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Tuesday, February 28, 2017

नोट बंदी और दो हज़ार के नोट छापने के पीछे थी एक साजिश

नोटबंदी और दो हजार के नये नोट छापने के पीछे थी एक साजिश

 

घाघ बैंकरों, राजनीति के चतुर पंडितों और शातिर व्यावसाइयों ने मिलकर रचा था षड्यंत्र

 

विदेशों में छिपाये कालेधन का शिगूफा बेकार, सबकुछ सफेद होकर लौट चुका है देश में

 

हरिराम पाण्डेय

 

कोलकाता :नोटबंदी के घोषित उद्देश्य के पीछे एक गहरी साजिश का पता चला है। मोदी जी जब लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे थे तो उन्होने कहा था कि देश के बाहर इतना काला धन है कि अगर वह देश में आ जाय तो सबके खाते में लाखों रुपये जमा हो जायेंगे। इस जुमले को लुटेरे व्यापारियों और बैकरों ने खूब उछाला। बात इतनी फैलाई गयी कि वह सच लगने लगी। यह एक तरह की विषम जंग थी जो चुनावी जंग से अलग थी। दरअसल,  जंग कई तरह की होती है। जो युद्ध फौज लड़ती है वह पहली पीढ़ी का युद्ध है और विषम युद्ध दूसरी से पांचवी पीढ़ी की जंग है। मसलन, आंतकवाद दूसरी पीढ़ी का युद्ध है और देश के बाहर दौलत ले जाकर उसे सफेद करना ताकि देश अपने आर्थिक संसाधनों को विनष्ट होने से बचा न सके यह तीसरी पीढ़ी की लड़ाई है। खुलेआम आर्थिक लूट ओर सूचना प्राविधिकी को अस्त व्यस्त कर देना पांचवी पीढ़ी की जंग है। पहली पीढ़ी की लड़ाई फौजें ललड़ती हैं ओर दूसरी से पांचवीं पीढ़ी की जंग खुफिया एजेंसियां, बैंकर और लुटेरे व्यावसाई मिल कर लड़ते हैं। ऐसा अक्सर नहीं होता कि आप सोकर उठें और आपकी जेब में पड़ा सबसे बड़ा नोट कागज का टुकड़ा भर रह जाय और डोनाल्ड ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति हो जाएं। एक नजर में ये दोनों घटनाएं असम्बंधित हैं लेकिन सन्मार्ग ने अपनी चार महीने की जांच में पाया कि दोनों में गहरा सम्बंध है। जरा गौर करें कि संयोगवश ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे की तीन दिवसीय भारत यात्रा के तुरत बाद नोटबंदी की घोषणा हुई। भारत में 7 नवम्बर को अपने अंतिम भाषण में थेरेसा मे ने मुक्त व्यापार और भूमंडलीकरण की वकालत की थी जबकि पूरी दुनिया में इसपर संदेह जाहिर किया जा रहा है। यह भी संयोग ही था कि नोटबंदी की घोषणा के साथ ही अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव खत्म हुआ। नोटबंदी के ऐलान के 12 घंटे के भीतर डालर के मुकाबले रुपया बुरी तरह पिट गया। राष्ट्रपति चुनाव के बाद रुपया डालर के भाव सुधरने लगे। जो लोग राष्ट्रपति चुनाव और भारतीय आर्थिक नीतियों के बारे में जानते हैं उन्होंने इसी दरम्यान भारी दौलत पैदा कर ली।

इधर भारत में पहले से ही दो हजार के नोट की छपाई आरंभ हो चुकी थी​, जो कि शुरू में गोपनीय रही। यह साधारण गणित है कि अतिमुद्रास्फीति (हाइपर इन्फ्लेशन) की सूरत में बड़े नोट छापे जाते हैं ताकि खरीदारों को ज्यादा दिक्कतें ना हो। यहां एक परवर्ती प्रश्न है कि क्या हम अतिस्फीति की ओर बढ़ रहे हैं। सरकार को इसका संकेत मिलने के कारण नोट छापने का काम शुरू हुआ और जब कुछ नोट छप गये तो नोटबंदी की घोषणा कर दी गयी। प्रदर्शित यह किया गया कि यह घोषणा हठात की गयी है पहले से कोई तैयारी नहीं है। इस अचानकपने को भी विभिन्न स्रोतों के जरिये खूब फैलाया गया ताकि आम लोग भरोसा कर लें और गड़बड़ ना हो।  

 

कालाधन कहां गया ?

