मजदूर बनते जा रहे किसान : भरी संकट के संकेत
हरिराम पाण्डेय
भारत किसानों का देश रहा है और आरंभिक दिनों में देश की लगभग 75 % आबादी कृषि पर निर्भर थी. इसके बाद श्वेत, हरित क्रांतियों के माध्यम से देश कई वर्षों तक खाद्यान्न में आत्म निर्भर रहा. भारत कृषि प्रधान देश कहा जाता था. अब यह पूँजी प्रधान देश हो गया है. देश का शासन यहाँ की सरकारें चला रही है. जिसमें अफसर और मंत्री हैं . ये मंत्री देश के नाम पर, सुधार के नाम पर और जनता के नाम पर जो कुछ भी चाहते हैं कर रहे हैं. उद्देद्श्य रहता है की बड़े अमीरों, पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों का लाभ बढाने का मौक़ा मिले. इसके लिए चाहे किसानों , कृषि मजदूरों को उनकी जमीन से उखाड़ कर शहरों में मजदूरी करने के लिए मजबूर क्यों न करना पड़े . देश में बेरोजगारों की लगातार बढती आबादी का मुख्य कारण यही है. 1965 का वह मंजर बहुतों को याद होगा की तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने अमरीकी लिंडन जोंसन की आलोचना कर दी थी और ताकत के गुरूर में अमरीका ने भारत को खाद्यान्न की आपूर्ति रोक दी थी . देश में हाहाकार मच गया. खाद्य संकट के जवाब में शास्त्री जी ने राष्ट्र से अपील की कि सोमवार को देशवासी एक वक्त उपवास करेंगे. देश ने उनका अनुसरण किया और अमरीका की ऐंठ ख़त्म हो गयी. इसके बाद श्वेत क्रांति आयी , हरित क्रांति आयी और हम खाद्यान्न के मामले आत्म निर्भर हो गए. इस आत्म निर्भरता के पीछे एक वित्तीय कारण भी था. 1970 में जब एक स्कूल टीचर का वेतन ९० रूपए हुआ करता था तब गेहूं का निम्नतम समर्थन मूल्य 76 रूपए हुआ करता था . किसानो को अपनी उपज की अच्छी कीमत मिलती थी, अच्छा बाज़ार था. बाज़ार को बेहतर बनाने के लिए भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की गयी. अकाल से लड़ने की यह एक अच्छी रणनीति थी. जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते होंगे की ब्रिटिश राज में देश में 28 भरी अकाल पड़े थे. अकाल से तभी मुकाबला किया सकता है जब देश में जुझारू कृषि समुदाय हो. जब तक ऐसा रहा देश में अकाल इतिहास की बात हो गयी थी .
लेकिन 1991 से हालात बिगड़ने लगे. विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ ) के गठन के बाद देश धीरे धीरे किसानो से विमुख होने लगा. अमरीका और इंग्लैण्ड में दूध, माखन और खाद्यान्न की म्बहुतायत होने लगी जबकि हमारे देश में अभाव शुरू हो गया. अनाज का समर्थन मूल्य का बढना रोक दिया गया या बहूत मामूली बढ़ा जबकि 1970 से 2015 के बीच स्कूल टीचर्स का वेतन 320 गुना बढ़ गया. इस अवधी में सरकारी कर्मचारियों का वेतन 150 गुना और कॉलेज के प्रोफेसरों की तनख्वाह 170 गुना बढ़ गयी. यह जानकार हैरत होती है कि इस अवधि में गेहूं की कीमत फकत 19 गुना बड़ी है. खेती घाटे का धंधा बन गयी. इसके बाद जो इस देश में हुआ उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती थी. 1996 में विश्व बैंक ने सरकार को निर्देश दिया कि 2015 तक कम से कम 40 करोड़ लोगों को खेती से हटाया जाय. पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कई बार कहा कि 70 प्रतिशत किसानों को अन्य कामों में लगाने की ज़रुरत है. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघु राम राजन ने कहा कि भारत में सबसे बड़ा सुधार तभी होगा जब किसानों को खेती से अलग कर दिया जाएगा. उसी सूरत में ढांचागत विकास के लिए सस्ते मजदूर मिल सकेंगे. तीन दशक पहले जब से आर्थिक सुधार आरंभ हुआ कृषि को नज़रंदाज़ किया जाने लगा. खेती महँगी होने लगी और किसान खेती छोड़ कर सहरों में मजदूरी करने के लिए बाध्य हो गए. इस बीच खाद्यान्न का आयात तेजी से बढ़ा. केवल 2015 -16 में 1 खरब 40 अरब 26 करोड़ 80 लाख रूपए का खाद्यान्न आयात किया गया. यह राशि देश के कृषि के वार्षिक बजट से कहीं ज्यादा है. आयात का यह दौर तब आया जब किसानों को खेती से हटाने का अभियान चला हुआ था.
