1 अक्टूबर
मोदी सरकार की इस अवधि की उम्र एक चौथाई पार हो चुकी है। सरकार के अगुवा नरेंद्र मोदी ढेर सारे सुधारों का वादा कर के सत्ता में आये। उन्होंने सीना तान कर कहा कि जो सुधार कांग्रेस नहीं वह वे करेंगे। यहां सवाल उठता है कि क्या 15 महीनों के अपने शासन काल में उन्होंने ऐसा कुछ किया? बेशक कांगेस ने बहुत थोड़े से वायदे किये थे और बहुत थोड़ा किया। पर भाजपा ने तो कुछ नहीं किया। मसलन कांग्रेस ने ढांचागत सुधार किया, निजीकरण के गति दी। पर इसने ऐसा कुछ नहीं किया। कांग्रेस के पास तो अतीत की बाध्यताएं और वाद का बोझ था पर भाजपा के कंधे पर तो ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन भाजप का शोर घनघोर था पर किया क्या इसने?1947 के बाद गांधी चाहते थे कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाय। क्योंकि इसका उद्देश्य देश को आजाद कराना था जो पूरा हो गया। हां एक बात थी कि गांधी उस दौर के कांग्रेस के सर्वमान्य नेता थे। जिसने उनका विरोध किया वह ठीक से काम नहीं कर सका। लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस कायम रही और इसने उसके आदर्शों के साथ दगा किया। कांग्रेस इंदिरा गांधी की पार्टी बन गयी- कांग्रेस (आई)। नेहरू ने लोकतंत्र के पहिये में छेद कर दिया। सारे ढांचे, अवस्थापनाएं और संस्थाएं सरकार के तहत ले आये। इस्पात बनाने वाले कारखाने का प्रमुख आई ए एस अफसर बन गये। लिहाजा बदइंतजामी बढ़ती गयी। खामियाजा भुगतना पड़ा नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को। जीप घोटाले से लेकर कोल घोटाले तक में कांग्रेसी शामिल पाये गये। कश्मीर पर जनमत संग्रह के अव्यवहारिक वादे ने पड़ोस में स्थई मुश्किल खड़ी कर दी। चीन से रिश्ते के गलत आकलन ने देश को जंग की आग में झोंक दिया। लेकिन इन सबके बावजूद नेहरू को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिये कि वे विविधता में एकता को कायम रख देश को अखंडित बनाये रखा। 1947 के तुरत बाद देश की अर्थ व्यवस्था कृषि आधारित थी। हिंदू विकास दर , जो लगभग 3 प्रतिशत थी, उसे बढ़ाना था ताकि रोजगार के अवसर बढ़ें और खुशहाली आये। लेकिन प्रधानमंत्री बदलते गये और कमोबेश हालात भी थोड़े बहुत बदले। अब तक के काल के सबसे ज्यादा उम्मीद जगाने वाले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काे राष्ट्र ने इस उम्मीद से स्वीकार किया कि वे तेज और खुशनुमा बदलाव लायेंगे। उनसे उम्मीद की गयी कि वे अटल बिहारी वाजपेयी के आर्थिक दर्शन को मूर्तिमान करेंगे। वाजपेयी का आर्थिक दर्शन था कि स्पष्ट बाजारोन्मुखी व्यवस्था, सक्रिय मंत्रालय , शासकीय जवाबदेही, न्यायिक सुधार, अर्थ व्यवस्था में अघो्रशत धन की बाढ़ पर लगाम , श्रमिक कानून सुधार, उद्योगों के लिये जमीन की सरलता से उपलब्धता, अफसरशाही में गति, इंस्पेक्टर राज का खात्मा और सरकारी कोष में घोटाला को राका जाना इत्यादि।अपने शासन की इस अवधि मोदी जी वह कुछ नहीं कर सके जिसका वाजपेयी और खुद इन्होंने वादा किया था।इसके अलावा यह कांग्रेस के काम के ढर्रे को बदल पाने में भी अक्षम दिखायी पड़ती है। 15महीने बाद भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने को लेकर सरकार उम्मीदें ही जाहिर कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि इन उम्मीदों से आगे क्या हुआ? इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से आर्थिक माहौल बदला है। देशी-विदेशी निवेशकों में फीलगुड की वापसी हुई है। नतीजा यह कि शेयर बाजार ने ऊँची छलांग लगाई है। यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम और दूसरे जिंसों की कीमतों में भारी गिरावट के कारण थोक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट आई है। जैसाकि आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि यह नई सरकार की नीतियों और पहलकदमियों से ज्यादा उसके 'अच्छे सितारों' का कमाल है। लेकिन 'बुरे सितारे' भी आसपास ही हैं और अगर सरकार सतर्क नहीं रही तो वे भारतीय अर्थव्यवस्था को कभी भी अपने चपेट में ले सकते हैं। इस चेतावनी में दम है क्योंकि गुलाबी आर्थिक अखबारों में सरकार की 'धीमी रफ़्तार' से भारतीय उद्योग जगत (इंडिया इंक) में 'निराश बढ़ने' की खबरें छपने लगी हैं। यह नकारात्मक वृद्धि दर इसलिए चौंकानेवाली है क्योंकि अक्टूबर का महीना त्योहारों और खरीददारी का होता है। बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है। कुछ दिनों पहले एक उपभोक्ता सामान बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के शोरूम में उसके मालिक को अपने किसी परिचित से यह कहते सुना कि मार्केट बहुत खराब है। लगता है शोरूम बंद करना पड़ेगा। कुछ ऐसे ही हालात शॉपिंग माल्स में हैं जिसके मैनेजर यह शिकायत करते मिल जाएंगे कि लोग घूमने तो आ रहे हैं लेकिन खरीददारों की तादाद कम है।
