांधीÓ ज मूवमेंट इन चम्पारणÓ में महात्मा गांधी के कुछ पत्रों को प्रकाशित किया है जिसमें इस बात का जिक्र है कि उन्होंने क्यों और कैसे अपनी वेश भूषा बदली। इसमें चम्पारण के निलहे किसानों की कहानी गांधी जी के हाथों लिखी गयी है। ये कथाएं उन किसानों के वर्णन पर गांधी जी द्वारा लिये गये नोट्स पर आधारित हैं। गांधी ने लिखा है कि निलहे किसानों की जिंदगी ने उन्हें अपनी राजनीति को दिशा देने में मदद की और यह सोचने पर बाध्य किया कि किन लोगों को सही अर्थों में हिफाजत की जरूरत है। तबसे अब तक किसान और उनकी जमीन राजनीति और नीति की धुरी बनी रही। लेकिन चम्पारण के नील के खेतों से भट्टïा परसौल तक बहुत कुछ बदल गया। आजादी के तुरत बाद से जमींदारी उन्मूलन की लड़ाई शुरू हो गयी। कई किसान संगठन बने और अपने अधिकारों के लिये जोर आजमाइश होने लगी। लगभग समाजवादी और साम्यवादी दलों ने किसानों के अधिकारों का समर्थन किया और कृषि सुधार नीति निर्धारण का आधार बन गया। इसके बाद शुरू हो गया सियासत के खेल में किसानों का इस्तेमाल। कांग्रेस ने तो बैलों की जोड़ी को ही अपना चुनाव चिह्न बनाया और शास्त्री जी ने किसानों को महत्वपूर्ण बनाने के लिये उन्हें राष्टï्रीय सुरक्षा का पर्याय बना दिया और नारा दिया 'जय जवान जय किसानÓ। इसके बाद हरित क्रांति और फिर खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के नाम पर एक नूतन अर्थव्यवस्था की ही नींव नहीं डाली गयी बल्कि इसके साथ ही किसानों के एक नये वर्ग का उदय भी शुरू हो गया।
लेकिन 1990 के मध्य से राजनीति ने कृषि के सम्बंध में कोई नयी बात नहीं कही। इस बीच जो पार्टियां अस्तित्व में आयीं , खास कर राजद और बसपा वे मूलत: कृषि के आधार पर खड़ी हुईं थीं पर उन्होंने बेहतर प्रतिनिधित्व की दलीलें शुरू कर दीं। उनकी देखा देखी अन्य पार्र्टियों ने भी उनके स्वर में बोलना शुरू कर दिया। कई पार्टियों ने तो अपना नजरिया तक बदल लिया। कांग्रेस का '1971 का गरीबी हटाओ वाला गरीब आदमी 2004 आते- आते अब आम आदमी बन गया।Ó नतीजा हुआ कि खेती गौण होने लगी और शहरीकरण को प्रोत्साहन मिलने लगा। अब समस्या हुई कि जमीन का अधिग्रहण कैसे हो? एक बार फिर किसान नीतियों का केंद्र विंदु बन गया। पश्चिम बंगाल में 2006 में सिंगुर वाली घटना हुई और इसने एक नये किस्म के राजनीतिक गठबंधन को तैयार कर दिया जिसने अंतत: 34 वर्ष पुराने वामपंथी शासन को उखाड़ फेंका। अब देश के अन्य भागों में सियासत का यही मॉडल आजमाया जा रहा है जिसमें महाराष्टï्र के जैतापुर, आंध्र के श्रीकाकुलम, उड़ीसा में पास्को और उत्तर प्रदेश में भट्टïा परसौल प्रमुख हैं। इन सभी स्थानों में किसानों की जमीनों के अधिग्रहण के विरोध में उग्र आंदोलन शुरू हो गये। सभी जगहों के किसान अपनी जमीन का ज्यादा दाम चाह रहे हैं या कुछ ऐसा चाह रहे हैं कि जमीनों की कीमतें बढ़ती हैं तो उन्हें भी इसका लाभ मिले। इस कारण अब भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर एक पाखंडपूर्ण विचार फैल रहा है। यहां यह बता देना जरूरी है कि 19 वीं सदी के शुरुआती दिनों में रेल लाइन बिछाने के लिये जमीन के बंदोबस्त के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण कानून बनाया गया था। इस नयी स्थिति के कारण एक नयी कृषि लॉबी बन गयी। भारत में अभी भी लगभग 60 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह खेती पर निर्भर हैं। इनमें से अधिकांश भूमिहीन किसान हैं या छोटे कृषक हैं। ये सब जमीन से बंधे हैं और इनके पास कोई विकल्प भी नहीं है। इसका परिणाम हुआ कि यहां भारी गरीबी है, कम मजदूरी की दर है और निम्न जीवनस्तर है। ऐसा नहीं कि इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता पर मुश्किल है कि शुरुआत में निवेश की ज्यादा जरूरत होती है जिसे लोग नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे में सड़कें बनाना ज्यादा किफायती लगता है। किसान की स्थिति आज भी राजनीति की बिसात पर मामूली पैदल की हैसियत जैसी है। महात्मा से लेकर ममता तक सबने अपनी सियासी जमीन को किसानों की उम्मीदों पर तैयार किया पर किसी ने भी एक सदी पहले महात्मा की कही बात पर ध्यान नहीं दिया कि 'राजनीति का किसानों के प्रति कुछ कत्र्तव्य है।Ó
