आज कृष्ण को समझना सबसे ज्यादा ज़रूरी है
आज जन्माष्टमी है . गीता के उद्गाता कृष्ण का जन्मदिन.आज विश्व में जो सामाजिक जो सामाजिक , राजनितिक और आर्थिक स्थिति है उसमे कृष्णा को समझना और उनके उद्देश्यों को अंगीकार कर लेना सबसे ज्यादा ज़रूरी है. सम्पूर्ण भारतीय जीवन को एक बिम्ब में प्रक्षेपित करने वाला यदि कोई प्रतिक है तो कृष्ण है. यह चुनाव सरल नहीं है क्योकि यह भारत भूमि मर्यादा पुरुषोत्तम राम , बुद्ध , शंकर और एनी संतों कि भूमि रही है. इसी तरह गीता ही दुनिया में एकमात्र ऐसी पुस्तक है जो योग से लेकर अध्यात्म तक की शिक्षा देती है. गीता के उद्गाता कृष्ण ने मानव जीवन और क्रिया को अध्यात्म से जोड़ कर जो प्रगल्भ है, जो तात्विक सौन्दर्य है जो अचरजभरा है सबको एक साथ व्याख्यायित किया है. कृष्ण यह बताते हैं कि मनुष्य एक साथ देह जीवी और बुद्धिजीवी दोनों है और देहमूलक अपेक्षाओं के आधार पर मनुष्य राजनितिक संस्थाओं में मूल्यों की तलाश करता है. राज्य यानी शासन मानवीय संबंधों का परम व्यस्थापक है . उसकी सत्ता केवल उसका एक पक्ष है और उस शक्ति से समर्थित व्यवस्था और नीति दूसरा पक्ष है. कृष्ण बताते हैं कि दंड समर्थित राजनितिक आदेश किसी प्रकार धर्म को प्रतिष्ठित करने का औज़ार बन सकते हैं पर धर्म का साक्षात् उपकार नहीं कर सकते. राज्य केवल एक नियामक सत्ता है जो मनुष्य के सामाजिक मूल्यों को अनुशासन प्रदान करती है. जनता कि शक्ति तंत्र में बांध कर उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा ही नहीं करती है बल्कि सत्ता को स्वछन्द होने से बचाती भी है. जब जब यह स्वछंदता बढ़ी है तब तब लोक चेतना जागृत हो उठी है- यदा यदा हि धर्मस्य....., इसी जागृति का आश्वाशन है. हमारे देश की मनीषा और जनता ने महाभारत काल से लेकर स्वतन्त्रता संघर्ष के काल तक में इस आश्वाशन का अनुभव किया है. अब देखिये राजा( जो आज हमारे मंत्री गन हैं) का कर्म भोग और शासन ही नहीं जनता के सुखों, सुविधायों का ख्याल रखना भी है. कृष्णा राजा हैं पर जन के बीच निमाज्जित हैं, उनके बीच काम करते हैं , सहज भाव से जनता कि सेवा करते हैं, - भोजन करत नंदलाल, संग लिए ग्वालबाल...... . कितनी सहजता है इस राजा में , फिर मूल्यों कि स्थापना के लिए कष्ट क्यों होगा? यही कारन है कि केशव ने जो कुछ भी कहा या जो कुछ भी किया वह आज तक प्रशंसनीय है , लोगों का इसके प्रति समर्पण भाव है. यह समर्पण सत्ता के आगे घुटने टेकना नहीं है बल्कि सहज सहयोग की उस सीमा तक जाकर उसकी शक्ति को क्रियात्मकता देने कि गारंटी है जहाँ लोभ नहीं है , संकोच नहीं है एकात्मकता है. जीवन के यथार्थ का सच्चा भोग ना भोगने वाला राजा जन का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं करता. कृष्ण तो आरम्भ से ही जन के बिच रहे हैं. जन के बिच ही खेले , पढ़े तो उन्हें जनता के सुख दुःख का अहसास क्यों न हो. सुदामा जब मथुरा पहुँचते हैं तो उनका सहपाठी राजा उन्हें गले लगा लेता है- दुर्बल विप्र कुचाल सुदामा ताको कंठ लगायो....., यही नहीं सुदामा कि गति देख कर रो पड़ता है – नैनन के जल से पग धोये..... . बात यहीं नहीं ख़त्म होती है, कृष्णा ने सुदामा कि दरिद्रता को जड़ से मिटाया तभी उन्हें छोड़ा. यह शासन है. मानव जीवन कि सुरक्षा के लिए , कर्म परायणता के लिए अर्थ आवश्यक है. अर्थ के अंतर्गत सभी उपयोगी तथा उपभोग्य वस्तुओं कि आवश्यकता होती है इसलिए अर्थ का उत्पादन से और उत्पादन से मनुष्य का सीधा सम्बन्ध होता है. मनुष्य का जेवेवान कर्म और भोग कि व्यवस्था है. सामाजिक , राजनितिक और आर्थिक मूल्य संस्थानों का विकास मनुष्य के व्यवहारिक जीवन के कारन हुआ . लोक जीवन में आर्थिक आग्रह के साथ जीवन प्रक्रिया में बदलाव आया. जब यह आरती आग्रह सीमा हीन होने लगा और कर्म उसकी प्राप्ति के उद्देश्य से होने लगे तो कृष्ण ने निष्काम कर्म कि व्यवस्था दी – कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः .... . गौर करेंगे कि अर्थ के प्रति उदासीनता जहां सुदामा को गरीबी कि रेखा से नीचे रहने के लिए बाध्य करती है वहीँ युग कि अपेक्षा बनकर उनकी पत्नी इस गरीबी को दूर करने के लिए बाध्य करती है.यही नहीं कृष्णा का जीवन एक सबक है कि छोटे बड़े सबको अर्थ उपार्जन के लिए श्रम करना होगा क्योंकि आर्थिक कारन ही जन शक्ति निर्बल बना देता है और शासन निरंकुश हो जाता है . कृष्ण राजा हैं और गाय चराते हैं. अलौकिक सौन्दर्य कि स्वामिनी गोपियाँ गाँव गाँव दही बेचने जाती हैं- नव सैट साजि सिंगार जुवती सब , दधि मटुकी लिए आवत.... . यही नहीं राधिका भी दूध बेचने जाती है- गोरस राधिका ली निकरी.... . कृष्ण खुद गाय चराने जाते हैं. कृष्ण क्रांति के उद्घोषक हैं. उनकी क्रांति केवल धर्म कि चेतना में बदल जाने वाली क्रांति नहीं है वह आर्थिक राजनितिक पहलू को स्वीकार कर चलने वाली क्रांति है. इसी क्रांति कि आज भी जरूरत है. आज विश्व आर्थिक मोह, ज्ञान के दंभ, राजनितिक विस्तारवाद, प्रकृति का दोहन और धर्म के नाम पर हिंसा का बोलबाला है . हमें आज कृष्ण के उपदेशों कि ज़रुरत इसलिए है कि हम उनकी सृजनात्मक प्रेरणा , कूटनीतिक गरिमा और क्रीडा तथा हर्ष में आध्यत्मिक भाव से परिपूर्ण उनके जीवन से कुछ सीख सकें. हमें कृष्ण कि बांसुरी एक बार फिर सुनानी होगी और उसके अध्यात्मिक अर्थ समझने होंगे. जय श्रीकृष्ण
अहो बकी यं स्तनकालकूटम
जिघांसया पाययदप्यसाध्वी
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोअन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम
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