28 अक्टूबर 2015
कहते हैं कि भारत ने ‘जीरो’ का आविष्कार किया था। कब- कैसे और किन परिस्थितियों में इसके ऐतिहासिक या वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं हैं। पर इसकी यहां जरूरत भी नहीं है। यहां फकत यही कहना है कि जिस भारत ने शून्य काे खोजा आज वही भारत शून्य होने की और बढ़ रहा है। 2020 तक भारत को दुनिया के शीर्ष पर देखने का सपना संजोए डॉ. अब्दुल कलाम क्या गए, प्रतीत होता है पूरे देश का गणित ही बिगड़ गया। खाद्य- अखाद्य पर बैन, दादरी, दलित हत्या, बलात्कार, स्याही से ललकार, मंत्रियों के गैरजिम्मेदाराना बयान, साहित्यकारों के इस्तीफों के बीच हर पार्टी और उसके नेता जिस स्तर पर उतर आये हैं, मात्र अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। विपक्षी ऐसे भोंपू बजा रहे हैं मानों मोदी अवैध रूप से जबरन कुर्सी पर बैठे हों। किसी को देशहित, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि धूमिल होने और उसके विदेशी निवेश पर पड़नेवाले प्रभाव की नहीं पड़ी है। आर्थिक सहयोग और मदद के साथ सबसे अहम मसला छा गया है निवेश का। आज किसी और देश को उतनी चिंता नहीं, जितनी दरकार भारत को है। भारत एक ऐसा देश है, जिसके सामाजिक जीवन और कानून-कायदे में उदारता और हर बदलाव को स्वीकार करने की सदिच्छा झलकती है। आज के आधुनिक भारत के लिए कोई भी अजनबी नहीं है। हम किसी के रहन-सहन, लिबास या भाषा से चौंक नहीं उठते, उसके प्रति संदेह से नहीं भर जाते। उसके ऊपर अपना कुछ थोपने की कोशिश नहीं करते। इसलिए किसी भी इलाके का कोई भी नागरिक यहां आकर खुश होता है। कुछ दिनों पहले एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में भारत निवेश के लिए सर्वश्रेष्ठ जगह बतायी गयी थी, चीन से भी बेहतर, तो इसके पीछे और बातों के अलावा यहां के सामाजिक परिवेश की भी कुछ भूमिका थी। अब दुनिया भारत और चीन की ओर देख रही है कि कौन एक दूसरे को मात देकर आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर कदम बढ़ाता है। अब दुनिया में आर्थिक हथियार सबसे धारदार बन गया है। पिछले 15 वर्षों में भारत में सबसे ज्यादा निवेश बीपीओ सेक्टर में हुआ है, जिसकी वजह थी भाषा को लेकर हमारा उदार रुख। थोड़े-बहुत तकनीकी ज्ञान और अंग्रेजी के बल पर इस सेक्टर में बड़ी संख्या में लोग रोजगार पा सके। पर इतना पर्याप्त नहीं है। हमें स्थायी किस्म का निवेश चाहिए, वह भी काफी बड़े पैमाने पर। भारत में ऐसे कल-कारखाने खुलने चाहिए, जो वर्षों चलें और जिनमें लाखों लोगों को काम मिले। यह तभी हो सकेगा, जब दूसरे देशों के लोग हमारे यहां सहज महसूस करें। विदेशी निवेशकों को लगना चाहिए कि उनके रहन-सहन, आचार-विचार को लेकर भारत में कोई आपत्ति नहीं करेगा। दशकों तक हेकड़ी दिखानेवाले ईरान और मद में चूर सद्दाम के इराक को भी राष्ट्र संघ की आर्थिक नाकेबंदी के चलते घुटने के बल चलकर शर्तें मानने को मजबूर होना पड़ा था। आज भारत में जो कुछ हो रहा है वह दुनिया के सभी देशों को क्या संदेश दे रहा है? भले ही कोई ‘शान’ का ढिंढोरा पीटे और विज्ञापन से विश्वास दिलाने की कोशिश करे लेकिन सच्चाई यह है कि ढोल के पोल से सारी दुनिया वाकिफ हो चुकी है। अब तो आया हुआ निवेशक भी गठरी उठाकर दबे पांव देश से बाहर होने को सोच रहा है। यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि आज भारत में एक तबका ऐसा व्यवहार कर रहा है, जिससे देश की उदारवादी और सर्वसमावेशी परंपरा की जड़ों पर चोट पहुंच रही है। उन्हें शायद पता नहीं है कि ऐसा करके वे अनजाने में या जान-बूझकर हमारी समृद्धि और विकास का रास्ता रोक रहे हैं। धर्म, जाति, उपजाति, आरक्षण, क्षेत्रीय संकीर्णता, हर क्षेत्र में शीर्ष तक पहुंच चुका भ्रष्टाचार, राजनीतिक अवसरवादिता और हिचकोले लेती अर्थ व्यवस्था को भले ही सबसे बड़े बाजार और सबसे सस्ती श्रमिक फौज की आड़ में कुछ समय के लिए छिपा लिया जाए लेकिन निवेश बिना वह कैसे पनपेगा? भारत की स्थितियों से विपरीत दूसरी ओर चीन में थ्यानमान चौक जैसे अनगिनत वाकिए, मानवाधिकार हनन की करोड़ों शिकायतें, जनता की दबाई गई आवाज और कम्युनिस्ट शासन होने के बावजूद दुनियाभर के निवेशक वहां लाइन लगाकर इसलिए खड़े हैं क्योंकि वहां सामाजिक शांति है। डेढ़ दशक पहले चीन द्वारा अपने दरवाजे दुनिया भर के लिए खोलते ही यूरोप के लगभग सभी देश, अमरीका, जर्मनी, जापान सहित सभी राष्ट्र इंडस्ट्रियल लॉ, श्रम कानून, न्यूनतम वेतन, श्रमिक भलाई से विमुख और कान में तेल एवं आंखों पर चश्मा लगाकर वहां पहुंच गए। उन्होंने इन समस्याओं पर इस तरह रिएक्ट किया मानों ये शब्द उन सबने पहली बार सुने हों। हमेशा जागरूक रहकर चीन के इन्हीं मामलों को विश्व मंच पर बुलंद करनेवाले ये देश सामाजिक शांति के तले सब कुछ भूलने को मजबूर हो गए। मेक इन इंडिया का नारा लगाना एक बात है और उसके लिए निवेश आये वैसा माहौल बनाये रखना बिलकुल दूसरी बात है तो यह देश के लिए अच्छा ही है कि मोदी- शाह की जोड़ी ने इस दिशा में सोचना शुरू कर दिया है।
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