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नयी शुरुआत
हरिराम पाण्डेय
2.06.2011
ख्वाहिशात को, ख्वाबों को, अरमानों को
रोकना पड़ता है उमड़े तूफानों को
काम नहीं आते जज्बात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में
बदलाव के वायदों और उन वायदों को पूरा करने के दरमियान उम्मीद की सुनहरी किरणें दिखायी पड़ रही हैं। परिवर्तन के कारक बनकर पश्चिम बंगाल की सत्ता में आयीं मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल के पहले ही कुछ दिनों में अपने मंसूबों का खुलासा कर दिया। सोमवार को उन्होंने नयी विधानसभा में जो कहा वह कई मायने में बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने नये अध्यक्ष से कहा कि वे विपक्ष को सत्ता पक्ष से ज्यादा महत्व और ज्यादा मौके दें। उनकी इस बात से अब तक की परिपाटी भंग होती नजर आ रही है। उन्होंने कहा कि वे पार्टी का शासन नहीं लोकतंत्र चाहती हैं। ऐसा कह कर ममता जी ने 'हमलोगोंÓ और 'उन लोगोंÓ के मध्य की दिवार को खत्म कर दिया। इस दिवार को पिछले सत्ताधीशों ने खड़ा किया था। उनके इस कथन से विधान सभा के वातावरण में खास किस्म का सद्भाव दिखायी पडऩे लगा। इसके पहले विपक्ष तनाव से भरा था पर मुख्यमंत्री के ऐसा कहते ही सबके चेहरों पर एक खास किस्म की आश्वस्ति दिखायी पडऩे लगी। विपक्ष के कई नेता तो मुख्यमंत्री के इस कथन पर हाथ मिलाने को उत्सुक दिखायी पड़े। विपक्ष के नेता सूर्य कांत मिश्र ने अपने भाषण में तो कह ही दिया कि 'विधानसभा की गरिमा विपक्ष से होती है और दरअसल लोकतंत्र में सदन विपक्ष का ही होता है। यह उनकी पार्टी ने अपने शासनकाल में भुला दिया था। Ó इस कथन के बहुत ज्यादा बड़े मतलब नहीं निकाले जा सकते हैं। इसका स्पष्टï मतलब होता है कि विपक्ष संसदीय राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और बिना विपक्ष के लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। विपक्ष के बिना लोकतंत्र का विचार व्यर्थ है। पश्चिम बंगाल के संदर्भ में विपक्ष का अलग मतलब है। यहां विपक्ष के सदस्यों की संख्या तुलनात्मक रूप में काफी कम है पर वह मतदाताओं के एक बड़े भाग का प्रतिनिधित्व करता है। अतएव उनकी बात सुनी जानी चाहिये। लोकतंत्र में विपक्ष ही मतभिन्नता का जायज उपकरण है। यहां जायज शब्द का अर्थ है कि विपक्षी सदस्य चूंकि सदन के निर्वाचित सदस्य हैं लिहाजा वे अपने कार्यों के लिये जनता के प्रति जवाबदेह हैं। लोकतंत्र सत्ता पक्ष और विपक्ष के संवाद से ही सार्थक स्वरूप ग्रहण करता है। वाममोर्चे के शासनकाल में विपक्ष सदन के भीतर और बाहर दोनों स्थानों पर निरर्थक था। ममता जी के भाषण और सूर्यकांत मिश्र के जवाब से ऐसा लगता है कि तीन दशक से ज्यादा अवधि तक जिस प्रक्रिया में व्यतिक्रम आ गया था उसकी नयी शुरुआत होने वाली है। लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। ममता जी की नीयत पर अविश्वास करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पर सत्तापक्ष और विपक्ष में कई ऐसे ततव हैं जो अपनी कथनी और करनी से पूरी प्रक्रिया को दिशाहारा बना सकते हैं। ऐसे खतरे विपक्ष से ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये सरकार को काफी संयम से कदम उठाना होगा। दूसरी बात कि सत्ता विचारों को और नीयत को भ्रष्टï करती है, यह साधारण मानवीय कमजोरी है। मेधावी लोगों के अभाव से ग्रस्त सत्तारूढ़ दल के बड़े नेताओं को अपने साथियों की इस कमजोरी के प्रति चौकस रहना होगा वरना एक छोटी सी भूल का सियासी लाभ उठाने में विपक्ष कोई कसर नहीं छोड़ेगा। अगर यह शुरू हो गया तो सारे आदर्श धरे के धरे रह जायेंगे।
दिन होता है अक्सर रात सियासत में
गूंगे कर लेते हैं बात सियासत में
सच्चाई के बड़े बड़े दावों वाले
बिक जाते हैं रातों रात सियासत में
