21 अक्टूबर 2015
आज अष्टमी है। महाअष्टमी। बाजार में उत्सव के माहौल पर महंगाई की काली छाया साफ दिख रही है। दालें महंगी हो गयी हैं, इतनी महंगी कि आम आदमी उनकी कीमत पूछने से डरने लगा है। हम सोच भी नहीं सकते थे कि गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा जरिया दाल एक दिन 200 रुपये किलो बिकेगी, प्याज का इतिहास हम देख ही चुके हैं। प्याज ने सरकारों की छवियों को बिगाड़ने में अपनी भूमिका निभाई है, इसलिए उसकी लगातार 'वक्री चाल' को हमने अब अपनी नियति मान लिया, लेकिन अब दाल...। दाल की महंगाई के संदर्भ में तमाम विश्लेषण आ चुके हैं। उसके उत्पादन से लेकर भंडारण तक की कहानियां और चुनावी राज्यों में आयातित दाल को चुनावी दंगल बचाने के लिए भेज दिए जाने की ख़बरें भी हम हर वाजिब एंगल से छाप चुके हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर आम लोगों की जरूरत की चीजों पर ही सबसे बड़ा सुनियोजित हमला क्यों हो रहा है...?
अभी दो दिन पहले एक आंकड़े में कहा गया है कि देश की 40 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, 9.3 करोड़ लोग झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं, 12.8 करोड़ को साफ पानी नहीं मिलता, 70 लाख बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं। यही नहीं, जो रिक्शा चलाता है, ऑटो चलाता है, ड्राइवरी करता है, दुकान में काम करता है या घरेलू काम करता है, वो बहुत कमाता है तो पांच-सात हजार रुपया महीना कमाता है। चार लोगों का आदर्श परिवार भी हो तो घर का किराया देने के बाद उसके पास खाने की चीजें खरीदने के लिए कितना पैसा बचता होगा मोदीजी? और फिर उसे बच्चों की पढ़ाई के लिए, कपड़ों के लिए और गाहे-बगाहे होने वाली बीमारी के लिए भी तो पैसा चाहिए? ऐसे में कबीर दास याद आते हैं - ‘कबिरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर।’ लेकिन आज कबीर किसकी खैर मनाएंगे। ऐसे में हमें डिजिटल, स्मार्ट और वैश्विक परिदृश्य में तरक्की करते भारत का चेहरा लाचार नजर आता है, जिसकी प्राथमिकता में सब कुछ है, सिवाय दाल- रोटी और प्याज के। क्या यह हर साल की कहानी नहीं बन रही कि एक वक्त के बाद प्याज की कीमतें हमारे बस के बाहर की हो जाएंगी, क्या हमारे नीतिनियंता आम लोगों की जरूरत की चीजों का सही लेखा-जोखा, उत्पाद, मांग और आपूर्ति के आंकड़े नहीं रख सकते, या ऐसी परिस्थितियों में एक त्वरित योजना बनाकर राहत नहीं दे सकते। क्या हमें देश पर संकट केवल इसी रूप में दिखाई देता है कि पड़ोसी राज्य हमारी सीमाओं पर हमला कर देते हैं, लेकिन बाजार की निर्मम ताकतें जब इस रूप में लोगों का खून कर देती हैं कि वह बहते हुए दिखाई भी नहीं देता, तब क्या हमें उसका दर्द महसूस होता है। शायद नहीं, इसलिए हर साल हम कुछ खास खाद्य पदार्थों, सब्जियों, अनाजों के महंगा होते जाने को चुपचाप देखते हैं और निर्लज्ज भाव से बयान जारी कर देते हैं कि अब तो नई फसल आने पर ही कीमतें नियंत्रण में आएंगी। यही मोदी जी थे जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान हर भाषण में लोगों से पूछा था - ‘क्या महंगाई घटी, क्यों नहीं घटी।’ आज मोदी जी के सामने यही सवाल है कि महंगाई क्यों नहीं घटी? भयंकर परिस्थतियां हैं हमारे समाज की। एक ओर अनाज पैदा करने में लिये कर्ज से लदे लोग साल-दर-साल मरते जाते हैं, दूसरी ओर कुछ लोग अनाज नहीं मिल पाने के कारण हुए भयंकर अभाव में मर जाते हैं। क्या आपको यह सूचना चौंकाती नहीं कि जिस दौर में प्याज 60 रुपये किलो बिक रहा है, ठीक उसी समय में मंडी से प्याज बेचकर घर लौटा किसान इसलिए जहर पीकर जान दे देता है, क्योंकि उसे मंडी में सही दाम नहीं मिले, और उतने पैसों से वह कर्ज चुकाने के काबिल नहीं है। बार-बार की घटनाओं और परिस्थितियों से यह लगता है कि कालाबाजारी जैसे शब्द शब्दकोश से गायब नहीं हुए हैं, बल्कि वे नए-नए पर्यायों के साथ हमारे सामने हाजिर हो रहे हैं, बाजार को अपने मनमुताबिक चलाने वाले उनके नए अर्थ और रचनाएं गढ़ रहे हैं। यह शक अब भरोसे में तब्दील होता जा रहा है। जैसे-जैसे दाल और उस जैसी चीजें और महंगी होंगी, यह वैसे-वैसे और बढ़ता जाएगा। क्या इस समय की यह एक त्रासदी नहीं है कि किसान और किसानी के सवाल हमारे विमर्श से गायब हैं, जो सीधे तौर पर ऐसी वस्तुओं के उत्पादन से जुड़े हैं। क्यों इस बाजार में किसान खुद अपने उत्पाद की कीमत तय नहीं करता, उसकी क्या मजबूरियां हैं या बनाई गई हैं। सरकार ने दाल के आयात की योजना बनायी है और कीमतों को काबू में करने का आश्वासन दिया है। उम्मीद कर सकते हैं, 'अच्छे दिनों' में कुछ अच्छा जरूर होगा, क्योंकि यह तो अब साबित हो ही गया है कि भारत में आदमी दाल- रोटी से ज्यादा उम्मीद खाकर जी लेता है।
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