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Tuesday, October 13, 2015

हिंसा या उत्तेजना तो ऊपरी चेहरा है


12 अक्टूबर
आपने गौर किया होगा कि बिहार जैसे प्रदेश में जहां विकास और कई अन्य मसले सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वहां खाने- पीने के मसले को राजनीतिक दलों ने इतना खास बना दिया है कि अन्य सब गौण हो गये हैं। देखने में तो यह चुनावों के समय अक्सर बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण के लिए ही घिनौने खेल की तरह लग रहा है पर इसके पीछे एक बड़ी साजिश का गुमान होता है। मुंबई में भी खान- पान के मसले के सबसे वीभत्स रूप दिखे। पहले उसे बंद किया गया, फिर उस पर ‘बैन’ के बावजूद सबके आगे पकाकर खाकर दिखाया गया। यह सब भीड़ भरी सड़कों जैसे पब्लिक स्पेस में किया गया। लेकिन वहां हिंसा नहीं हुई। इसका कारण यह था कि बंद के दोनों तरफ हिंदुत्ववादी थे। बैन लगाने वाले अगर हिंदुत्ववादी थे तो बैन को तोड़ने वाले भी। जिस कंपटीटिव पालिटिक्स ने पर्यूषण पर्व पर अचानक बैन का ऐलान किया उसको जान-बूझकर तोड़ने के लिए एक रिहाइशी सोसाइटी के ऐन सामने शिवसेना ने खाने-खिलाने का आयोजन किया, दिन भर किया। यहां न दंगा हुआ, न आग भड़की, न हिंसा हुई। हां, खानपान की निजता की हानि हुई !पब्लिक स्पेस में पहले भी होटल रहे होंगे और दुकानें रही होंगी। बैन में वे बंद रहीं लेकिन शिवसेना ने उनकी कमी न महसूस होने दी। आप कुछ भी कहें, खाना जब तक निजी टेबिल पर है या होटल में है या ठेले पर है तब तक वह वीभत्स नहीं है, लेकिन अगर कोई खाते हुए खाने पर भाषण दे तो वह कुछ अजीब-सा लगता है। जिस देश में, उसके शहरों की गलियों में भूखे लोग सड़कों पर रहते हों, वहां चिकेन पका कर दिखा-दिखाकर खाना-खिलाना वीभत्स ही लगता है। वह चिकेन होने के कारण वीभत्स नहीं होता बल्कि अति प्रदर्शन के कारण वीभत्स नजर आता है, क्योंकि वह खाए-अघाए लोगों का राजनीतिक नर्तन भर होता है और वह जरूरतमंद के पेट के लिए नहीं होता। यह वीभत्स का नंगा नाच था जो राजनीति कर रही थी जिसे चैनल दिखा रहे थे और राजनीति अपने वीभत्स संस्करणों को डिफेंड कर रही थी। ऐसे में क्या अब यह तय करना कठिन है कि सभ्यता के द्रुत विकास वाली इस 21 वीं सदी में मनुष्य के तौर पर हम सभ्य ज्यादा हुए हैं या असभ्य, संवेदनशील बने हैं या संवेदनाहीन हुए हैं, उदार और दयालु बने हैं या हिंसक और बर्बर? हमारे अंदर मानवीय रिश्तों के प्रति आस्था गहरी हुई है या इन रिश्तों को कदम-कदम पर क्षत-विक्षत करते चलने की आक्रामकता? हम सामाजिक शांति और सद्भाव की कामनाओं से संचालित हो रहे हैं या फिर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और शत्रुता की भावना से? आखिर एक मनुष्य के तौर पर हम कहां पहुंचे हैं?अगर भारतीय समाज की बात करें तो कौन-सा समूह ऐसा है जो सुरक्षित भविष्य के प्रति हमारे अंदर थोड़ी-सी भी उम्मीद जगाता हो? बिहार के चुनाव का दृश्य देखें नमूने के तौर पर , वहां सभ्य तार्किक संवाद नहीं, डरावने कुतर्क और गालियां हैं। एक-दूसरे को समझने की समझदारी नहीं, सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप हैं, आक्षेप और प्रत्याक्षेप हैं, बेहूदे अनर्गल प्रलाप हैं और भड़काऊ भाषाई व्यवहार हैं। पुलिस और प्रशासन जैसी व्यवस्थाओं को जैसे सांप ने सूंघ लिया है। कानून और व्यवस्था की दीवारों में गहरी दरारें नजर आ रही हैं और भविष्य की संभावनाओं की छाती में बड़े-बड़े छेद। हमें जैसे दौरा पड़ गया है कि न हम स्वयं शांति से रहेंगे और न अपने पड़ोसी को शांति से रहने देंगे। जो भी विचार, भावनाएं या संकल्प नफरत जगाते हों उन्हें हम सीने में सहेज लेते हैं और जो दूसरों से प्यार करना, शांति से रहना और परस्पर सहयोग करना सिखाते हैं उनके लिए हम अपने दिल-दिमाग के दरवाजे बंद कर लेते हैं। आज भारतीय समाज गाय के लिए ठीक उसी तरह से लड़ रहा है जैसे 90 के दशक में राम के लिए लड़ा रहा था। ना हम राम के काम आए और ना अब राम (अयोध्या वाले) हमारे किसी काम के रह गए हैं। और इसलिए हुआ क्योंकि ये सत्ता की दौड़ है। दरअसल , गाय तो एक बहाना है। असल मकसद है पब्लिक स्पेस को कंट्रोल करना। यानी जनक्षेत्र को नए तरीके से परिभाषित करना और लंबे समय तक उसे उत्तेजित क्षेत्र बनाए रखकर कंट्रोल करने का अभ्यास किया जा रहा है। हिंसा या दंगा तो ऊपरी चेहरा है। असल बात जनक्षेत्र को नए सिरे से बनाने, बताने और कंट्रोल करने की है।

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