भारत की ट्रेन दुर्घटनाएं
शनिवार को मुज़फ्फर नगर के खतौली में कलिंग एक्सप्रेस की दुर्घटना के बाद रेलवे मंत्रालय पर प्रश्नों कि बौछार आरम्भ हो गयी. ऐसा होना उचित भी है. इस घटना में 23 लोग मारे गए और 153 आहत हो गए. विगत तीन वर्षों में हुईं लगभग 350 रेल दुर्घटनाओं यह भयानकतम है. वर्तमान रेल मंत्री सुरेश प्रभु के मंत्रित्व काल की इसे सर्वाधिक बड़ी घटना कही जा सकती है. घटना के दो दिनों के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा कि सरकार में नाम मात्र को भी नैतिकता नहीं है. उन्होंने कहा कि सरकार “ इवेंट मनेजमेंट और मीडिया मनेजमेंट का मिला जुला संगठन है .” जब प्रभु ने मंत्री पद सम्भाला तो आई आर सी टी सी के तहत खान पान व्यवस्थाओइन में कई सुधार किये जिसकी तारीफ होने लगी. बाद में खाने कि क्वालिटी को लेकर लोग इसकी आलोचना करने लगे. हालाँकि इसकी अर्थ व्यवस्था को बहुत कम लोग जानते हैं. पहली बात कि यह रेलवे कि संस्था नहीं है बल्कि यह रेलवे मंत्रालय और निजी भागीदारी के आधार पर चलता है. यह ना पूरी तरह रेलवे की है और ना निजी है यह एक मिली जुली व्यवस्था है, यह किसी को जवाबदेह नहीं हैं. लेकिन इसी के जरिये खान पान में सुधार कर सरकार ने वाहवाही तो लूट ली पर यात्रियों की सुरक्षा को नज़रंदाज़ कर दिया. 2012 मेविन गठित काकोडकर कमिटी ने पटरियों के सुधार और वैकेंसीज भरने की आवश्यकता पर बल दिया था. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. 2015 में भी विवेक देबराय कमिटी ने कुछ ऐसा ही सुझाव दिया था पर कुछ नहीं हो सका. रेलवे के पास धन का आभाव है. धन के लिए सरकार ने राज्यों से अनुरोध किया कि वे सब्सीडी में हिस्सा दें पर ऐसा कुछ नहीं हो सका. 29 राज्यों में से केवल 9 राज्यों ने ही इस पर हस्ताक्षर किये. अंततोगत्वा कमिटी ने निजी क्षेत्र के प्रवेश कि अनुशंसा की. इसका जमकर विरोध हुआ. राजनितिक दबाव के कारन ऐसा नहीं हो सका जबकि सच यह है कि र्तेल्वेय को हर साल लगभग 6 अरब डॉलर का घाटा होता है. इस वर्ष अप्रैल के आखिरी दिनों में रेल मंत्री ने घोषणा की कि 23 स्टेशनों को छोड़ कर अब इसका निजीकरण नहीं किया जाएगा. देब्राय कमिटी की तीन अनुशंसाओं में से डो को तो निरस्त कर दिया गया, जबकि ये सब रेल के सुरक्षित परिचालन में कारगर थीं. अब रेलवे ने सुरक्षा से ध्यान हटा कर लग्ज़री पर लगाना शुरू कर दिया. या यों कहें कि जो भारतीय अभिजात्य वर्ग को अच्छा लगता है उसने वही करना शुरू किया. अब ऐसे हालात में रेलवे की नाकामयाबी के लिए सरकार कि आलोचना गलत कही जायेगी. ऐसी आलोचनाएं अक्सर जनता को अर्थव्यवस्था से अनजान रखने के लिए की जातीं हैं. अब रेलवे पर आपराधिक लापरवाही का आरोप एक देश कि सामूहिक चेतना को नज़रंदाज़ करना कहा जाएगा. दरअसल इस देश में ऐसे मामलों में राजनीति ही सचमुच हत्यारिन है. प्रशसनिक और निगरानी के अभाव के आरोप एक तरह से आर्थिक और राजनितिक भावशून्यता को छिपाना है. कांग्रेस और मनीष तिवारी ने एक बहस छेड़ दी है कि कैसे एक दुर्घटना के मामले में 1956 में लाल बहादुर शास्त्री और एक विमान दुर्घटना को लेकर माधव राव सिंधिया ने 1993 में अप्नेव अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था. जिन्होंने उस वक्त का इतिहास पढ़ा होगा उन्ह्गे मालूम होगा कि शास्त्री जी का इस्तीफा प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु ने स्वीकार किया था और दोनों कि सहमति से इसे दबा कर रखा गया था. 1988 में एक ट्रेन के नदी में गिर जाने के कारण 100 यात्री मरे थे. उस समय माधव राव सिंधिया रेल मंत्री थे , उन्होंने इस्तीफा भी दिया था पर तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने उसे मंजूर नहीं किया था. बाद में जब वे उड्डयन मंत्री थे तब इम्फाल में भारतीय वायु सेना का विमान दुर्घटना ग्रस्त हुआ था. जिसमें 100 से ज्यादा लोग मरे थे. इस मामले में उन्होंने इस्तीफा दिया था . अब तिवारी इन मामलों कि मिसाल पेश कर रहे हैं. अब इस समय उन मामलों कि मिसाल देना गैर जिम्मेदारी है. रेलवे कि क्षति और जान माल कि हानि को रोकने के लिए रेलवे को सरकार और सियासत से मुक्त रखा जय. उसे स्वायतता प्रदान की जाय. ये ना हो सके तो कम से कम पूंजीवादी बुद्धिहीन आलोचनाएँ ना की जाएँ. पहले सुधार हो तब बात हो वरना लाशों पर सियासत ना की जाय.
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