और ही होते हैं हालात सियासत में
जायज होती है हर बात सियासत में
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Wednesday, June 1, 2011
भारत को भी पाक में घुसकर आतंकियों को मारना होगा
हरिराम पाण्डेय
1.06.2011
दो खबरें एक पाकिस्तान से और एक हिंदुस्तान से। दोनों देश आतंकवाद से पीडि़त हैं। पाकिस्तान से खबर है कि अमरीका ने फिर पाक में! घुसकर कार्रवाई की और पांच आतंकियों को उठा ले गया। भारत से खबर है कि नयी दिल्ली में भारत और जर्मनी ने आतंकवाद से मिलकर लडऩे का समझौता किया है। दानों खबरों में एक तथ्य गौर करने के काबिल है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई किसी के भरोसे या किसी के सहयोग से नहीं लड़ी जा सकती है। अपने में कुव्वत है तो घुसकर मारें वरना इधर- उधर रिरियाते फिरें। इस परिदृश्य में भारत की क्या भूमिका है? जो दुनिया में आतंकवाद से सबसे ज्यादा पीडि़त है और जहां पिछले 20 सालों में आई एस आई के एजेंटों द्वारा 80 हजार से अधिक भारतीयों की हत्या की जा चुकी है। उस देश को आतंकवाद के विरुद्ध सबसे अधिक सक्रिय और आक्रामक होना चाहिए था। लेकिन अमरीका वह कर रहा है जो भारत को करना चाहिए था। विडम्बना यह है कि जिस प्रकार की छद्म सेकुलर तथा वोट बैंक की राजनीति भारत में है उसे देखते हुए संदेह होता है कि सरकार कुछ कर पायेगी। जो सरकार संसद पर हमले के अपराधी अफजल तक को फांसी देने से कतरा रही है वह भारत पर हमला करने वाले आतंकवादियों को विदेश में ढूंढ़कर उन्हें खत्म करेगी, ऐसा क्या विश्वास किया जा सकता है?
अमरीका के पाकिस्तान में घुसकर हमले करने के बाद अब विश्व राजनीति के समीकरण तथा भारत की कूटनीति भी बदलेगी। यह समय है जब भारत को पाकिस्तान के प्रति सुनियोजित आक्रामकता के साथ आतंकवाद बढ़ाने में उसकी भूमिका के प्रति विश्व जनमत मजबूत बनाना होगा। पाकिस्तान दुनिया की सबसे बड़ी आतंकवादी फैक्ट्री बन गया है। उसके पास परमाणु बमों का जखीरा भी है। इसलिए भारत को तुरंत मांग करनी चाहिए कि अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देश पाकिस्तान के प्रति अपनी नीति बदलें और उसे अधिक डॉलर अनुदान देने के बजाय उसे आतंकवादी देश घोषित किया जाए।
विगत आठ वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को 18 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है। यह सहायता न केवल पाकिस्तान में भारत विरोधी तत्वों को मजबूत करने में इस्तेमाल हुई बल्कि इससे पाकिस्तान में एक ऐसे डॉलर पोषित वर्ग का निर्माण किया जो सेना समर्थक, सामंतशाही का प्रतिनिधित्व करता है और जिसकी पाकिस्तान के आम आदमी की तरक्की और खुशहाली और लोकतंत्र में कोई दिलचस्पी नहीं है। यही वर्ग एक ओर अमरीका से डॉलर प्राप्त करता है दूसरी ओर आतंकवादियों को भी प्रोत्साहन और संरक्षण देता है। इसलिए सबसे बड़ी जरूरत तुरंत पाकिस्तान के परमाणु हथियारों पर राष्टï्रसंघ का अमरीकी देख-रेख में नियंत्रण करवाने की जरूरत है। जब तक भारत और अमरीका मिलकर बराबर की साझेदारी में आतंवाद के विरुद्ध युद्ध को तार्किक परिणति तक नहीं ले जाते तब तक आतंकवाद का निर्मूलन संभव नहीं हो सकता। एक ओर अमरीका अपने पर हमला करने वालों को छावनी में घुसकर पाकिस्तान की इजाजत की परवाह किए बिना आतंकियों को मारकर दुनिया में वाहवाही लूटता है। दूसरी ओर वही अमरीका भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी आतंकवाद को नजरअंदाज करते हुए भारत पर दबाव बनाता है कि वह पाकिस्तान से शांतिवार्ता करे। आने वाले समय में पाकिस्तान के प्रति अमरीकी दृष्टिकोण में परिवर्तन की बहुत उम्मीद नहीं है। वैसे भी पाकिस्तान सम्प्रभुता सम्पन्न देश रह ही कहां गया है। उसे अमरीका का 53 वां राज्य माना जाता है। शेष प्रभाव चीन का है जिसकी फौजें गिलगित और बाल्टिस्तान तक में विभिन्न बहानों से उपस्थित हैं। इसलिए कोई साथ दे या न दे भारत को आतंकवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई अपने कंधों और अपनी शक्ति के बल पर ही लडऩे की तैयारी करनी होगी। ऐसी परिस्थिति में आतंकवाद के विरुद्ध एक सर्वदलीय राष्टï्रीय नीति बनाने की आवश्यकता है।
