विकास के लिए नफरत को छोड़ना ज़रूरी
इन दिनों चारों तरफ भीड़ के हमलों की चर्चा है. भभरत में गौ व्यापार की तिजारत में लगे असामाजिक तत्व हिन्दू धर्म की आड़ में मुस्लिमों और दलितों पर हमले कर रहे हैं. बंगला देश में हिंदुओं पर हमले हो रहे है, म्यांमार में रोहिंगाओं पर हमले हो रहे हैं, पाकिस्तान में एक ईसाई को केवल इस लिए गिरफ्तार कर लिया गया कि उसने ईशनिंदा की है, श्री लंका में तमिलों को मारा जा रहा है , नेपाल में मधेसियों का हक संविधान की आड़ में छीन लिया गया. अगफगानिस्तान में मूल निवासियों और बाद में आकर बसे लोगों में संघर्ष चल रहा है. दुनिया में दक्षिण एशिया के अलावा शायद ही कोई ऐसा देश है जहां इस तरह होता हो. इसका मुख्य कारण पहचान की सियासत ( आइडेंटिटी पॉलिटिक्स ) है जो धर्म से प्राप्त फिरकापरस्ती पर आधारित आचरण को जन्म देता है. इसमें दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण एशिया के सभी देश लोकतान्तरिक व्यवस्था वाले देश हैं और ऐसी घटनाएं वक्त की हुकूमत की जानकारी में होती हैं.के बार तो ऐसे मामलों में वक्त के हाकिम की शाह भी होती है. संक्षेप में कहें तो पूरे क्षेत्र में कमजोर के विरूद्ध भीड़ को सरकारें शक्ति प्रदान करतीं हैं. दो दिनों के बाद 15 अगस्त है. भारत की स्वतंत्रता के 70 साल पूरे हो गए है. इस तारीख को 70 साल पहले दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी आबादी का भविष्य बदल गया था. अतएव इस दिन औपचारिक तौर पर ही सही सभी लोग आकलन करते हैं कि इन 70 वर्षों में हमने क्या खजोया और कितना पाया. यह तो साफ है कि पहचान की सियासत इस क्षेत्र के देशों के समाज के दिलों दरार पैदा कर रही हो. समाजिक आर्थिक दिशा में कितनी उपलब्धियां हो रहीं हैं इस पर कोई ध्यान ही नही देता है, नतीजतन इस क्षेत्र में मानव विकास का ग्राफ सबसे नीचे है. जब सरकार भीड़ को यह हक देती है कि उसके लक्ष्यों को वह तय करे तभी आर्थिक और सामाजिक प्रगति पिछड़ जाती है. मानव विकास की धीमी गति को बताने के लिए वर्ग महत्वपूर्ण है पर पहचान की राजनीति इसकी असफलताओं पर पर्दा डाल देती है.
भारत में विविधता को देखते हुए स्थिति और भी खराब है. पहले की सरकारें सफलतापूर्वक पहचान की सियासत को अवैध बना दिया था. बेशक भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के आंदोलन हुए पर वे आंदोलन सामाजिक एकतावादी थे अलगाववादी नहीं थे. पर 1980 से यह बदलने लगा. उत्तरप्रदेश जो आकार में फ्रांस और जर्मनी दोनों के मिलाने के बाद बने भूक्षेत्र के बराबर है विगत तीन दशकों में तीन अलग अलग पार्टियों के शासनाधीन रहे और किसी ना किसी रूपमें पहचान की सियासत को हवा देते रहे. लिहाज़ा यह राज्य मानव विकास के मामले में देश में सबसे पिछड़ा रहा. अब यह पहचान की सियासत राज्य की सीमा लांघ कर केंद्र में पहुंच गई. अब सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदाय की मदद लेने लगे. दक्षिण एशिया में जातीय वैविध्य है और ऐसी स्थिति में पहचान की राजनीति सामाजिक एकता को खतम कर देती है और सामाजिक विकास की राह में अवरोध पैदा करती है. जिस देश में विशाल अल्पसंख्यक समुदाय है उस देश में भी कमोबेश यही होता है. इससे यह तय है कि भारत जैसे देश में भी अगर सामाजिक एकता नहीं बनती तबतक विकास का सपना पूरा नही होगा. प्लेटो का कहना था कि अगर शासक दार्शनिक होंगे तभी शान्ति कायम हो सकती हैं. राधाकृष्णन का मानना था कि विपदा के समय कवि ही राह दिखाते हैं. वुरोप में 1930 में युद्ध के बादल मंडराने लगे थे तब डब्लू एच ईडन ने लिखा कि ,
अंधेरे के दुःस्वप्न में ,
यूरोप के कुत्ते भोंकते हैं
और अन्य राष्ट्र शांति से रहते हैं
लेकिन सब नफरत में डूबे हैं.
इन पंक्तियों और हमारी सामूहिक दशा में कुछ समानता है बस फर्क यह है कि उस काल के यूरोप में नफरत के निशाने पर अन्य मुल्क थे यहां नफरत के निशाने पर हमारा समाज है. हम नफरत के नतीजों से बच नहीं सकते जबकि उसके निशाने पर हम नहीं हैं. जबतक नफरत नहीं मिटेगी तबतक विकास नहीं हो सकता.
Friday, August 11, 2017
विकास के लिए नफरत को छोड़ना ज़रूरी
Posted by pandeyhariram at 7:54 PM
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