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Friday, October 23, 2015

राष्ट्रपति के भाषण से मिलते संकेत


22अक्टूबर 2015
दशहरे के अवसर पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का भाषण बहुतों ने सुना होगा। उन्होंने देश की जनता से सहिष्णुता की अपील की। भाषण सुन कर कुछ ऐसा लगा कि राष्ट्रपति देश की ताजा हालात से बहुत क्षुब्ध हैं। पीड़ादायक तो यह है कि राष्ट्रपति को एक पखवाड़े की भीतर दूसरी बार ऐसी बात कहनी पड़ी है। तो क्या सचमुच देश के वर्तमान हालात हमें किसी अंधेरे में ले जा रहे हैं। खबरों की मानें तो रामलीलाओं और गरबा में भाग लेने के लिये दूसरे सम्प्रदाय के लोगों का प्रवेश वर्जित हो गया है। एक अजीब किस्म की असहिष्णुता की काली छाया चारो ओर फैल रही है। सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। मंगलवार को जब राष्ट्रपति का भाषण चल रहा था और कोलकाता में दुर्गापूजा की धूम थी उसी बीच सन्मार्ग ने कुछ पढ़े लिखे नौजवानों से दादरी की घटना, कश्मीर की घटना , और कई इस तरह की घटनाओं के बारे में बातें की। दुखद यह है कि नौजवानों में इसके लिये कोई व्यथा नहीं थी। नौजवानों ने साथ में सेल्फी लेने की पेशकश तो की पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस तरह के हिंसक विचार गलत हैं और इन्हें त्यागना चाहिये। जब 2014 में लोकसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था तो एक सवाल उठा था कि नरेंद्र मोदी, उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ फासिस्ट हैं या नहीं। ‘थर्ड रीक’ यानी हिटलर की शासन व्यवस्था में देश के बदल जाने भय के बीच यदि हम उसी संदर्भ में आज के शासन की सियासी सक्रियता को विश्लेषित करें तो हैरत में पड़ जायेंगे। हमारे देश के आस पास दो अमीर और विकसित मुल्क हैं - चीन और जापान। राष्ट्रीयता और सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में दोनों हमारे समकक्ष हैं पर वहां राष्ट्रीयता, स्थानिकता और असहिष्णुता सुनने में नहीं आती। दरअसल , सामाजिक विपर्यय के दो आधार स्तम्भ होते हैं पहला, पोलिटिकल ईलीट वर्ग जो सत्ता में बने रहने के लिये इतिहास और उसके बिम्बों की अपने मनोनुकूल व्याख्या करता है। समाज शास्त्र की भाषा में इसे ‘राजनीतिक मिथकनिर्माण’ कहते हैं। इस क्रम में इतिहास की अलग व्याख्या होती है, बच्चों की किताबें दुबारा लिखीं जाती हैं। इससे एक मत का निर्माण होने लगता है जो दूसरे लोगों के पब्लिक स्पेस को तय करने लगता है। इस मत के अलावा कुछ और भी मत हो सकता है, इसकी जगह नहीं छोड़ी जाती है। ऐसे अनगढ़ कार्य अंतत: पब्लिक स्पेस को बहुमत का स्पेस बना देते हैं। इसमें असली मकसद जनक्षेत्र को नए तरीके से परिभाषित करना और लंबे समय तक उसे उत्तेजित क्षेत्र बनाए रखकर कंट्रोल करने का अभ्यास करना है। इसके बाद जो बहुमत तैयार होता है वह नये किस्म के राष्ट्रवाद को बनाता है। इस राष्ट्रवाद में विरोध को ताकत से दबाया जाता है और विरोधियों के अस्तित्व एवं साख पर सवाल खड़े कर दिये जाते हैं। इससे एक खतरनाक दौर का सृजन हो है।इस दौर में सियासतदां नफरत के औजार का इस्तेमाल कर, खौफ की जमीन पर अपना सियासी क़ारोबार चलाते हैं। ऐसे राष्ट्रपति का भाषण देश को संभालने की अपील की तरह है। और अब तो ये आलम है कि हथियारों की, षडयंत्रों की छोड़िये, यहां स्थापित राजनीति में ऐसे बहुतेरे हैं जो अपनी जुबान की तलवार से ही इंसान और इंसानियत दोनों का कत्ल कर रहे हैं। जिन कंधों पर देश को सुरक्षित महसूस करवाने की जिम्मेदारी दी जाती है वो नफरत के कारोबारी बन जाते हैं। भले लोगों की मुश्किल ये भी है कि अब चुप रहना ठीक है या जिम्मेदार आवाजों को और मुखर होना होगा? डर ये कि आप उन्हें उनके नापाक इरादों में कामयाब न कर दें।ये सब वाकई शर्मनाक है। इस असहिष्णुता की राजनीति की भेंट चढ़ता हमारा अमन और चैन एक बार अगर खो गया तो उसे वापस पाना फिर नामुमकिन होगा। इस देश की जनता इस नफरत की राजनीति के मुंह पर अपनी एकता और प्यार-विश्वास से करारा तमाचा मार सकती है। बहुसंख्यक वर्ग, अल्पसंख्यक के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझे। अगर कहीं इस राजनीति ने उनके दिल में कोई शंका पैदा की है, तो ये पूरे देश का फर्ज है कि अपनेपन और भरोसे से शंका को दूर करे।

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