 

नोटबंदी के समय सरकार ने घोषणा की थी कि कालेधन पर अंकुश लगाने और आतंकवाद को मिटाने के लिये यह कदम उठाया गया है। जनता को यह समझाया गया था कि कालाधन अपने देश में आलमारियों में या ट्रंकों में या बिस्तरों में या जमीन के भीतर दबा कर रखा जाता है ओर नोटबंदी से सरकार इसे बाहर करना चाहती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि कालेधन का बहुत बड़ा भाग देश से निकल विदेशों में सुरक्षित कर आश्रयों (टैक्स हेवन्स) में पहुंच चुका था और वहां से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डी आई) की शक्ल में भारत आ चुका था। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2012 से मार्च 2015 के बीच मारीशस, सिंगापुर , इंग्लैंड, जापान, नीदरलैंड्स , अमरीका, साइप्रस, जर्मनी, फ्रांस और स्विटजरलैंड से कुल 6890 करोड़ डालर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ जिसमें केवल मारीशस से 2012-13 में 1000 करोड़ डालर, 2013- 14 में 500 करोड़ और 2014- 15 में 800 करोड़ डालर का प्रत्यक्ष (एफ डी आई ) हुआ जबकि इसी अवधि में सिंगापुर से 200 करोड़ डालर , 600 करोड़ डालर और 800 करोड़ डालर का निवेश हुआ, टैक्स चुराने और कालाधन जमा करने वालों के लिये स्वर्ग के नाम से कुख्यात स्वीटजर लैंड 50 करोड़ डालर भी नहीं आया। काले धन की इस यात्रा को ‘राउंड ट्रिपिंग’  कहते हैं। ‘राउंड ट्रिपिंग’ का अर्थ है कि एक देश से काला धन के निकल कर दूसरे देश में जाना और वहां से फिर किसी नयी शक्ल (जैसे एफ डी आई ) में उसी देश में लौट आना जहां से वह धन गया था। इसलिये लिये एफ डी आई के सबसे बड़े स्रोत वही देश हैं जहां काले धन जमा करने की सबसे ज्यादा छूट है।

 

 क्या हुआ दर असल  

 

अमरीका और यूरोप में 2008 में आर्थिक मंदी आई। कई देश दिवालिया होने की कगार पर आ गये और कई देशों में आंदोलन शुरू हो गये। सबको मालूम था कि अगर मंदी से जीवन शैली प्रभावित हुई तो हो सकता है शीत युद्ध का जमाना लौट आये। बैंकरों, राजनीति के चतुर पंडितों और शातिर व्यावसाइयों ने मिल कर रणनीति बनायी। अमरीका ने खुफिया एजेंसियों की मदद से लीबिया में युद्ध भड़का दिया। दिखाने के लिये इसका उद्देश्य था वहां लोकतंत्र और मानवाधिकार की रक्षा। इसी के परदे में वहां से दो खरब डालर खींच लिये गये। अर्थ व्यवस्था को दम मारने की ताकत मिली। इधर भारतीय कालाधन जो विदेशों में जमा था उसे भी खतरा बढ़ने लगा। मनमोहन सिंह इस हकीकत को जानते थे। 2012 में देश के आर्थिक सम्पादकों की एक बैठक में मामोहन सिंह ने कालेधन का जिक्र करते हुये कहा था कि विदेशों उसे जमा करने वाले पछतायेंगे , वह धन खुद ब खुद खत्म हो जायेगा। लगभग उसी समय से कालेधन को भारत लाये जाने की बात का प्रचार शुरू हुआ। मोदी जी का आना उसी प्रचार का अंग है।

 

फिर नोटबंदी क्यों हुई

 

नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि देश में कालाधन मामूली था।  सच तो यह है कि जिन विदेशी स्रोतों के माध्यम से यह हवा बनायी गयी थी उन्हें लाभ पहुंचाने के लिये यह कदम उठाया गया। अभी भी एक बात छिपायी गयी है कि दो हजार के नोट क्यों छापे गये और कब छापे गये? सरकार के आर्थिक सलाहकार और उसके पक्ष के अर्थशा​िस्त्रयों को यह मालूम है कि अतिमुद्रास्फीति आने वाली है। भयंकर महंगाई होगी। वैसी सूरत में छोटे नोटों से काम नहीं चलेगा।

यही नहीं जो नये नोट छापे गये और जिनके पूरी तरह भारतीय होने का ढोल पीटा गया वे पूरी तरह भारतीय नहीं हैं। रिजर्व बैंक के सूत्रों ने सन्मार्ग को बताया कि इसके लिये 1.6 करोड़ टन कागज इंगलैंड से आयात किया गया है। नोट में लगने वाल सिक्यूरिटी थ्रेड इंगलैंड, यूक्रेन और इटली से मंगाया गया है। नोट की छपाई के लिये प्रयोग किये जाने वाले इंटैग्लो इंक भी विदेश से मंगाकर राजस्थान, मध्यप्रदेश और सिक्किम की कम्पनियों ने सप्लाई किया है। दिलचस्प बात तो यह है कि ये सारी वस्तुएं अलग अलग जगहों से इंगलैंड की एक ही कम्पनी सप्लाई कर रही है और वह कम्पनी पाकिस्तान के करेंसी नोट भी छापती है। यह सब कई हफ्ते से चल रहा था। इतनी बड़ी तैयारी के बाद नोटबंदी की घोषणा की गयी और देश को बताया गया कि सब अचानक हुआ है। देश को अंधेरे में क्यों रखा गया? इसे साजिश नहीं तो और क्या कहा जाय। एक और प्रश्न अनुत्तरित है कि आखिर उसी खास कम्पनी की ही सेवाएं क्यों ली गयीं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने की प्रक्रिया जारी है।

एक तरफ ‘हाइपर इन्फ्लेशन’ की ओर बढ़ती अर्थ व्यवस्था और दूसरी तरफ बेईमान व्यवसाइयों की हमारी अर्थ व्यवस्था में सेंध, आने वाले दिन कैसे होंगे इसका सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है।  

 

 

 

 

 

    

दूध – दूध हे वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं ’

दूध – दूध हे वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं ’

 

 कई दशक पहले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था

 

हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं

दूध – दूध हे वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं

 

