भारत में विपक्ष कहां है
बहुत से लोग हैं जो भारतीय जनता पार्टी के विरोधी हैं- यकीनन समर्थक भी- जो पार्टी के केंद्र और राज्यों में काम करने तौर तरीकों या उसकी राजनीति से निराश हैं. लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि उन्हें राष्ट्रीय अथवा राज्यों में भाजपा के विरोधी दलों को लेकर निराश अथवा असंतुष्ट होना ज्यादा जरूरी है. अब चूंकि भा ज पा वहां मौजूद है और कोई भी इसे वहां पा सकता यानी उसकी उपस्थिति का सदा अहसास होता रहता है- वह उपस्थिति चाहे केंद्र में हो चाहे राज्यों में. अभी हाल में यह बिहार में क्या देखने को मिला? तीन साल पहले जिस भा ज पा को नीतीश कुमार जली कटी सुनाते थे पिछले महीने उसी की गोद में जा कर बैठ गए. अब यह अभी तय नही है कि उनके इस कदम को अवसरवादी कहा जाय या नहीं पर महिला सशक्तिकरण के उनके दावों को देखते हुए 27 लोगों के एक कैबिनेट में एक महिला को शामिल नही कर पाने की उनकी अक्षमता विचलित कर देने वाली है.इसके अलावा एक पार्टी जो परिवारवाद और भ्रष्टाचार से लांछित है उसके मुकाबले एक ऐसी पार्टी, जो देश के लोगों में नफरत पैदा कर रही हो, का चयन करना एक सवाल उठता ही है. वह सवाल है कि विपक्ष कहां है, उसका प्रभाव कहां है. ऐसा ही तो केंद्र तथा अन्य राज्यों में भी हो रहा है. यह तब और चिंताजनक हो जाता है जब यह दिखता कि भा ज पा का फैलाव बढ़ता जा रहा है और विपक्ष ना केवल सिकुड़ रहा है बल्कि तेजी से निस्तेज होता जा रहा है. इसके कई कारण हैं. पहला कि कांग्रेस खुद को परिवारवाद से मुक्त नहीं करा पा रही है. इसके साथ ही राहुल गांधी बेशक एक बेहतरीन इंसान हैं पर उनमें उस सियासी करिश्मे का अभाव है जो आज के भारत में किसी पार्टी को विजयी बना दे. समय बदल चुका है. गंवई वर्ग प्रगल्भ है और राहुल जैसे महानगरीय वर्ग का नुमाइंदा बगलें झांक रहा है. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह भावना उन्हीं लोगों में ज्यादा आती जो हीनता भाव से ग्रसित हैं. थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें और यह भी मान लें तब भी जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की राजनीतिक पटुता क्या राहुल में है? किसी अनाड़ी को भी अंतर साफ दिखेगा. कम्युनिस्टों की भी वही हालात है. वे आपस में ही विभाजित हैं. इसके अलावा उसमें या तो सर्वहारा का प्रवेश है या यूनिवर्सिटी डिग्री वालों की. फिर भी आप यदि कम्युनिस्ट हैं तब भी माओ वादियों वाली क्रांति थोड़े ही कर सकते हैं. बाकी दलों का जहां तक सवाल है वे ताक़तवर क्षेत्रीय नेताओं या खास परिवारों द्वारा संचालित दलों के पिछलग्गू हैं. कभी कभी सेकुलरिज्म , लोकतंत्र, मानवाधिकार जैसे जुमले उछलते ज़रूर हैं पर वे सामयिक होते हैं या चुनाव जीतने का यंत्र की तरह होते हैं. संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि देश में फिलहाल कोई उल्लेखनीय विपक्ष नहीं है. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह ग्रास रुट स्तर पर कायम है. यह कथन एक छल है. क्योंकि इसे गईं नहीं सकते और किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष के लिए पार्टी की शक्ल में होना ज़रूरी है. भाजपा के जो पुराने लोग हैं वे इस बात से गुरेज करते हैं . उनका कहना है कि देश में विपक्ष बिखरा हुआ है या संकीर्ण दायरे से घिरा है. किसी भी लोकतंत्र के लिए जीवंत विपक्ष ज़रूरी होता है. लेकिन भट्ट में ऐसा नही दिख रहा है. इससे भी बड़ी राजनीतिक विपदा है कि भारत में सही और मुद्दा आधारित विपक्ष नहीं है. भा ज पा का आदर्श साफ है , एकदम स्पष्ट. लेकिन विपक्ष के पास कोई आधार ही नहीं है. यह सरकार का विकल्प पेश ही नहीं कर पा रहा है और ना विपक्ष एकजुट दिखता है. जबकि लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय.
Wednesday, August 9, 2017
भारत में विपक्ष कहां है
Posted by pandeyhariram at 6:30 PM
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