गांधी पर किसी कवि ने लिखा है कि,
बिजली बन के थी शमशीर चली
पर आप आप ही मुकर गयी
कहते हैं, गांधी के सीने में जाकर
तलवार स्वंय ही टूट गयी
हां, इतिहास गवाह है कि बुद्ध के बाद इस दुनिया में दो ऐसे लोग पैदा हुये थे जिन्हें कोई आदमी खारिज नहीं कर सकता। बेशक उनके विचारों को मानें या ना मानें। वे दो इंसान थे- गांधी और मार्क्स। यहां बहात केवल गांधी की है। वर्तमान समय में गांधी के संदर्भ में दो तरह के मत हैं, एक गांधी को व्यर्थ कहने वाले और दूसरे गांधी का व्यवसाय करने वाले। गांधी को आदर्श मानने वालों का अभाव हो चुका है अपने देश में। जबकि , अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गांधी की स्वीकार्यता और प्रासंगिता तेजी से बढ़ रही है। पिछले वर्ष विख्यात टाइम पत्रिका ने गांधी के नमक सत्याग्रह को दुनिया का अबतक का सबसे प्रभावशाली आंदोलन कहा था। गत वर्ष अमरीका में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफ्रीकी महाद्वीप के 50 देशों के युवा नेताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि आज के बदलते परिवेश में युवाओं को गांधी जी से प्रेरणा लेने की जरूरत है। एक ताकतवर देश के राष्ट्रपति द्वारा हिंसा भरे माहौल में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता का उल्लेख किया जाना निश्चय ही गांधी की विश्वव्यापी स्वीकार्यता को ध्वनित करता है। पिछले वर्ष विज्ञान भवन में राष्ट्रमंडल देशों के लोकसभा अध्यक्षों और पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में जांबिया की नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असुमा के. म्वानामवाम्बवा ने न केवल गांधी के सिद्धांतों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी, बल्कि यहां तक कहा था कि भारत के साथ हम भी महात्मा गांधी की विरासत में साझीदार हैं। यह उन भारतीयों के लिए एक सबक है, जो गांधी के आदर्शो और मूल्यों पर प्रहार करने से बाज नहीं आते। वैश्विक स्तर पर गांधीवादी मूल्यों की बढ़ रही प्रासंगिकता और उनकी अहिंसा की अवधारणा की विश्वव्यापी स्वीकार्यता उन लोगों के लिए एक सबक है, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाकर गांधी को अनर्गल आक्षेपों व तर्कहीन तथ्यों के सहारे दोषी ठहराते देखे जाते हैं। उन लोगों को भी विचार करने की आवश्यकता है, जो भारतीय समाज के निमार्ण में गांधी की भूमिका को शंका की दृष्टि से देखते हैं। हां, उन लोगों को संबल जरूर मिला होगा, जो इस बात को लेकर आशंकित हो उठे थे कि वर्तमान भारत में गांधी की प्रासंगिकता और उनकी आदर्शवादिता कमजोर पड़ती जा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की सफलता से सिद्ध हो गया है कि अभी गांधी और उनके विचारों से देश के लोग दूर नहीं हुए हैं। संतोष की बात यह है कि गांधी विरोध से कई गुना अधिक वेग से गांधी के दर्शन और विचार महाद्वीपों को लाघंते जा रहे हैं। क्या अमरीका और क्या अफ्रीका, शायद ही कोई ऐसा देश हो, जो आज गांधी के अहिंसा संबंधी विचारों को अपना हथियार न बनाना चाह रहा हो। हिंसा भरे वैश्विक माहौल में गांधी के विचारों की ग्राह्यता बढ़ती ही जा रही है। जिन अंग्रेजों ने विश्व के हर कोने में यूनियन जैक लहराया था और भारत में गांधी की अहिंसा को चुनौती दी थी, आज वे भी गांधी के अहिंसा संबंधी विचार व आचरण अपनाने की बात कर रहे हैं। इस तथ्य पर ध्यान दें कि गांधी मानते थे कि ‘मनुष्य इसलिए मनुष्य है कि उसमें विवेक है पर उसका विवेक कोरा तर्क वाला नहीं है। मनुष्य की अपनी अंतर्ध्वनि भी है, अंतरात्मा भी है जो सबमें है। जो साझी भी है और सबकी अलग-अलग भी। इसलिए बिना अंधानुकरण किए खुद अपने ढंग से सोचना जरूरी हो जाता है।मनुष्य की स्वायत्ताता और स्वतंत्रता एकांगी नहीं होती।’ आज हमें चुनने की स्वतंत्रता है। एक समय था जब परंपरागत समाज हमें पूर्वनिश्चित दायित्व में बांधता था और दूसरे की आशाओं-अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के लिए कहता था, पर आज का आधुनिक मन इन सबमें नियंत्रण की बू देखता है और इसलिए उसे छोड़ने लगा, नकारने लगा। पर स्वतंत्रता मिली क्या? आज एक नया और भयानक दबाव है। वह दबाव है बाजार के बढ़ते वर्चस्व का जो हमारे काम-धाम, ज्ञान-विज्ञान, नाते-रिश्ते और जीवनशैली यानी सब कुछ तय करने लगा है। वह झूठी दिलासा जरूर दिलाता है कि तुरत-फुरत सब मिल जाएगा और अबाध सुख की गारंटी ऊपर से है। नियंत्रण के उपाय, औजार आज और तेज और नुकीले हो गए हैं। इस सबके बावजूद दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब-तब गांधी के सामाजिक-राजनीतिक योगदान पर बेवजह वितंडा खड़ा किया जाता है। उनकी सहृदयता और मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाने के बजाय उनपर सियासत की जाती है। हालिया वर्षो में गांधी के राजनीतिक-सामाजिक योगदान को लेकर जिस गति से क्रिया-प्रतिक्रिया तेज हुई है, उससे तो यही लगता है कि हम गांधी की विरासत के सच्चे वारिस हैं भी या नहीं। राजनीतिक जमात और छद्म समाजसेवियों के लिए गांधी एक बेजोड़ ब्रांड बन चुके हैं और उनके नाम पर जमकर राजनीतिक लाभ लिया जा रहा है। देखा जा रहा है कि सत्ता प्राप्ति की छटपटाहट में कुछ राजनीतिक दलों ने तो उनके विचारों का मानो कॉपीराइट करा रखा है। वे यह सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं कि गांधी और उनकी विचारधारा पर सिर्फ उन्हीं का एकाधिकार है। लेकिन सुखद बात यह है कि गांधी के स्वार्थी समर्थक और विरोधी दोनों ही अपने-अपने मतलब के लिहाज के बावजूद किसी न किसी रूप में उन्हें प्रासंगिक बनाए ही हुए हैं। गांधी की विचारधारा और उनके मूल्यों में आस्था न जताने वाले लोगों की बातें तो समझ में आती हैं, लेकिन गांधीवादी मूल्यों को सर्वाधिक क्षति उन लोगों द्वारा पहुंचाई जा रही है, जो उनके कथित अनुयायी बने हुए हैं। इन स्वार्थी किस्म के राजनीतिक अनुयायिओं ने अपने को गांधी का असली वारिस मान लिया है। लेकिन उन्हें गांधी के अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति की पीड़ा नहीं दिखाई दे रही है ,ऐसे में गांधी सोचने को मजबूर करते हैं कि हम अपने स्वभाव को फिर से पहचानें, शायद कोई रास्ता निकल आए। यही बात गांधी को आज भी प्रसंगहीन नहीं होने दे रही है।
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