तेजी से विकसित होता हमारा देश मोह , माया, कोमलता , नफासत जैसे मानवीय सद्गुणों के  के खोने के अलावा कई भौतिक सम्पदा भी खोता जा रहा है। इनमें पर्यावरण के बाद दूसरी दौलत है हमारे देश का गोधन यानी दुधारू पशु। यह विकास का दंड है कि आर्थिक समृद्धि के बढ़ने के साथ साथ जमीन पर दबाव बड0 रहे हैं, शहर फैल रहे ओर उसी अनुपात में खेती सिकुड़ रही है , साथ ही कृषि के मशीनी करण के कारण गोधन पालन का रिवाज खत्म होता जा रहा है।इसका आवांतर दुष्प्रभाव है कि चारे का उत्पादन तेजी से घट रहा है क्योंकि उसकी खपत नहीं है। अब धीर धीरे हालत यह होने जा रही है कि अगर  अगले तीन वर्षों में चारे का अत्पादन लगभग दोगुना नहीं हुआ तो अगले पांच वर्षों में हमारे बच्चे दूध के बगैर बिलबिलाने लगेंगे। जिस देश कभी दूदा की नदियां बहतीं थीं , जिस देश के दर्शन में पालनहार भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं उस देश को अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिये विदेशों से दूध का आयात करना होगा। स्टेट ऑफ इंडियाज लाइवलीहुड की ताजा रपट के मुताबिक अगले पांच साल में देश में दूध की खपत 2100 लाख टन बढ़ जायेगी यानी 2020-21 तक दूध की खपत 36 प्रतिशत बढ़ने वाली है यानी प्रतिवर्ष 5.5 प्रतिशत की दर से उत्पादन में वृद्धि होगी तब यह टार्गेट पूरा हो सकता है। जबकि नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि 2015- 16 में दूध का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में 0.1 प्रतिशत बड़ा है। दूध का उत्पादन लक्ष्य प्राप्त करने के लिये भारत में 2020 तक 17640 लाख टन चारे का उत्पादन करना होगा जबकि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि फिलहाल 9हजार टन चारा ही उपलब्ध है। यानीमोटे तौर पर 49 प्रीतिशत चारे की कमी है। आई आई एम बंगलोर की एक रपट के अनुसार लोगों की रहन सहन की आदतें ओर आर्थिक सम्पन्नता के बढ़ने के फलस्वरूप दूध की निजी खपत 1998-2005 के 5 प्रतिशत से बढ़कर 2005 से 2012 के बीच 8.5 प्रतिशत वार्षिक हो गयी। दूध की तेजी से बढ़ती खपत के कारण दूध की कीमतें तेजी से बढ़ रहीं हैं। स्टेट ऑफ इंडियाज लाइवलीहुड 2015 की रपट के अनुसार दूध की कीमतें पिछले वर्ष की तुलना में 16 प्रतिशत बढ़ीं हैं। हालांकि पिछले दिन दूध का अत्पादन बड़ रहा था 2015 में समाप्त हुये दशक में दूध का उत्पादन पूर्व के दशक के 920 लाख टन से बढ़कर 1460 लाख टन हो गया था पर चारे के अभाव के कारण यह उत्पादन तेजी से गिर रहा है। दूध की क्वालिटी और मात्रा दोनों का चारे से सीधा सम्बंध है। भारत के गोधन का दूध उत्पादन दुनिया के दुधारू पशुओं की तुलना में लगभग आधा (48%) है। प्रति दुग्ध अवधि (लैक्टेशन पिरीयड) का वैश्विक औसत 2038 किलोग्राम है जबकि भारत का औसत 987 किलोग्राम है। देश में सबसे ज्यादा दूध का उत्पादन तीन राज्यों में होता है। इनमें पंजाब , हरियाणा और राजस्थान क्रमश:  प्रथम , द्वितीय और त़ृतीय हैं। अगर  प्रतिव्यक्ति ग्राम प्रतिदिन के आंकड़ों को देखें तो  औसतन पंजाब में 1032 ग्राम , हरियाणा में 877 ग्राम और राजस्थान में 704 ग्राम है जबकि राष्ट्रीय औसत 337 ग्राम है। आम तौर पर दुधारू पशुओं को तीन तरह का चारा खिलाया जाता है, जैसे हरा चारा , सूखा चारा और खली तथा अनाज वगैरह। लेकिन देश में चारे का भारी अभाव है। यहां कुल कृषि योग्य भूमि के केवल 4 प्रतिशत भाग में चारा उगाया जाता है।  आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल जरूरत का महज 63 प्रतिशत हरा चारा, 24 प्रतिशत सूखा चारा और खली तथा अनाज वगैरह मात्र 76 प्रतिशत उपलब्ध है।  अगर कृषि संसदीय समिति की 2016 की रपट को मानें तो देश में दूध की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये पशु चारे की उपलब्धता को दोगुनी करनी होगी। फसल उगाने के बाद जो डंठल बचती है जैसे धान का पुआल या गेहूं का भूसा इत्यादि वह पशु चारे का सबसे बड़ा स्त्रोत है। लेकिन कृषि के मशीनीकरण के कारण ये डंठल बेकार माने जाते हैं ओर अनहें खेतों में ही जला दिया जाता है। इसका दोहरा दुष्प्रभाव होता है। इक तो चारे की कमी और दूसरा पर्यावरण का सत्यानाश। स्टेट ऑफ इंडियाज लाइवलीहुड की ताजा रपट के मुताबिक अगर अत्पादन का अचित विकास नहीं किया गया तो देश को आयात की ओर देखना होगा। चूंकि भारत बहुत बड़ा उपभोक्ता है तो बेशक कीमतें बहुत तेजी से बढ़ेंगीं। दुधारू पशुओं को पालने में जो खर्च लगता है उसका 60 से 70 प्रतिशत खर्च केवल उन्हें खिलाने में लगता है। स्टेट ऑफ इंडियाज लाइवलीहुड की ताजा रपट में यह सुझाव दिया गया है कि भूमिहीन ओर छोटे किसानों के लिये इन दिनों गोपालन या डेरी फार्मिंग आय का अच्छा पूरक बन सकता हे। उनकी आमदनी में 20 से 50 प्रतिशत वृद्धि हो सकती है। साथ ही दूध का धंधा साल भर चल सकता हे। इसके विपरीत अगर दूध उत्पादन को प्रोत्साहित नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में बच्चे , बूढ़े ओर बीमार लोग दूध के लिये तरसेंगे।

दूध – दूध दुनिया सोती है लाऊं दूध कहां किस घर से

दूध –दूध हे देव गगन के कुछ बूंदें टपका अम्बर से         

 

 

