6 सितम्बर
बिहार में चुनाव के पहले जब चर्चे चल रहे थे यही समझा गया था कि बिहार अब बदल चुका है और वहां अब वह सब नहीं होगा जो होता आया है और जिसके लिए बिहार अबतक बदनाम होता रहा है। लेकिन अभी जो देखने- सुनने को मिल रहा है उससे तो लग रहा है कि बिहार की राजनीति एक अजीब किस्म की हो गयी है। राजनीति शास्त्र में या समाजशास्त्र में ऐसा उदाहरण अभी तक देखने को नहीं मिला है। जैसा कि महसूस हो रहा उससे लगता है कि बिहार में चुनाव चाहे मोदी जीतें या नीतीश लेकिन हारेगी बिहार की जनता ही। इतना जरूर है की नेताओं के साथ साथ जनता का जातीय , धार्मिक तथा क्षेत्रीय अहम भी जीत जाता है और यही जीता हुआ अहम पूरे 5 साल तक अपने सेवक(नेता पढ़ें) के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता रहता है । 70 साल बीत जाने के बाद भी लोग नही समझ पाये की सत्ता पाने के बाद न कोई दलित रहता है और न ही हिन्दू या मुसलमान। सब उस गिरोह मे शामिल हो जाते हैं जहां दिन रात उस उपाय पर चिंतन होता रहता है की इस कुर्सी को अगली बार के लिये बरकरार कैसे रखा जाय।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
घर अंधेरा देख, तू आकाश के तारे न देख।
गौर करें बिहार इस समय सार्थक सवालों के गलियारों से गुजर रहा है। ये प्रश्न उठ रहे हैं कि संघ- भाजपा वाले लालू राज को जंगल राज और लालू अपने राज को मंडल राज बता रहे हैं। सच्चाई क्या है? क्या सच वह है, जो लालू बोल रहे हैं या सच वह है, जो संघ-भाजपा वाले बोल रहे हैं। संघ-भाजपा वाले दावा कर रहे हैं कि वे जंगल राज खत्म करेंगे। लालू गुजरात दंगे का हवाला दे रहे हैं। संघ को ब्राह्मण की संस्था बता रहे हैं। इसी बीच दादरी की घटना देश के सामने आई। देश के सामने यह सच्चाई आई कि मंदिर से पुजारी ने अफवाह उड़ाई। इसके बाद मारपीट हुई। जान गयी। केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा उनके बचाव में उतरे और इस संपूर्ण सुनियोजित सांप्रदायिक हिंसा को महज एक हादसा बता दिया। लालू के समर्थक इस पूरे घटना-क्रम को ‘नफरत-राज’ के रूप में देख रहे हैं और लोगों को दिखा रहे हैं। बिहार के मतदाता सोच रहे हैं कि सच कौन बोल रहा है। सच्चाई क्या है ? क्या बिहार के चुनाव की लड़ाई हो गई है - ‘जंगल राज’ बनाम ‘नफरत राज।’ भाजपा के नेता ढोल पीट रहे हैं कि वे ही जंगल राज खत्म करेंगे। क्या नफरत के रास्ते जंगल राज खत्म होगा ?
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
अब यह सवाल उठता है कि एक तरफ नफरत जात के नाम पर है, तो दूसरी तरफ धर्म के नाम पर। जो भी जीते वह यही सोचने में मशगूल रहेगा कि अगली बार कैसे कायम रहेंगे। लिहाजा , सब चाहते हैं की जनता को 2 रुपया किलो खाद्यान्न , कंबल ,साड़ी ,सायकिल देकर अकर्मण्य बनाये रखा जाय।
हुकूमत मुंह-भराई के हुनर से खूब वाकिफ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है
आप सोचिये ना कि एक नेता विधायक का चुनाव लड़ने के लिए करोड़ रुपये से ज्यादा क्यों खर्च कर रहा है। जबकि सब जानते हैं कि रुपये ना पेड़ पर फलते हैं और ना मुफ्त में मिलते हैं। कुछ तो कारण होगा , कुछ तो मिलता होगा इस खर्चे के बाद जो उस करोड़ रुपये से ज्यादा होगा। एक बार मंदिर निर्माण के नाम पर यहां हिंसा भड़की थी। महागठबंधन के लोग कहते हैं कि इस बार एक नेता अपने पुत्र के भविष्य निर्माण के लिए ऐसा करवा रहे हैं। बिहार के लोग सहमे हैं। अफवाहें जोर-शोर से उड़ रही हैं। सद्भाव बिगाड़ने की साजिश चल रही है।
तवायफ की तरह अपने गलत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है
कुछ सिद्धांत ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत दूर तक खींचना उनकी भावना के प्रतिकूल चला जाता है। भाजपा नेतृत्व की यह घोषणा कि बिहार में उसकी सरकार बनी तो मुख्यमंत्री अगड़ी जाति का नहीं, बल्कि पिछड़ी जाति का होगा, कुछ ऐसी ही है। यह दुश्मन के हथियार से ही दुश्मन को मात देने की कोशिश है। इससे साबित होता है कि अवसरवाद के रास्ते पर हमारी पार्टियां कितनी दूर तक जा सकती हैं। जाति एक ऐतिहासिक सच्चाई है। लेकिन यह मान लेना कि किसी खास राज्य का विकास कोई पिछड़ा नेता ही कर सकता है, एक ऐसा अंधविश्वास है जिसने भारतीय राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है। बिहार की जनता लगातार 70 साल से हार रही है , अतएव बिहार के लोगों को बिना किसी के हार-जीत का ध्यान दिये मतदान करना चाहिये । हो सकता है इस बार जीत जाय !
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
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