फिर शुरू हुई भाजपा भगाओ मुहीम
जब भी अपने देश में आम चुनाव की तारीखें नज़दीक आने लगतीं हैं विपक्षी दल एकजुट होने की कवायद शुरू कर देते हैं लेकिन चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के बाद उनमें दरार दिखने लगती है. महज तृणमूल कांग्रेस को छोड़ देश में विपक्षी दलों में ऐसा कोई दल नहीं जिसमें चुनाव के दौरान भगदड़ ना मचती हो. इसबार फिर एकजुटता के प्रयास शुरू हो गए हैं और 18 विपक्षी दलों के बड़े नेता रविवार को पटना में एक मंच पर एकत्र हुए. इनमें प्रमुख थे पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्या मंत्री अखिलेश यादव, जदयू के शरद यादव, डी राजा,बाबु लाल मरांडी , सी पि जोशी , हेमंत सोरेन इत्यादि प्रमुख थे. इस अवसर पर ऐतिहासिक गाँधी मैदान में रैली का आयोजन हुआ. बताते हैं 7 लाख क्षमता वाला यह मैदान आधा भरा हुआ था . बिहार के 20 जिलों में बाढ़ आयी हुई है और इसके बाद इतने लोगों का एकत्र होना अपने आप में एक सन्देश है. इस रैली में ममता बनर्जी ने कहा कि “ मैं लालू जी पूरा बरोसा करती हूँ और यहाँ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए आयी हूँ. उन्होंने कहा कि बीजेपी यह समझती है कि केवल वही रहेगी बाकी सब ख़त्म हो जायेंगे लेकिन एक समय ऐसा आयेगा कि उसके सिवा साड़ी पार्टियां कायम रहेंगी. ” लालू प्रसाद यादव ने बिहार में महागठबंधन को भंग करने के लिए मुख्य मंत्री नितीश कुमार को जम कर कोसा. सबने एकस्वर से संकल्प लिया कि इस बार भाजपा को उखाड फेकेंगे क्योंकि देश को बचाने के लिए यह ज़रूरी है. इस रैली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उपाध्यक्ष राहुल गाँधी , बसपा की मायावती , एनसीपी के शरद पवार शामिल नहीं हो सके थे. सोनिया गाँधी का ऑडियो सन्देश रैली में सुनाया गया और राहुल गाँधी का लिखित सन्देश पढ़ कर सुनाया गया. इओस मंच से नारा दिया गया कि “ भाजपा भगाओ देश बचाओ. ” यह नारा उस समय दिया गया है जबकि हिमाचल प्रदेश को छोड़ पूरे उत्तर भारत में भाजपा का शासन है और यह उसपर पहला गंभीर हमला है. इस रैली में भीड़ को देख कर और उइसकी प्रतिक्रयाओं को अगर देखें तो समझा जा सकता है कि लोग भाजपा शासन में सम्प्रदायवाद और शासन से अपेक्षाएं पूरी ना होने के कारन लोग उससे असंतुष्ट हैं.
लेकिन यहाँ एक सवाल उठता है कि एकजुटता का यह प्रदर्शन क्या थोड़ी देर से नहीं हुआ और थोड़ा छोटा नहीं था? दूसरे शब्दों में कहें कि यह विपक्षी एकता 2019 में भाजपा को गद्दी से उतारने में सफल हो जायेगी? तीन कारणों से यह प्रश्न महत्वपूर्ण है.