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पाकिस्तान को आतंकवाद से बढ़ता खतरा
हरिराम पाण्डेय
31.05.2011
पाकिस्तान में कुछ अज्ञात आतंकियों ने राष्टï्रपति के मुख्य सुरक्षा सलाहकार पर हमला किया। जवाबी फायरिंग के बाद हमलावर भाग गए, लेकिन उनकी गाड़ी से रॉकेट लांचर, हैंड ग्रेनेड वगैरह घातक हथियार बरामद हुए हैं।
पाकिस्तान में आतंकवादियों ने फिर एक बार सत्ता को खुलेआम चुनौती दी है। राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी के मुख्य सुरक्षा अधिकारी बिलाल शेख पर देर रात हमला हुआ। उनके सुरक्षाकर्मियों की जवाबी फायरिंग में हमलावर भाग गये, लेकिन अपने हथियार और कार छोड़ गये।
पाकिस्तान में अब भी जारी आतंकवाद को लेकर चिंता जताते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वहां के नेतृत्व से ''अब जाग जानेÓÓ का आह्वान किया और कहा है कि इस्लामाबाद अपनी भूमि से भारत के खिलाफ सक्रिय जेहादी समूहों पर रोक लगाये।
कराची हमले के संदर्भ में पाकिस्तान को भेजे गए एक संदेश में मनमोहन सिंह ने कहा है कि उसके नेतृत्व को यह समझना चाहिए कि आतंकवाद ने पड़ोसी देश को भी उतना ही आहत किया है, जितना भारत को किया है और उन्हें आतंकी गुटों के खिलाफ ज्यादा प्रभावी कार्रवाई करनी चाहिए। इस हमले के पहले वहां नौसैनिक अड्डïे पर भी आतंकियों ने हमला किया था। इन सबको देखकर ब्रेडफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. शुआन जार्जी की एक बात याद आती है कि यह सब 'परमाणु हमलेÓ की तैयारी है। पाकिस्तान के मेहरान नौसैनिक ठिकाने पर एक बड़े चरमपंथी हमले से संदेह पैदा होता है कि कहीं सैनिकों की तरह प्रशिक्षण प्राप्त हमलावरों को अंदर से मदद तो नहीं मिली हुई थी।
सवाल पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है क्योंकि मेहरान में चरमपंथियों पर काबू पाने में स्पेशल सर्विसेज ग्रुप-नेवी(एसएसजी-एन) को 15 घंटे लगे। याद रहे कि पाकिस्तान में एसएसजी-एन की हैसियत अमरीकी नौसेना के सील दस्ते जैसी है। इसलिए इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि मेहरान बेस पर कार्रवाई के दौरान कई घंटों तक एसएसजी-एन चरमपंथियों के सामने प्रभावहीन नजर आये। अब सवाल उठता है कि वे साधारण उग्रवादी थे या पाकिस्तान सेना के प्रशिक्षित कार्यरत या पूर्व सैनिक।
उनके हमले के बारे में मिली जानकारी से यह जाहिर होता है कि वे तालिबान तो बिल्कुल ही नहीं थे। पाकिस्तान में ये अपनी तरह का पहला हमला भले ही हो, ये आखिरी तो निश्चय ही नहीं होगा।
हमले की शुरुआत से ही साफ हो गया था कि हमलावरों को सैनिक ठिकाने के भीतर की स्थिति की विस्तृत जानकारी थी। पाकिस्तानी अखबारों में प्रकाशित रपटों के मुताबिक हमलावरों का हुलिया और उनकी चाल- ढाल सैनिकों जैसी थी। हमला जिस तेजी के साथ किया गया उस पर सैनिक अधिकारी हैरान हैं। ऐसा लगता है कि हमलावरों के लक्ष्यों में वे बैरक भी शामिल थे जिनमें चीनी इंजीनियर रह रहे थे। पाकिस्तानी अधिकारी इस बात से इनकार करते हैं कि हमला ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की प्रतिक्रिया में था। एक अधिकारी के अनुसार मेहरान के हमले की तैयारी में महीनों लगे होंगे और इसकी तुलना सिर्फ मुंबई हमलों से की जा सकती है। इससे साप जाहिर होता है कुछ हमलावर या तो कार्यरत या फिर सेवानिवृत्त सैनिक रहे होंगे। अगर यह आशंका सही है तो डर है कि पाकिस्तान के परमाणु संस्थान भी अछूते नहीं रहेंगे। उनपर ये आतंकी बने सैनिक तीन इरादों से हमला कर सकते हैं, पहला हो सकता है कि वहां हमले से आग लग जाय और चारों तरफ रेडियोधर्मिता के कारण हाहाकार मच जाय, दूसरा हो सकता है कि परमाणु हथियारों में विस्फोट कराने की गरज से हमला हो और इससे रेडियोधर्मिता के कारण चतुर्दिक विनाश होने लगे और तीसरा हो सकता है परमाणु हथियारों पर कब्जा करने की बात हो। किसी भी सूरत के लिये यह दुनिया के लिये खराब संकेत है। भारत को इस मामले को राष्टï्रसंघ में उठाना चाहिये।