ऐसे में, अब क्या रास्ता बचा है? वित्त मंत्रालय की समीक्षा में इसका संकेत था लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वह प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के आर्थिक दर्शन और सोच से उलट है। समीक्षा में यह वकालत की गई है कि एनडीए सरकार को अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सार्वजनिक यानी सरकारी निवेश में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए और इसके लिए राजकोषीय घाटे के बढ़ने की चिंता कुछ समय के लिए छोड़ देनी चाहिए।इस हालात को नए और बड़े निवेश के बगैर खत्म नहीं जा सकता है। इसे मोदी सरकार भी समझती है लेकिन वह 'मिनिमम गवर्नमेंट' की नव उदारवादी सोचवाली है जो मानती है कि अर्थव्यवस्था में राज्य की सीधी भूमिका नहीं होनी चाहिए और उसे केवल निजी क्षेत्र के लिए उपयुक्त माहौल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। इससे अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढती जा रही हैं और 'अच्छे दिन' उम्मीदों के भरोसे हैं। मोदी सरकार को सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सेवाओं में भी भारी सार्वजनिक निवेश की पहल करनी चाहिए। इससे निजी क्षेत्र को भी सहारा और नए निवेश की प्रेरणा मिलेगी क्योंकि सार्वजनिक निवेश से औद्योगिक वस्तुओं की मांग बढ़ेगी। इससे ही अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन लौटेंगे और लोगों को भी अच्छे दिन का अहसास होगा।लेकिन सवाल यह है कि मोदी सरकार बाजारवादी नव उदारवादी अर्थनीति के व्यामोह से बाहर निकलने का साहस दिखा पाएगी?
मोदी सरकार की इस अवधि की उम्र एक चौथाई पार हो चुकी है। सरकार के अगुवा नरेंद्र मोदी ढेर सारे सुधारों का वादा कर के सत्ता में आये। उन्होंने सीना तान कर कहा कि जो सुधार कांग्रेस नहीं वह वे करेंगे। यहां सवाल उठता है कि क्या 15 महीनों के अपने शासन काल में उन्होंने ऐसा कुछ किया? बेशक कांगेस ने बहुत थोड़े से वायदे किये थे और बहुत थोड़ा किया। पर भाजपा ने तो कुछ नहीं किया। मसलन कांग्रेस ने ढांचागत सुधार किया, निजीकरण के गति दी। पर इसने ऐसा कुछ नहीं किया। कांग्रेस के पास तो अतीत की बाध्यताएं और वाद का बोझ था पर भाजपा के कंधे पर तो ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन भाजप का शोर घनघोर था पर किया क्या इसने?1947 के बाद गांधी चाहते थे कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाय। क्योंकि इसका उद्देश्य देश को आजाद कराना था जो पूरा हो गया। हां एक बात थी कि गांधी उस दौर के कांग्रेस के सर्वमान्य नेता थे। जिसने उनका विरोध किया वह ठीक से काम नहीं कर सका। लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस कायम रही और इसने उसके आदर्शों के साथ दगा किया। कांग्रेस इंदिरा गांधी की पार्टी बन गयी- कांग्रेस (आई)। नेहरू ने लोकतंत्र के पहिये में छेद कर दिया। सारे ढांचे, अवस्थापनाएं और संस्थाएं सरकार के तहत ले आये। इस्पात बनाने वाले कारखाने का प्रमुख आई ए एस अफसर बन गये। लिहाजा बदइंतजामी बढ़ती गयी। खामियाजा भुगतना पड़ा नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को। जीप घोटाले से लेकर कोल घोटाले तक में कांग्रेसी शामिल पाये गये। कश्मीर पर जनमत संग्रह के अव्यवहारिक वादे ने पड़ोस में स्थई मुश्किल खड़ी कर दी। चीन से रिश्ते के गलत आकलन ने देश को जंग की आग में झोंक दिया। लेकिन इन सबके बावजूद नेहरू को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिये कि वे विविधता में एकता को कायम रख देश को अखंडित बनाये रखा। 