पहला कि विगत तीन वर्षों में भाजपा ने विपक्ष को तहस नहस कर दिया. यह भारतीय जनजीवन की सियासी मिसाल बन गयी है. जबसे भाजपा सत्ता में आयी है तबसे विपक्षी एकता की बातें चल रहीं हैं पर कोई सकारात्मक नतीजा नहीं दिख रहा है. राज्य स्तरीय दल क्षेत्रीय राजनीती में उलझे हुए हैं. मसलन सपा में अखिलेश यादव और मुलायम सिंह आपस में उलझे हुए हैं. सपा को पहले अपना ही घर ठीक करना होगा. उसी तरह राजद ख़ास कर उसके नेता भ्रष्टाचार के लिए बदनाम हैं जो सफलता में अवरोध पैदा कर सकती है. एन सी पी का तीन वर्षों से सेकुलर गठबंधन से ठाडा गरम चल रहा है. एक मात्र बची कांग्रेस जो अपने जीवन के सबसे बड़े संकट से जूझ रही है दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, जनता दल (एस), झामुमो इत्यादि क्षेत्रीय राजनीती में उलझे हुए हैं. वामपंथी दल भी सैधांतिक झंझटों में उलझे हुए हैं.
इसके बावजूद रैली की कामयाबी ने आगे का रास्ता तो खोला ही है. लेकिन इसके लिए इसके नेताओं को अपनी अदूरदर्शिता को टाक पर रखने के लिए बहुत म्हणत करनी पड़ेगी और भाजपा पर सैद्धांतिक आक्रमण करना होगा. यहाँ यह ध्यान देने की बात है की बहु जन समाज पार्टी और सबसे बड़ी वामपंथी ताकतर सी पी आई (एम) इस शक्ति प्रदर्शन से अलग थी. विगत तीन वर्षों में अगर किसी विपक्षी ताकत ने भाजपा सरकार को परेशान किया है तो वह है देश भर में दलित एकजुटता की शुरुआत और और केरल तथा त्रिपुरा में वामपंथी विपक्ष. लेकिन यह नया प्रयास बसपा और सी पी आई (एम्) को भरोसे में नहीं ले सकी.
महागठबंधन से अलग इस शक्तिप्रदर्शन में कोई भी ऐसी पार्टी शामिल थी जो भाजपा के लिए किसी अन्य राज्य में कठोर चुनौती बन सके यहाँ तक की वे साझा मोर्चा खोलें तब भी. अब ऐसे मामूली चुनावी महत्त्व को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये किसी सामान घोषणा पत्र पर सहमत नहीं हो सकेंगे. इ८स्के अलावा विपक्षी दलों को आगे बढ़ने के लिए पीछे से एक जोरदार धक्का चाहिए. बिहार में जबतक महागठबंधन नहीं जीता था तबतक विपक्षी दलों का बहुत बड़ा भाग भारी सुस्ती का शिकार था. जब बिहार में महागठबंधन विजयी हुआ तो लालू ने फख्र से घोषणा की थी कि वे विपक्षी दलों की मदद से देश भर में भाजपा विरोधी आन्दोलन चलाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं सका उलटे नितीश भाजपा के साथ आ गए. यही नहीं भाजपा हिन्दुओं को एकजुट करने में लगी है विपक्ष इस स्टार पर सोच ही नहीं पा रहा है. इनमें से अधिकाँश वही जाती आधारित वोट बैंक पर निर्भर हैं.
ऐसे राजनितिक सन्दर्भ में भाजपा के लिए इस रैली को नजरअंदाज करना सरल है. भाजपा ने रविवार की उस रैली को भ्रष्टाचारियों का गठबंधन कहा है.
अगर भाजपा के इस बडबोलेपन का तुरत विरोध नहीं हुआ तो भारतीय समाज ऐसे दो ध्रुवों में बाँट जाएगा जिसका कोई वास्तविक सामाजिक आर्थिक अजेंडा नहीं होगा. इससे भाजपा को हिंदुत्व के अपनेर अजेंडे को आगे बढाने में सहूलियत होगी. इन सबके बावजूद यह प्रशंसनीय शुरुआत है. अगर रैली को मापदंड माना जय तो यह बेकारी और मूल्यवृद्धि से पीड़ित लोगों में उम्मीद ज्कागा रही थी. इसमें कोई जाती या संप्रदाय शामिल नहीं था. इसकी सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि यह एक विश्वसनीय सामाजिक आर्थिक अजेंडा पेश करे जो भगवा पार्टी से अलग हो.
0 comments:
Post a Comment