आतंक बनते ऑन लाइन गेम्स
इन दिनों समाज में एक नए किस्म के ऑन लाइन गेम की चर्चा है , वह है ब्लू व्हेल. सुना जा रहा है कि इस गेम कि अंतिम परिणति आत्म ह्त्या तक है या खेलने वाले बच्चों कि मौत तक है. अगर कहा जाय कि यह भी एक ड्रग कि श्रेणी में है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसका नशा और इसकी लत ठीक वैसी ही है जैसी किसी ड्रग का होता है. मनोशास्त्रियों के अनुसार इसका असर मानसिक कोशिकाओं पर ठीक वैसा ही हो रहा है जैसा किसी ड्रग का होता है. भारत में इसे खेलने वाले तीन बच्चों के आत्म ह्त्या और डो को ऐन मौके पर बचा लिए जाने कि सूचना है , हो सकता अनधिकृत आंकड़े इससे ज्यादा हों. कुछ लोग अभी भी मान रहे हैं कि यह एक साहसी खेल है. इसकी इजाद रशिया में कुछ साल पहले हुई थी और वहाँ अबतक सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं उनमें अधिकाँश बच्चे हैं. लेकिन अब यह खेल खतरनाक आकार ले चुका है क्योकि अब ना केवल इसमें भाग लेने वाले यानी इसे खेलने वालों कि संख्या बढती जा रही है साथ ही इसका क्षेत्र भी विस्तृत होता जा रहा है. इसे खेलने वाले ना केवल अपने बर्बाद करने पर आमादा हैं बल्कि खुद को मिटा देने के लिए भी तैयार हैं. सवाल उठता है कि एक पीढ़ी क्यों इस तरह के ऑनलाइन गेम कि व्यसनी हो रही है और एक मैसी आभासी दुनिया में प्रवेश कर रही है जहां से निकलना मुमकिन नहीं है. ऐसी स्थिति में अगर हम केवल तमाशबीन बने रहे तो अच्छा नहीं कहा जाएगा. कई खेल सैडिस्ट होते हैं जिसमें शारीरिक यातना से आनंद आता है.ब्लू व्हेल नाम के इस खेल में भी कुछ ऐसा ही है. इसमें शरीक होने वाला एक अज्ञात खतरे के साथ आनद अनुभव करता है और जैसे जैसे ख़तरा बढ़ता जाता है आनंद कि अनुभूति और बढती जाती है. इसमी शरीक होने वाले लोग पहले घर के सामान तोड़ते हैं फिर अपने शारीर को काटते हैं, गर्म सलाखों से दागते हैं , इस तरह से बर्बादी कि शुरुआत होती है जो अंत में आत्म हत्या और वह भी जैसे किसी बहुमंजिली इमारत की सबसे ऊंची मंजिल से छलांग लगालेना इत्यादि होती है. हमारे भारतीय समाज में जहां रोजगार का भरी अभाव है, शिक्षा प्रणाली कुछ ऐसी है कि बच्चों के मन पर भरी बोझ सा पैदा कर रही है. इसके अलावा छात्र जीवन में भरी प्रतियोगिता और यह भाव कि समाज में सामान्यता के लिए कोई जगह नहीं है , बच्चों – किशोरों और नौजवानों के मन में भारी हीन भाव पैदा कर रहा है. जिससे उनमें भारी कुंठा बढती जा रही है. इस लिए वे कोई ऐसा शगल चाहते हैं जिससे वे समाज से बदला ले सकें. और वैसा नहीं कर पाने के कारन वे खुद को दण्डित कर आनद महसूस करते हैं. अब ज़रा सोचें कि एक असुरक्षित किशोर या कुंठित किशोर जो समाज में हर जगह पराजित और अपमानित हो रहा है उस वक्त कितनी ख़ुशी महसूस करता होगा जब वह इस गेम के डो तीन राउंड जीत जाता होगा. यह गेम कुछ इसी तरह का है ही कई आरंभिक राउंड आसानी सर जीता जा सकता है. अब यहीं से नशा चढना शुरू होता है. अभी यह अपने देश में महानगरों के बेकार किशोरों में या ऐसे किशोरों में जो परिवार में रह कर भी अकेले रहते हैं और वंचना का जीवन जीते हैं उन्हीं के बीच फ़ैल रहा है और धीरे जब यह छोटे शहरों तथा कस्बों में प्रवेश करेगा तो एक भरी समस्या का रूप ले लेगा. मध्य पूर्व एशिया के कई देशों में यह फ़ैल चुका है और वहाँ की पुलिस ने अभिभावकों को सचेत करना शुरू कर दिया है. भारत में यह अभी शुरू ही हुआ है.
इसी तरह पिछले महीने एक गेम आया था “ मरियम” , जिसमें एक खोई लड़की को जंगल में रास्ता बताना था. देखने में यह सादा से इस खेल से दरअसल कई ऐसे एप्स जुड़े थे जो इसे खेलने वालों की तसवीरें , उसके आसपास के हालत और अन्य विवरण देते थे और उन विवरणों का दुरूपयोग होना शुरू हो गया था. बाद में पता चला कि यह किसी आतंकी संगठन ने शुरू किया है. पुलिस ने तत्काल इसके बारे में लोगों को सचेत करना शुरू कर दिया कि नौ जवानों को लुभाने के लिए आतंकी संगठन ऑन लाइन गेम्स का उपयोग कर रहे हैं.
आज बड़े स्कूलों में जहां बच्चों को टेबलेट्स और लैप टॉप्स पर पढ़ाना और होमवर्क ई-मेल करने के लिए कहा जाना शुरू हुआ तबसे इस तरह के खतरे और बढ़ गए हैं. एक भोले भाले बच्चे या एक कुंठित किशोर का ब्रेनवाश करने में बहुत मामूली समय लगता है. अगर एक अभिभावक के तौर पर हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे तो अपने बच्चों को खो देने का भारी न्कह्त्रा है. अब वह समय नहीं है कि माँ बाप दोनों काम करें और बच्चे दाईओं के भरोसे पल जाएँ और होस्टल में रह कर पढ़ लिख लें. बच्चों में हीनभाव पैदा हो रहा है तो यह अभिभावकों के लिए चेतावनी है. अवसाद , चिडचिडापन और हारमोंस मुख्य मनोवैज्ञानिक मसले हैं. जब कॉलेज में एडमिशन के लिए 99 प्रतिशत कट मार्क हो जाएगा तो हमें एक बार फिर अपनी प्राथमिकताओं के बारे में सोचना होगा. यहाँ परिवार को खडा होना पडेगा अपने बच्चों का सर्थन करना होगा. लेकिन क्या हम तैयार हैं. आभासी सोशल प्लेटफार्म के माध्यम से बच्चों के दुरूपयोग कि खबरों और लगातार चेतावनियों के बाद भी फेसबुक कि टाइम लाइन बच्चों और किशोरों से भरी पाई जाती है. इसका पहला इलाज है कि हम खुद को सुधारें , खुद सचेत रहे तब ही बच्चों को सुधार सकेंगे.
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