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शिक्षा का क्षेत्र बंगाल के पुन: नवजागरण का जरिया
हरिराम पाण्डेय
30.5.2011
रविवार को कोलकाता विश्वविद्यालय में गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर और आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय पर माध्यमिक शिक्षक संघ ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसमें शरीक वक्ताओं में लगभग सभी शिक्षण कर्म से जुड़े थे। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात सामने आयी वह थी कि बंगाल सर्वदा से प्रतिभा का धनी रहा है और इस समाज में विगत शताब्दियों से अब तक प्रतिभा का अभाव नहीं रहा। इस आयोजन के कुछ ही घंटों के बाद मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने राज्य को आर्थिक दुरवस्था से निकालने के लिये केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से मुलाकात की। जैसा कि होता है केंद्र ने हर संभव मदद का आश्वासन दिया। लेकिन यह मदद कब तक मिलेगी और कितनी बार मांगी जायेगी। राज्य को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाने का उपक्रम तो करना ही पड़ेगा। तो क्यों नहीं राज्य के नेता यहां की प्रतिभा का इस्तेमाल कर इसे शिक्षा का मक्का बनाने का प्रयास करते। कला, विज्ञान और साहित्य में अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिये बंगाली देश भर में मशहूर रहे हैं। अब हालात कुछ ऐसे बने कि विगत सात दशकों से बंगाल अपनी समृद्धि खो बैठा। उसके कारणों की पड़ताल करना यहां मकसद नहीं है, यहां इरादा है कि बंगाली प्रतिभा को उसकी क्षमताओं का स्मरण दिलाना। अर्थ व्यवस्था के चार बड़े क्षेत्र हैं जिनमें एक कृषि में बंगाल ने बहुत अच्छा किया है। जहां तक औद्योगिक उत्पादन का क्षेत्र है उसमें पूंजी बहुत लगती है और उसके लिये उपयुक्त ढांचा भी जरूरी है। यह अत्यंत जटिल स्थिति है। अब विगत वर्षों के 'लाल सलामÓ को देखते हुए पूंजी को यहां लाना बड़ा कठिन कार्य है। यही नहीं हिंदू उद्योगपति खुल कर तो नहीं बोलते पर यहां देसी और विदेशी मुसलमानों की बाढ़ से सब भीतर ही भीतर चिंतित हैं और इसलिये पूंजी निवेश से हिचक रहे हैं। जहां तक यहां के हिंदू बंगाली समुदाय का सवाल है उसकी निगाह में बंगाल पहले है और धर्म बाद में। कोलकाता या बंगाल का हिंदू न तो 1946 का कत्ल- ए- आम भूला है और ना ही उसे बंगलादेश से हिंदुओं को खदेड़े जाने की परवाह है। उसके लिये बंगाल सबसे महत्वपूर्ण है। अब बच गया तीसरा क्षेत्र। वह है सेवा क्षेत्र। यहां बंगाली नौजवान खुद को प्रमाणित कर सकते हैं और करते भी हैं। लेकिन इनमें जो सबसे ज्यादा कारगर क्षेत्र है वह है इन्फारमेशन टेक्नोलॉजी का। इसमें दक्षिण भारतीय नौजवानों ने खुद को स्थापित कर लिया है। अब इसके बाद जरूरी है कि नौजवान यह स्वीकार करें कि पढ़ाना यानी शिक्षण सबसे कारगर आर्थिक क्षेत्र है। यह केवल समाज सेवा ही नहीं बल्कि एक बेहतर आर्थिक गतिविधि भी है। सब समझते हैं कि व्यक्तिगत विकास के लिये पढऩा जरूरी है। देश में कहीं भी बेहतर शिक्षण सुविधाएं नहीं हैं , सब जगह यहां तक कि बंगलादेश और नेपाल में भी अच्छी और विश्वसनीय शिक्षण संस्थाओं का अभाव है। क्यों नहीं यहां सरकार निजी अस्पतालों के संचालकों को प्रोत्साहित करे कि वे मेडिकल कॉलेज खोलें और निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना करें। यहां वकीलों और बैरिस्टरों की तंगी नहीं है पर बमुश्किल कोई राष्टï्रीय स्तरीय लॉ कालेज है। यही नहीं कृषि विश्वविद्यालय और कृषि संस्थान नगण्य हैं। स्कूल कॉलेज को विकसित करना सरल है और इसमें जो सबसे सहज है वह कि शुरू होते ही आमदनी भी शुरू हो जायेगी और यह कार्य यहां बंगाली भावनात्मकता के अनुरूप भी है। यह बंगाल के आर्थिक विकास के लिये मुफीद भी होगा। ... र्और इसे बंगाल का पुनर्नवजागरण भी कहा जा सकता है।
