व्यापक बदलाव की ओर बढ़ता समाज
इन दिनों हमारे देश में खासकर मध्यवर्गीय समाज में राजनीति की सरगर्मियां बहुत तेज हैं। तरह- तरह के नारों और वायदों से समाज आप्लावित है। खासकर पकौड़ा विमर्श और घोटाला आख्यान चरम पर है। यह राजनीतिक समाज विज्ञान और मनोविज्ञान के नजरिए से एक परिवर्तनकारी स्थिति है। यह बात सुनकर सहसा कई ज्ञानगुमानी लोग नाराज हो जाएंगे और कई लोगों को यह तो बहुत कड़वी लगेगी। लेकिन, यह मानना होगा कि आज हमारे देश के सबसे बड़े समुदाय मध्यवर्ग वैचारिक आंदोलनों से दूर होता जा रहा है। उसकी सोच , उसका रोल मॉडल बहुत तेजी से नकारात्मक होता जा रहा है। हम अपने नागरिक कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण चुनाव के समय दिखता है जब मतदान केंद्रों पर गरीब और साधनहीन लोगों की लंबी कतार लगी रहती है और कुछ प्रभावशाली अमीर लोग वोट डाल कर निकल जाते हैं। यही नहीं देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में वस्तुतः शहरी मध्यवर्ग ही भाग लेता है गांव के लोग खासकर गरीब तो केवल वोट डालते हैं। इससे समाज में खास किस्म का हीन और उच्च भाव का निर्माण होता है। उच्च भाव ग्रस्त लोग अपनी शिक्षा , प्रभाव और कभी-कभी दौलत के बल पर आगे बढ़ते जाते हैं। गरीब अपनी गुरबत और हीन भाव के साथ इस एहसास में पड़े रहते हैं कि वे ससरकार बनाने तथा गिराने का दम रखते हैं। धीरे- धीरे इस मध्यवर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनजाने में अधिनायकवादी सत्ता के ढांचे का समर्थक बन जाता है। इसमें शामिल चुनिंदा लोग आम आदमी के सामाजिक न्याय के रास्ते में रोड़े अटकाते हैं ताकि उनका वर्चस्व कायम रहे। क्योंकि ऐसे मध्यवर्गीय समाज के ज्यादातर लोग बौद्धिक रूप से क्लांत और सियासत में निष्क्रिय रहते हैं। अतएव, अपने बचाव के लिए ऐसे ताकतवर नेता की तलाश करते हैं जो अनियंत्रित भीड़ को भरमा कर काबू में रख सके। यहीं से तानाशाही की शाखा फूटती है। यह अक्सर देखा जाता है कि उच्च मध्यवर्गीय समाज के खर्चे उनकी आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा होते हैं। यह अक्सर गैर कानूनी और भ्रष्ट स्त्रोतो से आया हुआ धन होता है। हमारे भारतीय समाज में भ्रष्टाचार गहराई तक फैला हुआ है। यहां मध्यवर्ग उपभोक्तावाद और भ्रष्टाचार की सांठगांठ में भागीदार होता है। जो सरकार संसाधन और धन के पुनर्वितरण के लिए अमीरों पर टैक्स लगाती है उन्हें उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है और वही लोग ऐसी सरकार को अपदस्थ कर अधिनायकवादी व्यवस्था को स्थापित करते हैं। वह व्यवस्था गरीब करदाताओं से वसूले हुये पैसे अत्यंत अमीरों को प्रदान करती है। यही कारण है कि भारतीय व्यवसाय और कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए लोग नव उदारवादी आर्थिक एजेंडे को समर्थन देते हैं। नव उदारवादी आर्थिक एजेंडा कई ऐसे उपायों को आगे बढ़ाता है जिससे अमीर वर्ग लाभ उठा सकता है। मसलन, ट्रेड यूनियन का खात्मा, व्यापार प्रतिबंधों को कम किया जाना. अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका का कम होना, कल्याणकारी कार्यों पर खर्च में भारी कटौती , सरकारी क्षेत्र का निजीकरण, करों में रियायत इत्यादि। इससे विदेशी और देसी अमीरों को लाभ पहुंचता है। विगत 20 वर्षों में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू करने में, दोनों मुख्य राजनीतिक दल चाहे वह कांग्रेस हो चाहे वह बीजेपी, सक्रिय रहे। यह बात प्रचारित की गई कि देश का मध्य वर्ग विकसित हो रहा है। लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है। इससे केवल अमीरों और कारपोरेट क्षेत्रों का हित ही सधा है। फर्क केवल मूड का है। