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Tuesday, October 20, 2015

जीते चाहे कोई, यकीनन बिहार हारेगा



20 अक्टूबर
बिहार के चुनाव के परिणामों काे लेकर अटकलें तेज हो गयी हैं और वातावरण नकारात्मक रूप में गरमा रहा है। इस ‘लोकतांत्रिक’ जश्न के दौरान खूब धूम-धड़ाका हो रहा है। एक से एक निराले पटाखे फोड़े जा रहे हैं। सबसे शानदार है – गाय पटाखा। इसके बाद बारी आयी और ‘ऊटपटांग बयान’ पटाख़ा की। सोशल मीडिया पर झूठ, बकवास और सिरफिरे बयान कुलांचे भर रहे हैं। इनकी सुनामी आयी हुई है। ‘चामत्कारिक’ पटाखों की आवाज और रोशनी, दोनों ही बेजोड़ हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान के दो चरणों के बाद स्वाभाविक ही है कि सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदार गठबंधन अपनी-अपनी जीत के दावे करें, लेकिन सच यही है कि जीत लोकतंत्र की हो रही है और हार बिहार रहा है। अक्सर विवादित और संदेहास्पद रहे चुनाव सर्वेक्षणों के अलावा तटस्थ राजनीतिक प्रेक्षक कोई स्पष्ट भविष्यवाणी करने से परहेज ही कर रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अभी तक जातीय आधार पर विभाजित रही बिहार की राजनीति के मद्देनजर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधनों में समीकरण के लिहाज से कड़ी टक्कर नजर आ रही है। जाहिर है, चुनाव हो रहे हैं तो हार-जीत भी होगी ही, लेकिन उसका फैसला मतगणना वाले दिन ही हो पायेगा। मोदी जी, साक्षी महाराज और उनके साथी बिहार में विकास को चाहे जितना कोसें और कम करके आंकें लेकिन वहां विकास हुआ है। एक गंभीर सामाजिक विकास। भले ही बिहार के शहरों की सूरत ना बदली हो पर समाज में बदलाव आया है। आप कहेंगे पटना एक ठहराव का एहसास कराता है, मायूस करता है। यहां के लोगों में गांव कस्बों का बोध और संस्कार ही ज्यादा दिखता है। जो पटना में रहता है वो सिर्फ पटना में नहीं रहता, उसका एक पांव और एक मन गांव में रहता है। इसलिए आपको दिल्लीवाला या कलकत्तावाला की तरह कोई पूरी तरह से पटनावाला नहीं मिलेगा। एक शहरी होने के लिए जरूरी है कि उसका अतीत से संबंध कमज़ोर हो, वो भविष्यवादी हो। बिहार एक ग्रामीण राज्य है इसलिए उसके शहरों का कस्बाई चरित्र होगा ही लेकिन बदलते बिहार की आकांक्षाएं अब बेहतर और किसी बड़े शहर की तलाश में बेचैन हैं। राजनीतिज्ञों का एक तबका जातिवाद के खिलाफ लेक्चर देता है लेकिन सवर्णों के जातिवाद को विकास का सहारा लेकर प्रगतिशील घोषित करते चलता है। आप इस तबके को विकास पर खूब बातें करते देखेंगे और यही तबका गरीब मरीजों के साथ क्या कर रहा है बताने की जरूरत नहीं है। अकारण नहीं है कि बिहार चुनाव में अस्पतालों को लेकर कोई बात नहीं कर रहा है। बिहार के छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण में एक घोर कमी है। वे विकास के सवाल को अपनी निष्ठा वाले दल के हिसाब से देखते हैं। शिक्षा चिकित्सा या कुपोषण जैसे मसलों पर कौन बहस के लिए तैयार था? हर चुनाव को कौन बनेगा मुख्यमंत्री, किस्सा कुर्सी का या सत्ता का राजतिलक टाइप के कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया जा रहा है। बुनियादी मुद्दों की बात कोई नहीं कर रहा। चुनाव आते ही एनजीओ या तटस्थ नागरिक संगठन सक्रिय हो जाते हैं, लेकिन सुनता कौन है। बिहार का चुनाव उसकी पहचान पर हमले का मौका बन जाता है। यहां के संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाला तबक़ा भी भीतर से हमलावर हो जाता है जबकि शिक्षा और चिकित्सा की हालत उसी ने बुरी की है। दो सौ रुपया किलो दाल है और मंचों पर दाल मुद्दा नहीं है। जनता का बड़ा हिस्सा भी इसी तरह से प्रशिक्षित कर दिया गया है कि कौन जीतेगा। कौन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनेगा? लेकिन विकास की बात कोई नहीं कर रहा है। और अगर बात हो रही है तो केवल जंगल राज की, कुशासन की। जबकि बिहार में भारी विकास हुआ है। गली-गली में साइकिल-सवार लड़कियों को देख लगता है कि काफी कुछ बदला है। हमारी राजनीति शायद लड़कियों के बदलाव को बदलाव नहीं मानती, मगर आप किसी भी सड़क पर झुंड में या अकेले साइकिल चलाती लड़कियों को देख गदगद हो सकते हैं। साइकिल ने लड़कियों की जिन्दगी बदल दी है और लड़कियों ने साइकिल से समाज बदल दिया है। साइकिल चलाती ये लड़कियां बिहार के विकास की ब्रांड अम्बेसडर हैं। लड़कियों के दिलो-दिमाग से लड़कों का भय निकल गया है। सड़क पर छेड़खानी नहीं दिखती है। साइकिल छिनने की घटना सुनने को नहीं मिलती। बिहार की सड़कों पर यह जो नया समन्वय बना है, वह किसी क्रांति से कम नहीं। यकीनन यह क्रांति पिछले शासन में ही आयी है। ऐसे में, अब सोचिए नेता को मुद्दा कौन दे रहा है? मुद्दा, केवल मुद्दा नहीं एक आइडिया भर हो कर रह गया है। इस आइडिया से लोगों के दिलोदिमाग को प्रभावित कर चुनाव में वोट की शक्ल में बदलने की कोशिश हो रही है। चुनाव का नतीजा क्या होगा यह तो बाद में पता चलेगा , लेकिन जो कोशिशें चल रहीं हैं उससे यकीनन बिहार हारेगा।




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