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Tuesday, October 13, 2015

आरक्षण : बेशक चीजें बदली हैं


13 अक्टूबर
राजनीति में इन दिनों पब्लिक स्पेस कंट्रोल करने की कोशिश चल रही है। इसका एक और उदाहरण है आरक्षण पर संघ के प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण के सम्बन्ध में बयान। मोहन भागवत ने कुछ दिन पहले देश की आरक्षण व्यवस्था पर बहस करने की जरूरत के बारे में बयान दिया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की आरक्षण पर टिप्पणी को अलबत्ता इससे नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि संघ ने बार-बार दोहराया है कि वह राजनीतिक नहीं, एक सांस्कृतिक संगठन है। हालांकि कम ही लोग मानते हैं कि संघ एक सांस्कृतिक संगठन है। ऐसे कितने सांस्कृतिक संगठन हैं, जो सरकार के साथ तीन दिवसीय विचार मंथन सत्र आयोजित करें, जिसमें लगभग सभी मंत्रियों और खुद प्रधानमंत्री की मौजूदगी हो, और ये तमाम लोग बताएं कि उन्होंने क्या किया है और आगे क्या करने वाले हैं?हमारे देश में कई ऐसे मामले हैं, जिन पर कोई व्यक्ति तीखा बयान देने से बचता है, जैसे विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं पर कोई सवाल नहीं उठाता। उसी तरह मंडल के दौर के बाद आरक्षण की नीति पर कोई सवाल नहीं खड़े करता।आरक्षण नीति को लेकर संघ परिवार को शुरुआत से ही आपत्ति रही है, लेकिन भाजपा के लिए आधिकारिक रूप से ऐसा कह पाना उतना ही मुश्किल है। मोहन भागवत ने पब्लिक स्पेस ने जो भी कहा वह ‘‘पालिटीकली करेक्ट’ था क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनका बोला क्योंकि वह जानता था कि उसका एक-एक शब्द एक बड़े समुदाय के लिये बोला जा रहा है।उन्हें मालूम है कि भारत में जाति आधारित आरक्षण एक ऐसा विवादित मुद्दा है, जिसपर ध्यान देने की जरूरत है । आमतौर पर यह मुद्दा लोगों के मन में सुषुप्तावस्था में रहता है, लेकिन इसे फिर भड़काने में ज्यादा देर नहीं लगती। गुजरात में पटेल समुदाय का हाल का प्रदर्शन इसका उदाहरण है। इस मुद्दे ने इतने लोगों को प्रदर्शन के लिए आकर्षित किया और राज्य सरकार को भयातुर हो कर इंटरनेट सेवाओं और एसएमएस पर रोक लगानी पड़ी। यह मुद्दा लोगों के दिल में बना हुआ है। आरएसएस के साथ भाजपा का रिश्ता और बिहार के आगामी चुनाव का मतलब यह था कि मोहन भागवत के बयान से भाजपा के खिलाफ दलित वोट लामबंद हो सकते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि भाजपा या किसी अन्य दल से कोई भी संघ प्रमुख के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हुआ। हालांकि, हमें देशहित को दीर्घावधि में देखना चाहिए। आरक्षण नीति का उद्देश्य होना चाहिये निष्पक्ष व अधिक समानता आधारित समाज का निर्माण। आरक्षण एक शॉर्ट कट है। यह समानता आधारित समाज के निर्माण का कामचलाऊ, कृत्रिम, लेकिन थोड़ा तेज तरीका है। यह अवसर निर्मित नहीं करती। यह सिर्फ किसी योग्य व्यक्ति से अवसर लेकर किसी और को सौंप देती है, विशुद्ध रूप से जन्म के आधार पर। ऐसा करके यह समाज को विभाजित करती है, यह साधारणता निर्मित करती है और प्रतिभा को हतोत्साहित करती है। निश्चित ही ऐतिहासिक रूप से और भारत के कुछ हिस्सों में अब भी पिछड़े वर्ग के लोगों को अवसरों से वंचित किया गया। उनके साथ भेदभाव हुआ। जातिगत आरक्षण के विरोध में बीजेपी और संघ हमेशा से रहा है । बीजेपी तो आर्थिक आधार पर आरक्षण के वकालत करते हुए इसे अपने घोषणापत्र तक में शामिल कर चुकी है । जब 1990 में मंडल कमीशन लागू हुआ था तब उसका विरोध करने में बीजेपी और संघ सबसे आगे रहे थे । कहीं ऐसा तो नहीं कि देश भर में आरक्षण के विरोध में माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है? दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स के प्रोफेरस अश्विनी देशपांडे और यूनीवर्सिटी ऑफ मिशिगन के प्रोफेसर थोमस विस्कोप्फ के वर्ल्ड डेवलपमेंट जर्नल में हाल ही में प्रकाशित शोध में ये साबित हुआ है कि सकारात्मक प्रयास यानि आरक्षण से योग्यता पर कोई फर्क नहीं पड़ता । दरअसल आरक्षण ये साबित करता है कि हजारों सालों से मुख्यधारा से अलग रखे गए समुदाय को यदि मौका मिले तो वो भी आगे बढ़ते सकते हैं। अवसरों की उपलब्धता से काबिलियत में बढ़ोतरी होती है ना कि कमी । 1980 से 2002 के बीच भारतीय रेलवे पर किए गए शोध में सामने आया कि आरक्षण के वजह से नौकरी करने वाले कई लोग सामान्य वर्ग के लोगों से अधिक कुशलता से काम करते हैं। लेकिन इन दिनों आरक्षण के खिलाफ दूसरी जातियों में बढ़ रहे विरोध को भुनाने की कोशिश की जा रही है? अनुसूचित जाति-जनजाति संबंधी एक आयोग के अध्ययन में उजागर हुआ कि अनुसूचित जाति के प्रत्याशी (जिसमें एससी व ओबीसी शामिल नहीं है) प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरियों (कुलीन वर्ग की नौकरियाें) में 1965 में एक फीसदी होते थे। 1995 के आते-आते प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरियों में उनका हिस्सा बढ़कर 10 फीसदी हो गया। 2015 में यह और भी बढ़ गया होगा। निष्पक्ष समाज निर्मित करने के उद्देश्य से बनाई इस आरक्षण नीति ने कुछ हद तक अपने लक्ष्य तो हासिल किया ही होगा । बेशक, चीजें बदली हैं।


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