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ममता जी के लिये सबसे बड़ी चुनौती
हरिराम पाण्डेय
29.05.2011
पश्चिम बंगाल या यों कहें कि बंगाल को कभी इतिहास और अध्यात्म की धरती से संबोधित किया जाता था। इसकी विरासतों से भरी तहजीब भी सर्वथा से अपने आप में एक उदाहरण रही है। लेकिन आज वही विभ्रम के बवंडर में फंसी हुई है और खुद को कोस रही है। एक जमाने में कहावत थी कि जो बंगाल आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता है। यानी मेधा के मामले में बंगाल सबसे आगे हुआ करता था। रोजगार और कल- कारखानों में अगुआ बंगाल अन्य प्रांतों के प्रवासी मजदूरों की कथाओं का नायक रहा है। आज खुद विपदगाथा का केंद्र बन गया है। कभी यह राज अपने आचरण और बड़प्पन के लिये देश में विख्यात था। लेकिन अब वही बंगाली भद्रलोगों का समाज मनोवैज्ञानिक रूप में छीज गया सा दिख रहा है। आज वह एक ऐसे विषम मोड़ पर खड़ा है जहां से आगे बढऩे में उसे भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। मानवीय सहिष्णुता प्राय: खत्म हो गयी है ममता जी के बंगाल के लिये यह सबसे बड़ी चुनौती है। साढ़े तीन दशक के माक्र्सवादी शासन ने उम्मीदों की मंजिलों के सपने दिखा कर इंसानी सोच और आंतरिक निर्णय की धार को कुंद कर दिया है जिससे उसमें आक्रामकता बढ़ गयी है। आज जरूरत है एक आक्रामक उम्मीदों से लालायित समाज को सहिष्णु और संगतिपूर्ण समाज में बदलने की। यह सरल काम नहीं है। इसके रास्ते में अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, पूंजी निवेश और ढांचागत विकास इत्यादि बड़े अवरोधक हैं जो किसी भी प्रकार के विकास की गति को तेज नहीं होने देंगे। हालात जब बहुत बिगड़े तो यहां से प्रतिभा का तीव्र पलायन हुआ और अब कोई यहां आना नहीं चाहता। पहल और प्रतिबद्धता का भीषण अभाव हो गया। पहले जो सियासी हालात थे वे लोगों को व्यर्थ जुझारूपन से उन्मादित रखने की चेष्टïा में रहते थे। 'लड़ाई - लड़ाई Ó जैसे नारों से उन्मत समाज को आजादी के जुझारू नेताओं से जोड़ कर झूठे भुलावे में रखता था। बंगाल की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे अपने विगत काल प्रस्थान विंदुओं से आगे बढ़ कर नये मीलों को तय करना है और इस तरह के लचीलेपन का उसमें भारी अभाव है। ममता जी को इस नयी स्थिति से निपटना होगा। ममता जी को अपने दिखावों से ऊपर उठ कर काम करना होगा और बंगाल की आबादी को घोर निराशा से बाहर निकालना होगा। विकास की तरफ बहुत तेज कदम बढ़ाने के अपने खतरे भी हैं। पड़ोसी राज्यों से श्रमिकों की बाढ़ आयेगी और इससे जातीय और सामुदायिक विवाद पैदा होगा। बंगाल को अपने मुख्य मंत्रियों से बड़े प्रतिगामी रिश्ते रहे हैं। प्रफुल्ल बाबू आये तो उन्हें भीषण अकाल का सामना करना पड़ा और उन्होंने चावल मिलों पर भारी लेवी लगा दी तथा शहरी क्षेत्रों में भीषण राशनिंग कर दी, नतीजा उल्टा हो गया। उनका यह कदम सियासी तौर पर आत्मघाती सिद्ध हुआ। उनका नाम प्रफुल्ल था पर पूरे राज्य में प्रफुल्लता नहीं थी। उनका कार्यकाल सियासी तौर पर आत्मघाती सिद्ध हुआ। उनके बाद अजय मुखर्जी आये लेकिन अपने नाम के अनुरूप कभी अजेय नहीं रहे। उनके बाद सिद्धार्थ शंकर आये और पूरा शासनकाल नक्सल आंदोलन से जूझते हुए निकल गया। ज्योति बसु आये। ज्योति मतलब रोशनी पर उनका कार्यकाल बिजली के अभाव के लिये ख्यात रहा। तब आये बुद्धदेव। बुद्ध की तरह उनमें आत्म ज्ञान नहीं था और पूरा कार्यकाल अपने विरोधियों से लड़ते हुए गुजार दिया उन्होंने। बंगाल में सबसे पहले जरूरत है सामाजिक आचरण में परिवर्तन की। ताकि वह सकारात्मक सोच सके और दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल सके। ममता का अर्थ होता है स्नेह , प्रेम। लेकिन उन्होंने जब सत्ता संभाली है तो राज्य तथा समाज में असहिष्णुता एवं आक्रोश की प्रचुरता है। इस प्रवृत्ति को बदलना ममता जी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है या उनका सबसे बड़ा कार्य है। इससे बेवजह की यूनियनबाजी और अन्य प्रांतों के श्रमिकों के प्रति ईष्र्या का भाव घटेगा।
