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Sunday, February 11, 2018

कासगंज के चश्मे से 

कासगंज के चश्मे से 
आज जो दंगे हो रहे हैं उनका स्वरूप कुछ ऐसा है जो लगता है कि यह कुछ कथाओं या आख्यानों का मंचन है जिन्हें देखना भी गलत है और सुनना भी  बड़ा अजीब है। आज दंगे किए नहीं जाते और ना कारणों पर निर्भर नहीं करते हैं। दंगे अब एक तरह से उपभोक्ता वस्तु बन गये हैं। ऐसी स्थितियों में एक खास सीमा के भीतर कई तरह की कथाएं प्रचलित कर दी जाती हैं और उन्हें इतिहास से  जोड़ने की कोशिश की जाती है । ऐसे में वास्तविक घटना एक खास सीमा के भीतर होती है लेकिन वह कहानियों के रूप में चारों तरफ फैल जाती है । कासगंज की घटना भी कुछ ऐसी ही है। कासगंज की. घटना का अगर हम विश्लेषण करते हैं तो बड़े डरावने निष्कर्ष मिलेंगे। पहले एक छोटी सी घटना होती या की जाती है, धीरे धीरे उस घटना में कहानियां और आख्यान जुड़ने लगते हैं । मसलन बात फैलाई जा रही है कि कासगंज का दंगा एक साजिश है ,अखलाक की हत्या का बदला लेने की। इस आधार पर मांग की जा रही है कि कासगंज की घटना में मृत व्यक्ति को अखलाक से ज्यादा मुआवजा मिले और उसे शहीद का दर्जा दिया जाए। वह देश के लिए मारा गया है। अब यहां देश का तत्व क्या है यह समझ में नहीं आता। आज दंगे सदा दो बार होते  हैं। एक बार तो सड़कों पर और दूसरी बार वीडियो क्लिप्स में। वीडियो के इन क्लिप्स में सदा झूठ के तत्व भरे होते हैं।  उन क्लिप्स को देख कर ऐसा  लगेगा कि जो कुछ हुआ वह तो होना ही था । कासगंज की घटना के बारे में मिली जानकारी से  यह स्पष्ट होता है कि तिरंगा यात्रा की पहले से तैयारी थी , तो फिर क्या कारण है  सरकार ने इसके लिए एहतियात नहीं बरता । 
कासगंज  सरीखी हिंसा को समझने के लिए हमें वर्तमान राजनीति के चरित्र को समझना पड़ेगा । कासगंज हिंसा पर मुख्यमंत्री ने अफसोस जताया और राज्यपाल ने इसे कलंक बताया यह राजनीति का एक पहलू है। मुख्यमंत्री और राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह इस तरह की घटना की निष्पक्ष जांच कराएं। ल राजनीति का एक दूसरा पक्ष है सियासी ध्रुवीकरण का खेल। जो ऐसे मामलात में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। राजनीति के दो अर्थ होते हैं पहला राज करने की नीति और  राज हासिल करने की नीति। इन दोनों में सामान्य तौर पर एकरूपता दिखती है पर इन में जमीन- आसमान का फर्क है । राज करने की नीति और राज हासिल करने की नीति अलग-अलग होती है । खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस ने भी  मौके-बेमौके सियासी लाभ के लिए धर्म का 'भयानक' उपयोग किया है। शाहबानो का मामला राम मंदिर का ताला खुलवाना इस सियासी पाखंड के नमूने कहे जा सकते हैं।  इस बार  2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी है। देश की सियासत इस समय दो धाराओं में बंटी  हुई स्पष्ट  दिख रही है । एक धारा के माध्यम से  धर्म आधारित है अस्मिता को  जाति आधारित अस्मिता में तब्दील कोशिश हो रही है ।  क्योंकि इसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही है। धार्मिक तौर पर  विभाजित होने के बाद जातियों के नए समीकरण तैयार होंगे । और इसके आधार पर वे नए तरह से मतदाताओं को संगठित करेंगे।  दूसरी धारा है धर्म आधारित बहस को राष्ट्रवाद का चोला पहनाने की। 2014 लोकसभा  चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर भाजपा ने यही किया था । इस आधार पर जबरदस्त धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गये। 2019 में महासमर होने वाला है। प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी का जोर रहेगा कि वे मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर दें। इसबार  सत्ता विरोधी हवा भी रहेगी।  इसलिए जरूरी है कि जातीय अस्मिता को पीछे धकेल कर  राष्ट्रवाद के चोले में धार्मिक अस्मिता का खेल होगा। इस समय इस नीति पर काम भी चल रहा है । अभी हाल में एक ऐतिहासिक फिल्म से एक बार कासगंज की पूरी तस्वीर को जोड़ कर देखिए। एक नई तस्वीर दिखेगी। फिल्म को लेकर भारी बवाल हुआ। कासगंज की यह घटना  उसी कड़ी का एक हिस्सा था।  राज्य सरकार बड़े सुनियोजित ढंग से संगठनों को और फिर खिलजी के बहाने एकता का  धार्मिक राष्ट्रीय ध्रुवीकरण की कोशिश हो रही है। राजस्थान में ध्रुवीकरण की राजनीति को पूरी कामयाबी नहीं मिली। लेकिन इससे एक लाभ.मिला कि पिछले कुछ समय से दलितों और पिछड़ों के लिए चल रहा आंदोलन लोगों के ध्यान से  हट गया।   फिर धार्मिक अस्मिता की भाषा शुरू होगी या नहीं यह अभी नहीं कहा जा सकता। भाजपा की जमीन तैयार हो गई है। कासगंज उसी की कड़ी है इसे अलग करके नहीं देखा जा सकता।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बातों में वजन नहीं दिखता है । ऐसा लगता है कि उनके समर्थन से एक समूह  समाज को भंगुर बनाता जा रहा है। चारों तरफ खतरे तथा हिंसा का वातावरण बनता जा रहा है। इससे एक भूभाग ऐसा तैयार हो रहा है  जिसमें एक समुदाय को सदा चिंतित-शंकित  रहना पड़ रहा है। एक बड़ा प्रश्न है कि आखिर क्या कारण है कि दंगे सरकार की स्मृति से इतनी जल्दी गायब हो जा रहे हैं? दूसरा कि  वह कौन सी प्रक्रिया है जो दंगों को शहरी जीवन के लिए सामान्य बनाती जा रही है।  इसके लिए गहन शोध और गंभीर तफ्तीश की जरूरत है। जबतक ऐसा होगा तबतक   कासगंज भी इतिहास की कब्र में दफन हो चुका रहेगा। सत्ता ऐसे प्रश्नों  को नजरअंदाज कर देती है। ऐसे में यह समाज का काम है कि इन प्रश्नों को सरकार के सामने लाए और उससे इसका उत्तर मांगे ताकि जीवन सामान्य हो सके।

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