29 अक्टूबर
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
मेरे पास आयुष नाम के एक स्कूली बच्चे का फोन अक्सर आता है। वह कौन है, कैसा है और उसके माता पिता क्या करते हैं यह मालूम नहीं पर वह जब भी फोन करता है ताे किसी वाद विवाद प्रतियोगिता के बारे में प्वाईंटस जानना चाहता है। उसकी जिज्ञासा की कशिश को महसूस करके मैं उसे इंकार नहीं कर सकता। हम भी जब बच्चे थे तो इस तरह की बहसों में भाग लेते थे। यह जरूरी है कि आप तर्क दें, बहस करें, अपनी बात कहें। वाद विवाद की खासियत यही भावना है। 70 से 80 के दशक में स्कूल में वाद-विवाद प्रतियोगिताएं बहुत लोकप्रिय होती थीं। हमें एक-दूसरे के खिलाफ तर्क रखना और दलीलें देना सिखाया जाता था। अगर हम अच्छा प्रदर्शन करते तो हमें दूसरे स्कूलों में वहां वाद-विवाद की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से मुकाबला करने भेजा जाता था। जब हम कॉलेज में पहुंचे तो वाद-विवाद की लोकप्रियता कई गुना बढ़ चुकी थी। मुद्दे भी बहुत जटिल और ज्यादा उत्तेजक हो गए थे। दरअसल, उस समय दुनिया कई अद्भुत तरीकों से बदल रही थी और हम सबको लगता था कि हम उस बदलाव के हिस्से हैं और इस बदलाव में हमारी भी भूमिका है। उस दौर में राजनीति चुनाव जीतने का मामला नहीं था। और उन दिनों लोगों की राय आमतौर पर प्रतिरोधी होती थी। युवा शक्ति के सामने बहुत ही ताकतवर सरकार को डगमगाते और गिरते देखा। हवा में बदलाव को महसूस किया जा सकता था। हर किसी के पास भिन्न दृष्टिकोण होता।समाज में जो भी बहस होती उसमें नए विचार सामने आते। उन दिनों मुद्दों को लेकर कोई लड़ने या हाथापाई करने पर उतर नहीं पड़ता था। लोग एक-दूसरे के खिलाफ जितने भी हथियारों का इस्तेमाल करते, उनमें सबसे तीखा होता था हाजिरजवाबी और सॉलिड तर्क।
राजनीतिक भाषण भी विचारों के उसी स्रोत से निकलते। उन दिनों सभाओं में उतनी भीड़ शायद ही कभी होती थी, जितनी आज होती है, क्योंकि किसी को भी खरीदे हुए श्रोताओं को ट्रकों में भर-भरकर लाने की जरूरत नहीं महसूस होती थी। उम्मीदों से भरे नौजवान वे भाषण सुनने जाते, क्योंकि वे उस नए भारत से संबंधित होते, जिसका हम सपना देख रहे थे। एक नए राष्ट्र का निर्माण हो रहा था और हम सबको लगता कि इसमें हमारी भी भूमिका है। इस नए राष्ट्र में जाति व समुदाय समान अवसरों के लिए रास्ता खुला करेंगे। उस दशक में दुनिया विचारों पर झगड़ रही थी, जब युवा छात्र शक्तिशाली सरकारों को भी अपने अन्यायी युद्धों पर फिर गौर करने के लिए मजबूर कर देते थे। एलन जिन्सबर्ग ने ‘हाउल!’ कविता लिखी थी, जो अमरीकी नौजवानों का गीत बन गया, जिसमें अमरीका की परमाणु ताकत को ओछा बताया गया था। किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई।पूरी राजनीति के केंद्र में असहमति और बहस होती थी। युवा छात्र हर राष्ट्र की आवाज हुआ करते थे।
अपनी ही सोच पर
ढेर सारे शक और
मुंह से निकलते नहीं लफ्ज़
जैसे कि हम बेजुबान हो गये।
आज असली बहस प्राय: उन लोगों द्वारा पटरी से उतार दी जाती है, जो अपने विरोधियों की देशभक्ति पर सवाल उठाने लगते हैं। किसी बहस व दलील को खत्म करने के लिए आक्रोश भड़काया जाता है, क्योंकि उसका बचाव या विरोध करने लायक बौद्धिक चतुराई तो किसी में है नहीं। इसलिए विचारक और तर्कवादी सॉफ्ट टार्गेट हैं।
आसमान से फरिश्ते जो उतर आएं
वो भी इस दौर में बोलें तो मारे जाएं
जो लोग दूसरा दृष्टिकोण अपनाने की दलील देते हैं उन्हें चिल्लाकर चुप कर दिया जाता है, क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल के पास खुद का बचाव कर सकने लायक बौद्धिक क्षमता नहीं है। इसलिए विद्वान भी अब अछूत हो गए हैं। अब हमारे सामने सिर्फ सामाजिक दर्जे से वंचित अचानक धनी बने लोगों का समूह और ऐसा राष्ट्र है, जो किसी भी कीमत पर आगे बढ़ना चाहता है।
जिनको पहनाया ताज
वही दौलत के गुलाम हो गये,
जिन ठिकानों पर यकीन रखा
वही बेवफाई की दुकान हो गये।
अब न तो रामराज्य का सपना है और ना अन्य कोई यूटोपिया। अब दौलत हमारा सपना है। ये दौलत चाहे जैसे आये और इसी के कारण विचार का स्पेस, आदर्श की जगह खत्म होती जा रही है। आज की समस्या यही है और आज की सारी विपदाओं की जड़ भी यही है।
दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का
कितना भद्दा मजाक है
कि हमारे चेहरों पर
आंख के ठीक नीचे ही नाक है।
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