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हेडली के बयानों के बाद भारत के पास विकल्प
हरिराम पाण्डेय
27.05.2011
शिकागो की एक अदालत में लश्कर-ए- तायबा के शिकागो सेल के डेविड हेडली का तहव्वुर राना के मामले में बयान को भारत और कनाडा में काफी तरजीह दी गयी। पाकिस्तान में उस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। पाकिस्तान में अगर उस पर बातें भी हुईं तो केवल गवाह की हैसियत से वह कितना सही है, इसी पर बातें हुईं। राना के वकील ने हेडली की विश्वसनीयता पर संदेह उठाया और कहा कि चूंकि हेडली नारकोटिक्स का तस्कर है और धन के मामले में विश्वसनीय नहीं है इसलिये उसकी गवाही सच नहीं कही जा सकती है। पाकिस्तान में अखबारों ने इसी मुद्दे को काफी उछाला। अब यह नहीं कहा जा सकता है कि डेनमार्क के अखबारों में क्या छपा है। राना पर दो आरोप हैं। पहला मुम्बई हमले के लिये माल इत्यादि सप्लाई करने का और दूसरा डेनमार्क में विस्फोट की साजिश का। हालांकि यह साजिश नाकाम हो गयी थी। राना पर आरोप है कि उसने हेडली के लिये मुम्बई आने का टिकट खरीदा था और उसे अपनी फर्म राना इमिग्रेशन कंसल्टेंसी का मुलाजिम बता कर उसके लिये मुम्बई में दफ्तर खोलने की सहूलियत मुहय्या करायी थी ताकि वह आई आई एस आई के लिये उचित सूचना एकत्र कर सके और लश्कर को हमले के लिये तैयार कर सके। हेडली की गवाही और उसे बल देने वाले सबूतों पर राना के मुकदमे पर निर्णय के समय अदालत यकीनन विचार करेगी। उधर फेडरल ब्यूरो ने यह बंदोबस्त किया हुआ है कि जब हेडली के खिलाफ मुकदमे की सुनवायी शुरू हो तो वह सहयोग करे। वैसे भी इस मामले में न राना मुख्य आरोपी है और ना हेडली। मुख्य आरोपी हैं साजिद मीर, अबू काहफा, मेजर इकबाल,मेजर अब्दुल रहमान हाशिम और सैयद उर्फ पाशा। ये सभी पाकिस्तान में रह रहे हैं और अमरीका सरकार अथवा एफ बी आई ने ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की या पाकिस्तान पर दबाव डाला है कि बे इन्हें एफ बी आई को सौंप दे ताकि राना या हेडली के साथ उनपर भी मुकदमा चलाया जा सके। इतना ही नहीं वहां इन्हें सह अभियुक्त बनाया गया है। पूरे मामले का बारीकी से विश्लेषण करने से कुछ बड़े दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं। जैसे कि हेडली को प्रोत्साहित किया गया है कि वह लश्कर तथा राना के रिश्तों की पोल खोले। कुछ भी ना छिपाये। उसका यह उद्देश्य था कि भारत को खुश किया जा सके। इसी के साथ उसने पाकिस्तान पर भी कोई दबाव नहीं दिया कि वह उन अभियुक्तों को सौंप दे ताकि वह शर्मसार होने से बच जाय। इस मामले में अमरीका की भूमिका संदेहास्पद है। इसलिये भारत को उसका मुंह जोहना छोड़ कर राष्टï्र संघ सुरक्षा परिषद का दरवाजा खटखटाना चाहिये। उसे राष्टï्रसंघ सुरक्षा परिषद के संकल्प 1373 के तहत गठित आतंकवाद मॉनिटरिंग समिति में मांग करनी चाहिये कि वह आई एस आई पर कार्रवाई करे। क्योंकि यह उस संकल्प का सरासर उल्लंघन है। हो सकता है कि चीन के वीटो के कारण राष्टï्रसंघ में मामला चले नहीं। लेकिन भारत को अपनी कोशिश नहीं छोडऩी चाहिये। भारत को सभी सबूत पेश कर यह दबाव बनाना चाहिये कि अमरीका आई एस आई पर उसी तरह का एक्शन ले जिस तरह 1988 में पैन अमरीकन विमान पर लीबियाई खुफिया संगठन की कार्रवाई के खिलाफ लिया था। अगर भारत यह मौका चूकता है तो पाकिस्तान उसे 'साफ्ट स्टेटÓ मानेगा और हर दो- चार साल के बाद हमारी धरती पर धमाके होंगे और निर्दोष भारतीयों का खून बहेगा।
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जरूरी है काम करता हुआ दिखना
हरिराम पाण्डेय
26.05.2011
