10अक्टूबर
विख्यात इतिहासकार एवं समाजशास्त्री प्रो. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया’ में कहा है कि ‘भारतीय ब्यूरोक्रेसी की सबसे बड़ी विपदा है कि उसका प्रमुख राजनीतिज्ञ (पॉलिटिकल एग्जेक्यूटिव) होता है और इसलिये वह अपने तौर पर कुछ नहीं करता इसलिये सारे काम- काज रुके रहते हैं। कोई भी सत्ता , चूंकि वोट आधारित होती है इसलिये वह ब्यूरोक्रेसी से ज्यादा छेड़ छाड़ नहीं करती। क्योंकि कानून के शासन (रूल ऑफ लॉ) से वोट बैंक पर प्रभाव पड़ता है।’ देश में अबतक यही होता आया है। कोई भी सरकार हो ब्यूरोक्रेसी अपनी चाल चलती है। लेकिन इसबार जब नरेंद्र मोद नयी सरकार के मुखिया हुए तो उन्होंने ब्यूरोक्रेसी का ढर्रा बदलने का वादा किया था लेकिन कुछ नहीं हो सका। थोड़े- बहुत दिखावटी सुधार जरूर हुए पर वे कामकाजी नहीं बन सके। भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के मजबूत तंतुओं से बने अफसरशाही के पोशिदा फंदों में उदारीकरण का पहिया फंस गया। अतएव नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रियों को न केवल सरकार चलानी है बल्कि सुशासन के लिए अफसरशाही की बुनियाद में सुधार करना होगा। चाणक्य के अनुसार ‘सुशासन का सीधा अर्थ आम जनता को अपने काम- काज में सहूलियत और सुरक्षा है।’ तजुर्बात बताते हैं कि अफसरशाही में सुधार कोई अफसर नहीं ला सकता क्योंकि यह अपने पॉलिटिकल बॉस को जवाबदेह है इसलिये इसमें सुधार और इसका पुनर्गठन केवल राजनीतिक डंडे से ही हो सकता है। परंतु मोदी सरकार ने भी अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए अफसरशाही का ही सहारा लिया और यही कारण है कि सरकार तेजी से व्यर्थ साबित होती जा रही है। अब भी हमारे देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं के अभाव जैसी समस्याएं समाधान की स्थिति से बहुत दूर दिखाई देती हैं। न तो नौकरशाही ने इस पर कभी ईमानदारी से सोचने की जहमत उठाई और न राजनेताओं ने ही। आखिर क्या वजह है कि एक तरफ तो महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग अपनी सम्पत्ति की घोषणा करने से ही डर रहे हैं और दूसरी तरफ आम जनता दिन-प्रतिदिन गरीब होती जा रही है? इन सभी मसलों पर गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है। चुनाव के बाद अधिकतर राजनेता भी इसी मूड में आ जाते हैं। असंतुलित विकास भी इसका ही नतीजा है। सरकारी कर्मचारी अहंकारी, भ्रष्ट तथा अनुत्तरदायी हैं। वे काम करें या न करें, उनकी पदोन्नति होती रहती है तो समस्या का हल कैसे निकलेगा ? अफसरशाही को समाप्त करना तो संभव ही नहीं है। आज भी ब्यूरोक्रेसी औपनिवेशिक शासन काल की तरह ही सोचती और व्यवहार करती है। वह अब भी अपने को शासक मानती है। न तो उसके पास काम करने की इच्छाशक्ति है न ही कोई दृष्टि। ऊपर से राजनीतिक अवमूल्यन ने उसे भ्रष्ट और निकम्मा बना दिया है तो विकास में बाधा आएगी ही। आज इसी का नतीजा है कि प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है। राजनीतिक नेतृत्व अपने हित के लिए ब्यूरोक्रेसी का इस्तेमाल करता है या नेता अपने मातहत अफसरों को अपने भ्रष्टाचार में शामिल करते हैं।
सच्चाई यह है कि जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे ब्यूरोक्रेसी का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह ब्यूरोक्रेसी भी अपने लाभ के लिए राजनीतिक संरक्षण हासिल करती है। इस दावे में संदेह की ज्यादा गुंजाइश इसलिए नहीं है, क्योंकि अगर ब्यूरोक्रेसी पूरी तरह ईमानदार होती तो वह नेताओं के स्वार्थ में खुद भी संलिप्त न होती और उसके तटस्थ विरोध के रहते देश में भ्रष्टाचार का वह माहौल नहीं बनता, जो आज दिखाई देता है।
इस बात की सत्यता कई बार साबित हुई है और इससे संबंधित तथ्य समय-समय पर हुए कई सर्वेक्षणों में उजागर भी हुए हैं। हांगकांग की पॉलिटिकल ऐंड इकॉनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी ने एशिया की बारह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की अफसरशाही को लेकर जो सर्वेक्षण किया था, उसके नतीजे में भारतीय ब्यूरोक्रेसी को सबसे अधिक निकम्मा बताया गया है। उसमें यहां तक कहा गया था कि भारतीय अफसर विकास में सबसे बड़े बाधक हैं। ऐसा कहने वाला यह एकमात्र सर्वे नहीं था। कुछ ही वर्ष पहले वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम ने उनचास देशों के अफसरों के कामकाज का जो सर्वेक्षण किया था उसमें भारतीय ब्यूरोक्रेसी को सबसे निचला यानी चौवालीसवां स्थान मिला था। देश और जनता की दुर्दशा की एक बड़ी वजह अफसरशाही है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। भारत के लोगों में खुशहाली तब तक नहीं आएगी, जब तक राजनीतिक बॉस प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान नहीं देते।
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