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था को लागू करने की नारेबाजी का है। पिछली सरकार "इंक्लूसिव ग्रोथ" का नारा देकर आई थी और यह राष्ट्रभक्ति जैसे नारों के बीच " स्किल डेवेलपमेंट " और पकौड़े बेचने की बात करने लग गई। अक्सर यह बताया जाता है कि हमारे देश में मध्यवर्ग बहुत ताकतवर है और वर्चस्वशाली है। लेकिन यह सही नहीं है। कुछ दिन पहले दो फ्रांसीसी अर्थशास्त्रियों थॉमस पिकेटी और लुकास चांसिन ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। रिपोर्ट का शीर्षक था " इंडियन इनकम इनइक्वलिटी 1922 टू 2014 - फ्रॉम ब्रिटिशराज टू बीलिनियर राज", उसमें कहा गया है कि इस अवधि में केवल 10% लोगों को आर्थिक उदारवाद से लाभ हुआ है। उनमें भी 1% लोग और ज्यादा अमीर हो गए हैं। इस रिपोर्ट से यह समझा जा सकता है कि आर्थिक उदारवाद का भारतीय मध्यवर्ग पर क्या असर हुआ। इसके आंकड़े बताते हैं शाइनिंग इंडिया केवल 10% लोगों के लिए था यानी 130 करोड़ भारतीयों में से केवल 10-12 करोड़ लोगों के लिए था, जबकि भारत में मध्यवर्ग की आबादी लगभग 40% है। इस रिपोर्ट में इसे 49% माना गया है। यही नहीं, जरा उन हालातों को भी देखें जिनमें लोग काम कर रहे हैं। उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? औपचारिक क्षेत्र में मात्र आठ प्रतिशत लोग कार्यरत हैं बाकी के 92 प्रतिशत (यदि सबको रोजगार में लगे मान लें तो ) अनौपचारिक क्षेत्रों में लगे हुए हैं। 2011 के आंकड़े बताते हैं सरकारी क्षेत्र में एक करोड़ 73 लाख लोग हैं जबकि आईटी क्षेत्र में केवल दो करोड़ 80 लाख लोग लगे थे। यह कुल रोजगार की जरूरत का मात्र 0.6 प्रतिशत है। बिजनेस सर्विसेज 0.9 प्रतिशत की दर से बढ़ा और 1993- 94 में 1.5% लोग इसमें रोजगार पा सके हैं। जो 2011 -12 में बढ़ कर 2.6 प्रतिशत हो गया। इससे स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि भारत की कुल कार्य शक्ति का केवल 10% ही सारे आर्थिक कारोबार में जुड़ा है। इस संख्या का भी एक दिलचस्प रहस्य है। भारत की सिर्फ 5% आबादी जो लगभग 6.3 करोड़ होती है वह वह यूरोप के कई देशों की आबादी से ज्यादा है और सिर्फ 10% लोग यानी 12.5 करोड़ आबादी यूरोप के किसी भी देश से ज्यादा है। यही लोग भारतीय समाज माने जाते हैं। क्योंकि विदेशी बाजार केवल इसी वर्ग पर आधारित है। लेकिन ये 12.30 करोड़ लोग भारतीय समाज के लिए औसत नहीं माने जा सकते। यानी एक बहुत बड़ा भाग है जो रोजगार विहीन है तथा कुछ कर पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन वोट डालने में बड़ी भूमिका निभाता है। आज का पकौड़ा विमर्श इन्हीं भूखे-नंगे लोगों को लुभाने का एक प्रयास है। यहां एक गंभीर समाज वैज्ञानिक परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है भारत जिसके मध्यम वर्ग का उदय 1858 के आसपास हुआ था और 1950 के आसपास या परवान चढ़ा उसका आज स्वरूप बदलता जा रहा है। धीरे-धीरे वह मजदूर वर्ग में परिणित होता जा रहा है। हो सकता है भविष्य में इसका स्वरूप विकराल हो जाए लेकिन आज गनीमत है कि इस परिवर्तन के कारण समाज के पास खोने के लिए कुछ नहीं है।
0 comments:
Post a Comment