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गये और नयी सरकारों ने अपना काम करना भी शुरू कर दिया। अब सरकारों के भविष्य पर तरह- तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है वह एक बायोलॉजिकल फिनोमिना है और उसके प्रभाव देश तथा काल सापेक्ष होते हैं। यहां इरादा इस नयी सियासी स्थिति के विश्लेषण का नहीं है बल्कि कार्य और कारण सम्बंधों को जानने का प्रयास है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सरकारें गिरीं और विपक्ष बहुमत के साथ सत्ता में आया। क्या 2जी घोटाला डीएमके के पतन का कारण था या उनकी उपहार बांटने की योजना कारगर नहीं हुई? शायद हम ठीक-ठीक कारण कभी न जान पाएं। इसी तरह शायद हम यह भी कभी न जान पाएं कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत की वजह सिंगुर थी या वाम सरकारों का दुष्प्रबंधन या मतदाताओं में बदलाव की चाह। लेकिन एक बात साफ है कि देश में लगातार दृढ़ और आक्रामक राजनेताओं का उदय हो रहा है। शानदार जीत के बाद सत्ता में आने वाले कई मुख्यमंत्री हैं, जैसे नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार , जय ललिता, मायावती, ममता बनर्जी इत्यादि। इन राजनेताओं का अपना दृष्टिकोण है और अपना दर्शन है।
ये नए नेता परंपरागत घिसे-पिटे नेताओं से अलग हैं।, ये अक्सर चुप रहते थे और जब बोलते थे उसके कई कूटनीतिक, राजनीतिक मायने होते थे। इससे कई बार मूल मुद्दा ही गायब हो जाता था। यह परिपाटी कांग्रेस से शुरू हुई थी, वह अब भी निभा रही है। लेकिन आज का नेता बेबाक होना चाहिये। यही भारतीय मतदाताओं की आकांक्षा है। इन नये नेताओं का बेबाकपन ही उनकी विजय का कारण है।
मौनी बाबा नेताओं में पीवी नरसिंहराव बेजोड़ उदाहरण हैं। हालांकि उन्होंने बड़े नाजुक दौर में देश को चलाया पर उनके कार्यकाल में उनकी आवाज कभी कभार ही सुनाई दी थी। किसी को उनकी आवाज तक याद नहीं है। उनके बाद सोनिया गांधी ने भी चुप रहकर और संजीदगी के साथ प्रधानमंत्री पद ठुकराकर अपनी एक खास छवि निर्मित की। राहुल गांधी भी कम ही बोलते हैं। प्रधानमंत्री जी के बारे में! तो कुछ कहना ही नहीं। न बोलो, न रियेक्ट करो, न सफाई दो। यानी ऐसा कुछ भी ना करो जिससे लगे कि उनका अपना कोई सोच भी है। हो सकता है या कहें कि यकीनन यह नीति कारगर थी पर अब नहीं है।
पाठकों ने देखा होगा इस बार जितने भी नेता जीत कर आये किसी ने कोई डिप्लोमेसी नहीं की, चिकनी-चुपड़ी बातें नहीं की , नर्भ-नाजुक बयान नहीं दिये। लोग यह रवैया पसंद करते हैं, खासतौर पर हमारी नौजवान पीढ़ी। ममता जी ने अपनी जीत को बंगाल की दूसरी आजादी बताया। जया ने जीतने पर कहा कि डीएमके ने तमिलनाडु को पूरी तरह बरबाद कर डाला था। अन्ना हजारे ने भी जब दृढ़ता से यह कहा था कि 'मेरे मंच पर राजनेताओं के लिए कोई जगह नहीं हैÓ तो करोड़ों लोग उनके प्रशंसक हो गये थे।
यह 2011 का भारत है। अब खामोशी को गरिमा या ऊंचे ओहदे का प्रतीक नहीं माना जाता। इसका कारण है आज राजनेताओं की विश्वसनीयता में गिरावट का आना। उनकी खामोशी को लोग नाकारापन या टालमटोल का मान लेते हैं। लोग सरकारों की अविश्वसनीयता से तंग आ चुके हैं। लोग दबंग, आक्रामक और आत्मविश्वास से भरपूर नेताओं को पसंद करने लगे हैं। इस तरह के बदलाव होते हैं। भारतीय किसी बेबाक राजनेता को मौका देना पसंद करते हैं। यह सामाजिक परिवर्तन राजनीतिक दलों के लिए एक सबक है। सबसे जरूरी बात यह कि उसे विभिन्न मसलों पर लोगों से बात करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। वे भले ही बेबुनियाद खबरों पर टिप्पणी न करें, लेकिन आमजन के जीवन से जुड़े अहम मसलों पर उनकी सक्रियता दिखनी चाहिए। ममता जी का खुली सड़क पर पैदल आना, अस्पताल में जाकर रोगियों से मिलना और ट्राफिक को अपने काफिले के चलते रोकने नहीं देना भले ही आज अजीब लग रहा है पर इससे आमजन को लगता है कि उनकी सरकार उनके बीच की है। अब इस तरह के बयानों से काम नहीं चलेगा कि 'हम मामले की जांच कर रहे हैं और जल्द से जल्द उचित कार्रवाई करेंगे।Ó दोटूक बात करें, मुद्दे की बात करें, आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते, इसे लेकर एक ईमानदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करें आज जरूरत इसी की है। देश के लोग अब आक्रामक नेता चाहते हैं।
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