1947 के तुरत बाद देश की अर्थ व्यवस्था कृषि आधारित थी। हिंदू विकास दर , जो लगभग 3 प्रतिशत थी, उसे बढ़ाना था ताकि रोजगार के अवसर बढ़ें और खुशहाली आये। लेकिन प्रधानमंत्री बदलते गये और कमोबेश हालात भी थोड़े बहुत बदले। अब तक के काल के सबसे ज्यादा उम्मीद जगाने वाले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काे राष्ट्र ने इस उम्मीद से स्वीकार किया कि वे तेज और खुशनुमा बदलाव लायेंगे। उनसे उम्मीद की गयी कि वे अटल बिहारी वाजपेयी के आर्थिक दर्शन को मूर्तिमान करेंगे। वाजपेयी का आर्थिक दर्शन था कि स्पष्ट बाजारोन्मुखी व्यवस्था, सक्रिय मंत्रालय , शासकीय जवाबदेही, न्यायिक सुधार, अर्थ व्यवस्था में अघो्रशत धन की बाढ़ पर लगाम , श्रमिक कानून सुधार, उद्योगों के लिये जमीन की सरलता से उपलब्धता, अफसरशाही में गति, इंस्पेक्टर राज का खात्मा और सरकारी कोष में घोटाला को राका जाना इत्यादि।अपने शासन की इस अवधि मोदी जी वह कुछ नहीं कर सके जिसका वाजपेयी और खुद इन्होंने वादा किया था।इसके अलावा यह कांग्रेस के काम के ढर्रे को बदल पाने में भी अक्षम दिखायी पड़ती है। 15महीने बाद भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने को लेकर सरकार उम्मीदें ही जाहिर कर रही है। लेकिन सवाल यह है कि इन उम्मीदों से आगे क्या हुआ? इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से आर्थिक माहौल बदला है। देशी-विदेशी निवेशकों में फीलगुड की वापसी हुई है। नतीजा यह कि शेयर बाजार ने ऊँची छलांग लगाई है। यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम और दूसरे जिंसों की कीमतों में भारी गिरावट के कारण थोक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट आई है। जैसाकि आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि यह नई सरकार की नीतियों और पहलकदमियों से ज्यादा उसके 'अच्छे सितारों' का कमाल है। लेकिन 'बुरे सितारे' भी आसपास ही हैं और अगर सरकार सतर्क नहीं रही तो वे भारतीय अर्थव्यवस्था को कभी भी अपने चपेट में ले सकते हैं। इस चेतावनी में दम है क्योंकि गुलाबी आर्थिक अखबारों में सरकार की 'धीमी रफ़्तार' से भारतीय उद्योग जगत (इंडिया इंक) में 'निराश बढ़ने' की खबरें छपने लगी हैं। यह नकारात्मक वृद्धि दर इसलिए चौंकानेवाली है क्योंकि अक्टूबर का महीना त्योहारों और खरीददारी का होता है। बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है। कुछ दिनों पहले एक उपभोक्ता सामान बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के शोरूम में उसके मालिक को अपने किसी परिचित से यह कहते सुना कि मार्केट बहुत खराब है। लगता है शोरूम बंद करना पड़ेगा। कुछ ऐसे ही हालात शॉपिंग माल्स में हैं जिसके मैनेजर यह शिकायत करते मिल जाएंगे कि लोग घूमने तो आ रहे हैं लेकिन खरीददारों की तादाद कम है।
ऐसे में, अब क्या रास्ता बचा है? वित्त मंत्रालय की समीक्षा में इसका संकेत था लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वह प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के आर्थिक दर्शन और सोच से उलट है। समीक्षा में यह वकालत की गई है कि एनडीए सरकार को अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सार्वजनिक यानी सरकारी निवेश में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए और इसके लिए राजकोषीय घाटे के बढ़ने की चिंता कुछ समय के लिए छोड़ देनी चाहिए।इस हालात को नए और बड़े निवेश के बगैर खत्म नहीं जा सकता है। इसे मोदी सरकार भी समझती है लेकिन वह 'मिनिमम गवर्नमेंट' की नव उदारवादी सोचवाली है जो मानती है कि अर्थव्यवस्था में राज्य की सीधी भूमिका नहीं होनी चाहिए और उसे केवल निजी क्षेत्र के लिए उपयुक्त माहौल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। इससे अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढती जा रही हैं और 'अच्छे दिन' उम्मीदों के भरोसे हैं। मोदी सरकार को सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सेवाओं में भी भारी सार्वजनिक निवेश की पहल करनी चाहिए। इससे निजी क्षेत्र को भी सहारा और नए निवेश की प्रेरणा मिलेगी क्योंकि सार्वजनिक निवेश से औद्योगिक वस्तुओं की मांग बढ़ेगी। इससे ही अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन लौटेंगे और लोगों को भी अच्छे दिन का अहसास होगा।लेकिन सवाल यह है कि मोदी सरकार बाजारवादी नव उदारवादी अर्थनीति के व्यामोह से बाहर निकलने का साहस दिखा पाएगी?
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