Monday, February 27, 2017

लोकतंत्र पर बढ़ता खतरा

लोकतंत्र पर बढ़ता खतरा
अक्सर देखा जा रहा है कि देश का लोकतंत्र तनाव में है और इसके कारण अक्सर बढ़ते जा रहे हैं। हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि यद्यपि हमारा संविधान स्वतंत्त भारत में बना हैलिकिन इसकी नींव गुलामी के दिनों में रखी जा चुकी थी। अब जैसे कि विधान सभाओं या संसद या अन्य किसी भी लोतांत्रिक संस्था के सदस्य के चयन के लिये मतदान। मत देने का अधिकार भारत (ब्रिटिश) सरकार अधिनियम 1935 के आधार पर है। उस समय वही भारतीय मत दे सकते थे जिनके पास जगह- जमीन हो या टैक्स देते हैं। अब कंस्टीटुयेन्ट असेंबली के लिये मतदेने वालों में भारत के कुल वयस्क लोगों की आबादी के 14 से 16 प्रतिशत ही वोट देने के अधिकारी थे। भारतीय दंड संहिता (आई पी सी ) का मसौदा 1860 में मेकॉले ने बनायी थी। आज भी आई पी सी के बहुत हिस्से मेकॉले के मसौदे से प्रभावित है। मसलन देशद्रोह का कानून। यह कानून सिपाही विद्रोह के 13 वर्ष बाद 1870 में बना था। इसके अनुसार ऐसा कोइै भी अपराध जिसमें सम्राट के खिलाफ अनादर दिखता हो देश द्रोह है। महात्मा गांधी इसे इस तरह के भी कानून का राजकुमार कहते थे। क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें इसी के तहत गिरफ्तार किया जायेगा। इस कानून के दुरुपयोग का ताजा उदाहरण दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में फरवरी 2016 में छात्र नेताओं की गिरफ्तारी है। तीन छात्र नेताओं को दिल्ली हाइकोर्ट ने इन आरोपों से मुक्त कर दिया। लेकिन यह सच है कि छात्र या सामाजिक कार्यकताओं पर सेकुलर सरकार या दक्षिणपंथी लोग गलत आरोप लगाते हैं और अन आरोपों के तहत उन्हें फंसाया जाता है। उदाहरण के तौर पर देखें कि दिलली सरकार के 14 मंत्रियों को विगत दो वर्षों में मामूली आरोपों पर गिरफ्तार किया गया। अभी हाल में 22 फरवरी 2017 को दिलली के रामजस कॉलेज में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने बारी मारपीट की और तोड़ फोड़ किये। मार खाने वालों में कॉले​ज के कर्मचारी और छात्र शामिल थे। इसमें कई लोग बुरी तरह घायल भी हो गये। पुलिस वहां तैनात थी पर महिलाओं से धक्कामुक्की करने , लोगों तथा मीडिया को बाहर निकालने एवं कैमरों या मोबाइल्स से फोटो साक्ष्य मिटाने में लगी थी। मानों उनहें उपर से यह निर्देश हो। अबतक पुलिस या गृहमंत्रालय की ओर से कोई उचित खेद प्रकाश भी नहीं सामने आया। पलिस पर कार्रवाई होती भी तो कैसे? क्योंकि साफ दिख रहा था कि उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री और उनके चहेते अमित शाह राज्य के दिलो दिमाग को बांटने में लगे हैं। हालांकि ब्रिटिश राज ने हमारे लोकतंत्र को और भी अत्याचारपूर्ण कानून विरासत में ज्दिया है। भारत छोड़ो आंदोलन के ठीक पहले सरकार ने सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम बनाया। यह कानून बड़ा विवादास्पद था। इन दिनों वह कानून सशस्त्र सेना (विशेष अ​धिकार) अधिनियम के नाम से विख्यात है। इसका उपयोग जम्मू कश्मीर और मणिपुर में किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में अपने एक फैसले में इस कानून को लोकतंत्र का मजाक बताया है। क्या विडम्बना है कि हमारे देश के किसी कोर्ट का कोई फैसला किसी बी प्रांत में या देश भर में कानून नहीं बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून के बारे में बहुत सटीक व्याख्या है पर इससे न्याय का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता है। यही नहीं लोकतांत्रिक संस्थाएं भी निर्बल होती जा रहीं हैं। यही नहीं जजों की बहाली नहीं हो पा रही है हजारों पद गालली पड़े हैं। चुनाव आयोग को नेता-मंत्री ठेंगे पर रखते हैं। अभी यू पी में चल रहे चुनाव में मोदी जी ने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वे किसानों के कर्ज माफ करदेंगे। यह खुली रिश्वत है ओर चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पा रहा है। यहां तक कि मोदी जी के फेवरिट अमित शाह ने कांग्रेस , सपा और बसपा के प्रथम अक्षरों को मिला कर ‘कसाब’ बनाया है। इससे अजमल कसाब की झलक मिलती है। यह आई पी सी की धारा 153 ए के तहत अपराध है। अब अगर चुनाव आयोग इस पर संज्ञान नहीं लेता है तो वह क्या करेगा? पुलिस और न्याय पालिका को क्या अधिकार हैं? यहां तक कि मोदी जी और उनकी एक मंत्री स्मृति इरानी की डिग्री का विवाद अभी तक नहीं सुलझा जबकि दिल्ली हाइ कोर्ट ने सी आई सी को आदेश दिया कि वह इनकी डिग्रियों का रहस्य खोले।