खाद्यान्न की महंगाई के बहाने किसानों को लगातार कीमतें कम दी जाने लगीं. यह रकम इतनी कम हो गयी की उन्हें अपनी उपज की लागत तक नहीं मिलती. वे कर्ज में डूबने लगे और खेती छोड़ने लगे. क्या विडंबना है की सरकार बेरोजगारी मिटाने की बात करती है और अनाज का आयात करती है. अनाज का आयात एक अर्थ में बेरोजगारी का आयात है. अनाज के उत्पादन का पहला अघात छोटे किसानो पर पडा और वे गाँव छोड़ कर शहर चले गए. लेकिन जो नीति निर्माता हैं या अर्थ शास्त्री हैं उन्हें इससे कोई फर्क पडा. उनकी निगाह आर्थिक स्तिथि के सृजन पर है और इसके लिए किसानो को खेती से अलग करना है. बेरोजगारी बढती जा रही है और कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि केवल खेती ही देश को बेरोजगारी से मुक्ति दिला सकती है. छोटे किसान जिनकी संख्या ज्यादा है , रोजगार के अभाव में खेती से जुड़े हैं और क़र्ज़ के गर्त में डूबते जा रहे हैं. यह एक ऐसा चक्रव्यूह जिससे निकलना कठिन है. इसी कठिनाई से पराजित हो कर किसान आत्म ह्त्या कर रहे हैं. यह हैरान कर देने वाला तथ्य है की किसानों की आधी आबादी लगभग 58 प्रतिशत किसानों को दोनों जून का भोजन नसीब नहीं होता. खेती का अर्थ शास्त्र हर साल बिगड़ता जा रहा है. २०१६ के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 17 राज्यों के किसानों के परिवारों की वार्षिक आय महज 20 हज़ार रूपए है. एक गे को पलने में लगभग 17 सौ प्रति माह खर्च लगता है. यानी एक किसान एक गाय भी नहीं पाल सकता.
अब किसान आन्दोलन कर रहे हैं लेकिन उससे कुछ होगा इसमें भारी संदेह है. मजदूर बन गए किसानो को खेती की और लौटाने का शायद ही कोई उपक्रम हो. यह देश की ज़मीन को कोर्पोरेट क्षेत्र को सौपने की गहरी साजिश है. राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद् की रपट से यह साफ़ हो जा रहा है कि अगले पांच वर्षों में कम से कम 38 प्रतिशत किसानों को खेती से हटा कर दूसरे कामों में लगाया जाय. राजगार का बाज़ार सिकुड़ रहा है . विगत 13 वर्षों में महज 1.6 करोड़ नौकरियां उत्पन्न हुईं हैं जबकि इस अवधि में 16.25 करोड़ नौकरियों के उतपन्न होने की उम्मीद थी. अब जब छोटे और हाशिये पर के किसान बेरोजगारों की इस भीड़ में जुड़ गए तो हालत और दयनीय हो गयी. जान बूझ कर खेती को ख़त्म किया जा रहा है. छोटे किसानों को शहरों में धक्के खाने के लिए धकेल दिया जा रहा है. अनाज तो कोर्पोरेट फार्मिंग या आयात से मिल सकता है लेकिन रोजगार का क्या होगा. भूख से तड़पती एक विशाल भीड़ कुछ भी कर सकती है. यह साफ़ दिख रहा है की देश एक भरी संकट की और बढ़ रहा है.
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