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Tuesday, October 20, 2015

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं



19 अक्टूबर

सुप्रीम कोर्ट ने एन जे ए सी को अवैधानिक करार देकर एक नयी बहस छेड़ दी है। कहा जा रहा है कि ऐसा करने से अदालतों में जजों का अभाव कायम रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में ढेर सारी दलीलें सामने आ रही हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि आई ए एस , आई पी एस इत्यादि के तर्ज पर जजों का भी एक कैडर बनाने पर सोचना जरूरी है। जबकि कुछ लोगों का मानना है कि इससे राजनीतिक हस्तक्षेप को बल मिलेगा। इस बहसों क़े अलग आम भारतीय केवल यह जानता है कि जज कौन बने, यह जज ही सबसे अच्छा समझते हैं। सरकार को न्यायपालिका से दूर ही रहना चाहिए। पर, देश के साधारण नागरिकों को इससे कोई मतलब नहीं है कि जजों को कौन बनायेगा। वह तो न्यायपालिका में गहरी आस्था रखता है। लोकतंत्र के तीनों संवैधानिक स्तंभों में से उसे आज भी सर्वोच्च भरोसा न्यायालय पर ही है कि न्यायालय उसे सही, वाजिब अधिकार दिलाएंगे। वह अदालत की ओर आशा से देखता है। वह सरकारों से त्रस्त है। विधायिका की उपयोगिता से अनजान है। केंद्र सरकार ने जजों के कोलेजियम सिस्टम के स्थान पर नयी व्यवस्था को अपनाने के लिए जिस तरह से यह मामला कोर्ट के हाथों से निकाल कर उसमें राजनेताओं के दखल की पृष्ठभूमि तैयार की थी उसके चलते ही न्यायिक सक्रियता के कारण समस्याएं झेल रहे लगभग सभी राजनीतिक दलों ने उसका भरपूर समर्थन किया था और वह कानून भी बन गया था पर अब वह पूरी प्रक्रिया ही निरस्त हो चुकी है और उससे बचने के लिए अब सरकार के पास सीमित विकल्प ही बचे हुए हैं। इस पूरी व्यवस्था को सुधारने के सरकार के प्रयास को सुप्रीम कोर्ट ने बहुत बड़ा झटका दे दिया है। यह सही है कि देश में पिछले दशकों में हर क्षेत्र में राजनेताओं का अनावश्यक दखल बढ़ता ही जा रहा है उससे निपटने के लिए ही कोर्ट ने संभवतः सरकारों की अपने पसंद के जजों की नियुक्ति से रोकने के लिए इस तरह का निर्णय भी सुनाया है। क्या देश को लम्बे समय तक काम करने वाले किसी ऐसे तंत्र की आवश्यकता नहीं है जो निरापद रूप से काम भी कर सके और सुप्रीम कोर्ट ,हाई कोर्ट के साथ ही जिला स्तर की अदालतों के लिए भी जजों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सके ? किन्तु दुर्भाग्य है।
सिर्फ शायर देखता है कहकहों की अस्लियत
हर किसी के पास तो ऐसी नजर होगी नहीं
यही न्यायपालिका उस साधारण नागरिक के साथ दृढ़तापूर्वक तो दूर, सहानुभूतिपूर्वक भी कहां खड़ी है? बड़ा दुर्भाग्य तो यह भी है कि साधारण नागरिक के लिए सहानुभूति की बात ही क्यों आए? क्योंकि जजों के चयन में भूमिका निभाने को तत्पर सरकार व संसद-विधानसभाओं में बैठे जनप्रतिनिधि आम आदमी को न्याय नहीं दिला पाते। मेरठ से मुजफ्फरनगर तक शिकार हुए निर्दोष लोग आज अदालतों में केस नंबर बनकर रह गए हैं। जरा सोचिये, कितने छात्रों ने अपनी युवावस्था के बेहतरीन पल, पढ़ाई में लगा दिये। दो वर्ष में ही देश की चार शीर्ष परीक्षाओं में या तो भारी घोटाले हुए हैं, या पर्चे लीक या फर्जी प्रवेश या घूस लेकर अवैध काम। दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी - जिसमें 20 हजार से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी और इस घटना के 25 वर्ष बाद इसके अपराधियों को दो साल की सजा सुनाई, हमारी अदालत ने!
बूंद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और है
ऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं
वर्तमान में किसी भी व्यवस्था को एकदम से सुधारने के स्थान पर उसके लिए सही मंच बनाकर प्रयास करने की आवश्यकता भी है। नया सिस्टम किस तरह से काम करने वाला है यह देखना भी आवश्यक है क्योंकि जब तक नए सिस्टम की कमियों को भी खुले तौर पर सुधारने के लिए न्यायपालिका और सरकार सामंजस्य नहीं कर पाएंगी तब तक इस तरह की रस्साकशी चलती रहेगी। नया तंत्र जब तक पूरी तरह से काम करना शुरू नहीं करता है तब तक कम से कम इसी व्यवस्था को चलाते हुए जजों की संख्या को बढ़ाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। व्यवस्था में इस तरह का बड़ा परिवर्तन लोगों पर भारी न पड़े इस बात का भी ध्यान रखने की आवश्यकता भी है क्योंकि आज जितनी संख्या में मुकदमें अदालतों के सामने हैं उन्हें जजों की कमी के साथ नहीं निपटाया जा सकता है। जो आधा करोड़ केस अदालतों में लंबित हैं - उस बारे में क्यों हंगामा खड़ा नहीं किया जाता? फिर लगा, हमारी न्यायपालिका कहीं न कहीं बंधी हुई है। पीड़ितों के लिए समूचे सिस्टम को झकझोरना आवश्यक है। न्यायपालिका स्वयं इसे सर्वाधिक प्रभावशाली तरह से कर सकती है। यदि जज ठान लेंगे - तो न्यायिक क्रांति होकर रहेगी। पर सवाल है कि ऐसा होगा क्या?
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं

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