कुल् मिला कर भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं अशक्त होती जा रहीं हैं। जिनलोगों पर इसे मजबूत बनाने का जिम्मा है वे बी इसे कमजोर बनाने पर तुले हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया है जो अर्से से चल रही है। यह किसी एक पार्टी से जुड़ी नहीं है। इंदिरा जी के शासन काल में लगी इमरजेंसी तो इतिहास बन गयी। इस सबके बीच जनता पिस रही है।     

Sunday, February 26, 2017

कंसास की घटना से मिलते संकेत

कंसास की घटना से मिलते संकेत

 

अमरीका के कंसास शहर में एक अमरीकी ने दो भारतीय इंजीनियरों को एक बार में केवल इसलिये गोली मार दी कि वे अमरीकी नहीं थे और उन्हें गालियां दे रहा था तथा अमरीका से जाने के लिये कह रहा था और भारतीय इंजीनियरों ने इसकी शिकायत बार चलाने वालों से कर दी और उन्होंने उसे बाहर निकाल दिया। इसे घृणाजन्य अपराध कहा जा रहा है तथा इसका असर अमरीका के अन्य भागों में भी पड़ने की आशंका है। जबसे अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ‘अमरीका पहले’ का नारा दिया है तबसे वहां सामाजिक शत्रुतापूर्ण वातावरण बनता जा रहा है। भारतीय डरे हुये हैं, असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। ट्रम्प प्रशासन का ज्निवार्सन के कानून के प्रस्ताव ने अमरीका में इतना भय पैदा कर दिया है कि वहां भी भारत के स्लम निवासियों या तेल से अमीर हुये खाड़ी के देशों में बाहर से आये मजदूरों या चीन के आंतरिक प्रवासी मजदूरों की तरह एक नये वर्ग के बनने की आशंका हो गयी है। अमरीका में 110 लाख ऐसे प्रवासी मजदूर हैं जिनके रोजगार का कोई रेकार्ड नहीं है। इतनी बड़ी आाबादी और उनके परिजन अचानक गुम हो जायेंगे। वैधानिक व्यवस्था से अलग इतनी बट़ी आबादी अपनी मजदूरी को दूसरे को सौंप देने या वेश्यावृति जैसे दांदों में पड़ कर गंभीर शोषण का शिकार होंगे। औपचारिक सुरक्षा और सुविधाओं से वंचित वह आबादी मजबूरन अनौपचारिक विकल्पों की ओर बढ़ेगी और इससे भ्रष्टाचार के मौके बड़ेंगे, गुडों के गिरोह तैयार होंग या अन्य तरह के अपराध बढ़ेंगे। प्रशासन ​जिस लाभ के लिये प्रवासियों पर शिकंजा कस रहा है उसके परिणाम ठीक विपरीत होंगे। समाज एक जुट नहीं होगा, टुकड़ों में बंट जायेगा। अप्रमाणिक प्रवासियों की तादाद खत्म होने की बजाय एक नयी परिस्थति जन्म लेगी जिसे संभालना कठिन हो जायेगा। अमरीका में अप्रमाणिक प्रवासी सदा कूड़ेखाने की जिंदगी गुजारते हैं। यह एक ऐसी आाबदी हे जिसे सरकार नजरअंदाज कर देती है और लोग उन्हें झेलते हैं। राष्ट्रपति ट्रम्प के नये नियम से अप्रमाणिक प्रवासियों पर बोझ बढ़ेगा और जिसका दुष्प्रभाव समाज पर पड़ेगा। इस तरह के अधोवर्गय समुदाय का उद्भव कानून ओर हकीकत के बीच बड़ा अंतर आ जाने से होता है। अब जैसे भारत का उदाहरण लें। यहां के स्लम अक्सर गरीबी से संघर्ष के उदाहरण हैं। लेकिन ये स्लम ये भी बताते हैं कि भारत की सरकार अपनी तेजी से बढ़ रही आबदी को सुविधाएं मुहय्या नहीं करा पा