17 अक्टूबर
जिस दिन नवरात्र का आरंभ हुआ था एक मित्र उपवास पर थे। दूसरे ने उपवास की आध्यात्मिकता और तार्किकता पर सवाल उठाया और बात धर्म के कर्मकांड पर आ गयी। धर्म का मखौल उड़ाया जाने लगा। यह उद्धरण इसलिये यहां दिया जा रहा है कि हाल में मांस भक्षण और धर्म को लेकर प्रचंड बहस शुरू हो गयी है। बेशक इसे लेकर हिंदू दो दलों में विभक्त हो गये हैं। पर किसी को यह कहते नहीं सुना गया है कि और भी मजहब हैं जिनमें खानपान की पाबंदियां हैं। मसलन , मुस्लिमों में , यहूदियों व अन्य जातियों में इत्यादि। फिर एक बार ‘यह तो सिर्फ उन बातों में से एक है।’ नियमों और रीतियों वाला हिंदू एकमात्र धर्म नहीं है। इसलिए ऐसे व्यवहार में कोई तार्किक खामी ढूंढ़ने का कोई अर्थ नहीं है। वे मौजूद हैं और चूंकि करोड़ों लोग उनका पालन करते हैं, तो ऐसा लगता है कि इनसे उनकी जिंदगी में कुछ सकारात्मक मूल्य जुड़ते हैं। कुछ देश धर्म आधारित व्यवस्था वाले होते हैं। इन देशों में धर्म कानून का आधार होता है। सही या गलत, तार्किक या अतार्किक उस व्यवस्था के तहत लोगों को उन नियमों का पालन करना पड़ता है। अगर आपने पालन नहीं किया तो सजा मिल सकती है। इसमें व्यक्तिगत आजादी का कोई मूल्य नहीं है। यह सुनकर भारत के लोगों को , खासकर जो लोग 1947 के बाद पैदा हुए हैं थोड़ा झटका लग सकता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत आगे की सोची और उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की व्यवस्था दी। जबकि इसके पहले देश में मुस्लिम आइडेंटिटी को लेकर खूनी बंटवारा हो चुका था। हमारे संविधान में कई प्रावधान हैं, जो सारे धर्म को संरक्षण देते हैं और समानता के आधार पर उनसे व्यवहार करते हैं। आप देखेंगे तो इसके पीछे एक जायज कारण भी था और वह आज भी है। यह ठीक है कि गोवंश की रक्षा और संवर्द्धन की बात संविधान में कही गई है और अनेक राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध लगा हुआ है। यदि गोहत्या अपराध है तो जिस पर भी उसका शक हो, उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। यह अक्षम्य है कि गोप्रेमी कानून अपने हाथ में ले लें और किसी भी मनुष्य की हत्या कर दें? क्या पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है? गाय को माता का दर्जा इसीलिए दिया गया है कि वह एक अत्यंत उपयोगी पशु है, गोहत्या अपराध है, लेकिन मांस-भक्षण (अखाद्य) नहीं। आखाद्य मांस खाने की अफवाह के आधार पर किसी मनुष्य की हत्या कर देना कौन-सा धर्म है? यह धर्म नहीं, अधर्म है। यह न्याय नहीं, अन्याय है। क्या कानून के डंडे से आप (अखाद्य) मांस-भक्षण छुड़ा सकते हैं?
नफरतों का असर देखो,
जानवरों का बंटवारा हो गया,
गाय हिन्दू हो गयी ;
और बकरा मुसलमान हो गया।
गांधीजी ने भी कभी यही सवाल किया था? कोई आदमी क्या खाए और क्या पिए, इन सवालों पर खुली बहस होनी चाहिए न कि अपनी धार्मिक और सांप्रदायिक मान्यताएं एक-दूसरे पर थोपने की कोशिश होनी चाहिए। किसी भी तरह के मांस खाने को ही आजकल विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र हानिकारक मानने लगा है। पर्यावरण और आर्थिक दृष्टि से भी वह उपादेय नहीं है।
ये पेड़ ये पत्ते ये शाखें भी परेशान हो जाएं..
अगर परिंदे भी हिन्दू और मुस्लमान हो जाएं
इस दृष्टि से किसी भी जानवर के मांस में क्या फर्क है? सब ही अखाद्य हैं। ये प्रश्न ऐसे हैं, जिन पर तंग नजरिये और धार्मिक उन्माद का चश्मा चढ़ाकर देखने से किसी भी देश या समाज का भला नहीं हो सकता। अफसोस है कि पहले से बिगड़े हुए इस मुद्दे को हमारे नेताओं और साहित्यकारों ने और भी अधिक पेचीदा बना दिया है।
सूखे मेवे भी ये देख कर हैरान हो गए..
न जाने कब नारियल हिन्दू और
खजूर मुसलमान हो गए..
इखलाक की हत्या के मुद्दे को हमारे नेताओं-साहित्यकारों ने ऐसा रूप दे दिया है, जिससे विदेशों में भारत की छवि विकृत हो रही है। विदेशी टीवी चैनल-अखबार जिस तरह से प्रश्न उठा रहे हैं उनसे लगता है कि वर्तमान सरकार ने सारे देश को सांप्रदायिकता की भट्ठी में झोंक दिया है। देश में तानाशाही का माहौल बन गया है। उन्हें समझाना पड़ रहा है कि कुछ सिरफिरों के कुकर्म के कारण आप भारत के बारे में गलत राय मत बनाइए।
भारत पूरी तरह से सहिष्णु है, बहुलतावादी है और अपनी उदारवादी सनातन परंपरा से जुड़ा हुआ है। किसी नेता या सरकार की आज ऐसी हैसियत नहीं है कि वो भारत के लोकतंत्र और सांप्रदायिक सद्भाव के माहौल को पामाल कर सके।
अंदाज जमाने को खलता है
कि मेरा चिराग हवा के खिलाफ
क्यों जलता है..
मैं अमन पसंद हूं ,
मेरे शहर में दंगा रहने दो...
लाल और हरे में मत बांटो ,
मेरी छत पर तिरंगा रहने दो..
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