अन्न की उपज बढ़ रही है, अन्नदाता खुदकुशी कर रहा है
भारत सरकार के 2016 के आंकड़े बताते हैं कि विगत 6 दशक में देश में अनाज उत्पादन पांच गुना बढ़ा है। लेकिन सच तो यह है कि कृषि उत्पादन में वृद्धि के बावजूद देश का कृषि क्षेत्र और किसान दोनों की हालत दयनीय है। इसका मुख्य कारण खेतों का घटना और अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले उत्पादन का कम होना। आंकड़े बताते हैं कि विगत आधी सदी खेतो के समग्र रकबे में आधी कमी आई है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1950-51 में खाद्यान्न का उत्पादन 50.82 मिलियन टन था जो 2015-16 में बढ़ कर 252.22 मिलियन टन हो गया। यानी 1950-51 के 522 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का उत्पादन 2015-6 में बढ़ कर 2056 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया। हालांकि भारत में दलहन की फसल सर्वाधिक होती है। यहां औसतन 659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होता है। लेकिन 2014 में यह ब्रिक्स देशों सबसे कम है। एफ ए ओ 2014 के आंकड़े बताते हैं कि खाद्यान्न के उत्पादन में भारत का ब्रिक्स देशों की सूची में सबसे नीचे के क्रम में दूसरा स्थान है। इसके ऊपर वाले पायदान पर रशिया है।यहां 2444 किलोग्राम प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। चीन में सबसे ज्यादा उत्पादन होता है। यहां खाद्यान्न का उत्पादन 5888 किलोग्राम प्रति हेक्टर और दालों का उत्पादन 1725 किलोग्राम प्रति हेक्टर था। काम उत्पादन का मुख्य कारण भारत में मानसून पर कृषि की निर्भरता। यहां 52 प्रतिशत खेतों में सिंचाई की सुविधा नहीं है। मानसून की बिगड़ती हालात इस दुख को और बढ़ा देती है। " स्टेट ऑफ इंडियन एग्रीकल्चर 2015-16" की रिपोर्ट के मुताबिक छोटे किसानों की पीड़ा मानसून के बिगड़ने के कारण और बढ़ जाती है। छोटे और मझोले किसान सिंचाई के आधुनिक साधन नही अपना सकते। उनके लिए छोटे खेतों में आधुनिक मशीनों का उपयोग भी कठिन है। लगातार फसल की उपज में कमी और फसल के मारे जाने से बदेहते कर्ज के बोझ से 2015 में 4659 किसानों ने आत्म हत्या कर ली। इन समस्याओं के प्रभाव के कारण भारतीय अर्थ व्यवस्था में कृषि का योगदान लगातार घटता रहा है।2015-16 में देश में सकल मूल्य का 17.5 प्रतिशत योगदान था जबकि 2011-12 में 18.2 प्रतिशत था और 214-15 में 18 प्रतिशत था। आंकड़े इशारे कर रहे हैं कि या आवेदन और घटेगा। इसके मुकाबले सेवा क्षेत्र का आवेदन बढ़ रहा है।यह 2012-13 के 50 प्रतिशत से बढ़ कर 2015-16 में 52.9 प्रतिशत हो गया । भारत की कृषि का विकास दर भी उतर चढ़ाव से भरा है। यह 2012-13 के 1.5 से बढ़ कर 2013-14 के 5.6 हो गया, यह 2013-14 में -0.2 प्रतिशत हो गया जो 2015-16 में 0.7 हो गया। इसका प्राथमिक कारण है कि अपने देश की आधी खेती मानसून पर निर्भर रहती है। पिछले कई सालों से पर्यावरण के बदलाव से मानसून का कोई ठिकाना नहीं है। अनिश्चित मानसून के कारण खेती पर बहुत बुरा असर पड़ता है। उधर तापमान के बढ़ने के कारण से उत्पादन भी प्रभावित होता है। भारत में खेत सिकुड़ रहे हैं, उनके रकबे घट रहे हैं। 1970-71 में खेतों का औसत मालिकाना 2.28 हेक्टर था जो 2010-11 में घट कर 1.15 हेक्टर हो गया। देश के 85 प्रतिशत खेतों की दशा यही है। भारत में 67 प्रतिशत खेत छोटे किसानों के पास हैं।जिनका औसत रकबा 1 हेक्टर से भी कम है। बड़े खेतिहरों की संख्या तो 1 प्रतिशत से भी कम है। किसानों को खेती में लगाने का भी अभाव है। सरकारी कर्ज़ भी बड़े किसानों को ही मिलता है अतएव छोटे किसान महाजनों से कर्जा लेते हैं या खेती ही छोड़ देते हैं। मझोले किसान भी कर्जदार हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के खेतिहर परिवारों के सर्वे के मुताबिक औसत मझोले किसान पर 47 हज़ार रुपये कर्ज़ हैं। अलबत्ता कर्जदारों की औसत संख्या में क्षेत्र के अनुसार अंदर है। मसलन आंध्र के 93 प्रतिशत मझोले किसान कर्जदार हैं जबकि मेघालय के 2.4 प्रतिशत मझोले किसानों पर कर्जा है।
किसानों में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज़ है। 2015 में 3097 किसानों ने केवल कर्ज़ नहीं चुका पाने की शर्मिंदगी के कारण खुदकुशी की जबकि फसल नारे जाने के कारण महज़ 1562 लोगों ने आत्महत्या की। आत्महत्या करने वाले कुल किसानों में से 72.6 प्रतिशत छोटे(45,2 प्रतिशत) आउट मझोले ( 27.4 प्रतिशत) है। भूमि के आकार के अनुरूप एन सी आर बी ने किसानों की चार श्रेणी बनाई है।हाशिये पर के किसान( 1 हेक्टर से कम) , छोटे किसान ( जिनके पास 1 हेक्टर या 2 हेक्टर से कम ज़मीन है), मध्यम दर्जे के किसान ( 2 हेक्टर या 10 हेक्टर से कम), बड़े किसान ( 10 हेक्टर) से ज्यादा। 1995 से 2015 के बीच 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की। केवल 2015 में 12602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्म हत्या की। जबतक कर्ज़ का बोझ कम नहीं होगा आत्महत्याएं नहीं रुकेंगी। लरकीं इस ओर ध्यान नही दिया जाता क्योंकि सियासत के लिए वे बहुत कीमती नहीं हैं।
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