रही है। जो लोग गांवों से शहरों में आते हैं उन्हें किफायती आवास नहीं मिल पाते इसलिये जो गैर कानूनी आवासन स्थल ौ वहीं लोग आ जाते हैं। इन स्लम वासियों को शहरों में लोग बर्दाश्त करते हैं क्योंकि ये उनकी सुख सुविधाओं में मदद करते हैं, जैसे घरेलू  नौकर या दाई से लेकर भंगी, आया, सफाईवाला इत्यादि। परंतु इसके साथ एक जोखिम भी बना रहता है कि स्लम को साफ कर दिया जायेगा क्योंकि शासन के आकलन में उसका अस्तित्व नहीं है। इस तरह के निवासी सरकार की सभी सेवाओं को हासिल नहीं कर पाते यहां तक कि पुलिस की मदद भी उन्हें पूरी नहीं मिलती। अमरीका में भी अप्रमाणिक प्रवासियों की स्थिति यही है। हालांकि वे स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं पर गलत समय में गलत जगह पर फंसे होने के कारण उन्हें निर्वासन का दंड भोगना होगा। इसके पहले के प्रशासन ने अपराधियों को खदेड़ने का अभियान चलाया था और इससे अप्रमाणिक प्रवासियों को एक तरह रहने की इजाजत मिल गयी थी। साथ ही शासन से बुनियादी बातचीत का रास्ता खुला, सुरक्षा का एक भाव पैदा हुआ।  नये प्रशासन ने जो निर्वासन कानून बनाया उससे दुबारा अनिश्चयता का भाव पैदा हो गया है। मध्यपूर्व के खाड़ी के देशों का अदाहरण लें। वहां मजदूर प्रवासी हैं उनके निवास पद्धति को काफला पद्दाति कहते हैं। इसमें जो निमार्ण में काम करने वाले या घरों में काम करने वाले अकुशल मजदूर रहते हैं उनके लिये नियोजक खुद कानून बना सकते हैं और लागू कर सकते हैं। इसके कारण उनकी रोजी रोटी या जीवन सबकुछ नियोजक की इच्छा पर निर्भर रहता है। अब जबकि इक बड़ा समुदाय इस तरह का जीवन बितायेगा तो उसका असर पूरे समाज पर पड़ेगा। कोलकाता या मुम्बई में अंडर वर्ल्ड के उत्थान का इतिहास देखें तो वह स्लम से ही शुरू होता है। जे एफ रिबेरो की पुस्तक ‘फ्रॉम रामपुरी टू ए के 47’ के अनुसार ‘‘कुछ लोग गिरोहबंद हो कर वहां के बाशिंदों की हिफाजत करते हैं और बाद में अपना अपना इलाका बांट लेते हैं। अब उस इलाके में रहने वाले लोग इस ​िफाजत की कीमत चुकाते हैं और फिर उसे अपना संरक्षक मान लेते हैं।’’ अमरीका में प्रवास की पाबंदी ने भी कुछ ऐसा कर दिया है। अप्रमाणिक प्रवासी धीरे धीरे अपराधी बन रहे हैं , वे तस्करी से जुड़ गये हैं या फिर लोगों को चोरी छिपे अमरीका लाने और बाहर निकालने के काम में लग गये हैं। ट्रम्प के नये नियम इसे और व्यापक और घातक स्वरूप दे देंगे। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के प्रो सियान फॉक्स के मुताबिक ऐसे इलाकों में सब ताल मेल बना कर चलते हैं। जो लोग मजदूरी करते हैं वे उसका कुछ हिस्सा वहां के गुंडों को दे देते हैं बदले में वे गुंडे उनकी हिफाजत करते हैं। एक सामंजस्य बना रहता है ओर सबकुच् ठीक ठाक चलता है। इसे खत्म करने का मतलब है तालमेल को खत्म करना। इससे समाज प्रभावित होगा। कंसास की घटना से कुछ ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं। अमरीकी समाज में भारी विपर्यय की आशंका बढ़ रही है।