CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Wednesday, August 23, 2017

बैंकों की  हड़ताल क्यों

बैंकों की  हड़ताल क्यों

देश के बैंकों कि लगभग 10,300 शाखाओं के 12 लाख से कर्मचारी मंगलवार को हड़ताल पर रहे. यह हड़ताल बैंकों के प्रति सरकार की नीतियों के विरोध में थी .इस हड़ताल से अनुमानतः 7300 करोड़ रूपए के वित्तीय साधन संपादित नहीं किये जा सके. इस हड़ताल का आह्वान यूनाइटेड फोरम ऑफ़ बैंक यूनियन ने किया था. इनकी 17 सूत्री मांगों में प्रमुख थी सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों पर्याप्त पूँजी नहीं दिया जाना जिससे बैंको के  निजीकरण के हालात पैदा हो जाएँ . ऑल इंडिया बैंक एम्प्लाइज असोसियेशन ने अपने एक बयान में कहा है कि “ बैंकों के निजीकरण का मतलब है बैंकों में जक्मा आम आदमी के 80 लाख करोड़ रुपयों का निजीकरण.यह देश और आम जनता के लिए खतरनाक है. निजीकरण का अर्थ  है कृषि, ग्रामीण विकास और शिक्षा जैसे प्राथमिक क्षेत्र  के लिए ऋण से इनकार . ”  इनकी अन्य  मांगों में शामिल थी कार्पोरेट ऋण के एन पी ए के मामले में उसे बट्टे खाते में डाले जाने कि नीति को ख़त्म करने, ऋण लेकर जान बूझ कर नहीं लौटाने को फौजदारी अपराध घोषित किया जाय और एन पी ए की  वसूली के लिए  संसदीय समिति कि अनुशंषाओं को लागू किये जाने की  मांग शामिल थी. यह पहला मौक़ा नहीं था जब बैंक के कर्मचारी हड़ताल पर गए थे. पिछले साल भी जब पूरा देश जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय  में सहिष्णुता पर बहस  में उलझा था उसी समय महत्वपूर्ण बदलाव आया जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और यह बदलाव उस वक़्त अनदेखा रह गया. इस दौरान सरकार ने सार्वजानिक क्षेत्र के  बैंकों में अपनी हिस्सेदारी बहुत कम कर दी. हिस्सेदारी घटा  कर 51 प्रतिशत कर दी गयी. सरकार की इस घोषणा का देश भर के बैंक कर्मचारियों ने विरोध किया. इस हिस्सेदारी के मामले को बारीकी से समझना होगा यह केवल बैंकों का मामला नहीं है . विमुद्रीकरण की घोषणा के ऐन पहले भारत संचार निगम लिमिटेड के निजीकरण को लेकर बात उठी थी और उस निगम के कर्मचारियों ने इसका प्रचंड विरोध किया था. जब वे हड़ताल पर  थे उसी समय सरकार ने घाटा उठा रही सरकारी कंपनियों , सहयोगी कंपनियों और चुनिन्दा उत्पादन संयंत्रों को बेचने की महत्वाकांक्षी योजना को मंजूरी दी.  यह लगभग एक दशक के बाद निजीकरण के दौर में लौटने की तैयारी थी.

   जहाँ  तक बैंकों के ऋण का सवाल है तो क्रेडिट सुईस की अक्तूबर 2015 में प्रकाशित एक रपट के मुताबिक़ उनका 3.04 लाख रुपया ऐसे कर्जों में फंसा  है  जिन्हें एन पी ए घोषित किया जा चुका है. यानी जिन कंपनियों ने यह कर्ज लिया है वे इसे लौटा नहीं पाएंगीं. अब इन्हें वसूला नहीं जा सकता है. यह कर्ज अब बट्टे खाते चला गया. लेकिन कितनी हैरत कि बात है कि कर्ज़दार कम्पनियां जमकर मुनाफ़ा कमा रहीं हैं लेकिन क़र्ज़ लौटाने कि हैसियत नहीं है उनकी. भारत के सी  ए जी  शशि कान्त शर्मा के अनुसार इस तरह के कर्जे ना केवल बैंकों के खातों में ही अशुभ  दीखते हैं बल्कि देश कि अर्थ व्यवस्था के लिए भी अशुभ हैं. अब इसके लिए सरकार क्या कर रही है? वह फकत राजस्व परित्याग (रेवेन्यु फोरगोन)  शीर्ष के तहत बट्टे खाते में दाल देती है. इन दिनों इसके लिए नया फैशनबल शब्द खोजा गया है “ टैक्स इन्सेंटिव  राजस्व प्रभाव .” 2 अगस्त 2016 को राज्य सभा में प्रश्न काल में संतोष कुमार गंगवार द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों में बताया गया था कि इस तरह राजस्व परित्याग में 2015 – 16 में 6.11 ख़राब रूपए डूब गए. राजस्व परित्याग विवरण के अनुसार कार्पोरेट कंपनियों को औसतन 7 करोड़ रूपए प्रति घंटे कि टैक्स छूट मिलती है. यानी हरसाल 5.32 लाख करोड़ रुपयों की टैक्स छूट. यह रकम 2 जी घोटाले में डूबी रकम से कहीं ज्यादा है. इसके अलावा 2005 -06 से 2013- 14 के बीच केवल कारपोरेट कर्जा माफ़ी कि रकम 36.5 लाख करोड़ थी यानी 36. 5 ख़रब रूपए. यही कारन है कि देश के 1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास देश कि 58.4 % दौलत है. और अब कर्जों को बट्टे खाते डालने का नियम बहुत बड़ी धोखाधडी में बदल चुका है. यह लगातार चल रहा है और मजे की बात है कि रिजर्व बैंक को मालूम नहीं कि ये कर्ज़दार कहाँ गए. इसके लिए एकबार सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक को डांट  भी लगाई थी.  अमरीकी वाणिज्य विभाग के मुताबिक़ एक अरब डॉलर के व्यापारिक घटे से अमरीका में 13 हज़ार से 19 हज़ार लोगों के रोज़गार खतरे में पड़ जाते हैं. अब सोचें कि भारत से 1 अरब निकला तो अमरीका में कम से कम 13 हज़ार लोगों के रोज़गार सुनिश्चित हो जातें हैं तो 36.5 ख़रब से क्या होगा? यानी सरकार जो यह रकम बट्टे खाते में डालती है उससे लगभग 80 लाख लोगों को रोजगार मिलता है अर्थात उससे  अमरीकी अर्थ व्यवस्था कायम है. यानी इन दिनों जनता की दौलत  निजी हाथों में सौंपने कि चाल चली जा रही है और यह अपने तरह कि विश्व इतिहास की  पहली घटना है. 

0 comments: