CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Friday, February 16, 2018

नोटबंदी के बाद अब वोटबंदी की तैयारी

नोटबंदी के बाद अब वोटबंदी की तैयारी
अब से 68 साल पहले 26 जनवरी 1950 को बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि "हम अब आज से एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट की एक कीमत के नए अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं । " इस वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हमारे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा "हमारा गणतंत्र अपने लोगों से बना है। नागरिक सिर्फ एक गणराज्य को ही नहीं बनाते बल्कि उसके अंतिम हितधारक और खंभे हैं। " लेकिन, इसके विपरीत प्रधानमंत्री जी ने लोक सभा और विधानसभा चुनाव एक साथ  कराने को लेकर एक राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है।  एक साथ चुनाव का मतलब लोगों को मताधिकार से वंचित रखना। मताधिकार लोकतंत्र का सबसे बड़ा मूल्य है । आखिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करा कर लोगों को अलग अलग समय पर होने वाले चुनाव से वंचित करना चाहते हैं ? 
आप भारत देश के निवासी हैं । आपने कई चुनाव देखे होंगे। चुनाव खुद में एक बेहद सशक्त  अनुभव है। लोग मतदान प्रक्रिया में भाग लेते हैं और जहां तक मालूम है भाग लेने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती । इसके बाद उनके अंदर एक एहसास पैदा होता  है कि वह 1 वोट से सरकार बना देते हैं या गिरा देते हैं। रोमन ऐतिहासिक कथाओं की तरह एक मामूली डेविड ताकतवर गोलीयथ को पराजित कर देता है । शायद यही कारण है कि मतदान के आसपास सबसे गरीब आदमी सबसे ज्यादा खुश दिखता है और सरकार को एक तरह से चेतावनी देता रहता है । यहां उन लोगों की बात नहीं की जा रही है जो मतदान प्रक्रिया में शामिल ही नहीं होते। कभी मतदान के बाद उंगली पर लगी स्याही के निशान दिखाते हुए लोगों के चेहरे देखने का मौका मिला होगा। उन्हें महसूस होता होगा कि जैसे लोग एक युद्ध जीत गए । इतनी खुशी जाहिर करते हैं लोग।
  अब हमारे प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि बार-बार मतदान कराने से सरकारी खजाने का नुकसान होता है और सक्षम अधिकारियों का दुरुपयोग होता है तथा शिक्षक इत्यादि जो इसमें नियुक्त किए जाते हैं उनका समय बर्बाद होता है। सही नहीं है। मौलिक अधिकारों के पालन- संरक्षण के लिए सार्वजनिक खर्च कोई दलील नहीं है। जिन्होंने राजनीतिक इतिहास पढ़ा होगा वे जानते होंगे इंदिरा गांधी को अपनी मनमानी का परिणाम केंद्र में ही नहीं राज्यों में भी भुगतना पड़ा था। 1970 में कांग्रेस की सरकार उत्तर प्रदेश और बिहार में बुरी तरह पराजित हो गई थी। इसका मतलब यह है इमरजेंसी के विपरीत लोगों ने इंदिरा जी को राज्यों में भी पराजित  करने के लिए लंबा इंतजार नहीं किया। मौजूदा समय में गुजरात , दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाव इसके उदाहरण हैं। 2014 के चुनाव में भाजपा ने इन राज्यों में भारी विजय हासिल की थी। लेकिन दो ही वर्ष में इसी जनता ने इन राज्यों में उन्हें सबक सिखा दिया। गुजरात में बीजेपी हारते- हारते बची ।गुजरात में जहां 2014 में भाजपा ने सारी 26 सीटें जीती थी उसी राज्य में  3 वर्षों में उसके कई कट्टर समर्थक  खिलाफ हो गये। राज्यसभा में अभी भी भाजपा का बहुमत नहीं है। लोकसभा  चुनाव और विधानसभा चुनाव का अलग-अलग समय पर होना राज्यसभा को एक पृथक पहचान देता है । जो लोकसभा से अलग भी हो सकता है। दोनों सदनों में एक ही पार्टी का अंकुश रखना लोकतंत्र के लिए हानिकारक होता है । केंद्र और राज्यों में एक साथ मतदान कराने से दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार बनने की प्रबल संभावना रहती है। खासकर 2014 जैसे लहर में। अगर लोकसभा और राज्यसभा एक ही पक्ष  वर्चस्व में आता है तो मनमानी तरीके से कानून को बदला जा सकता है। संविधान के बुनियादी ढांचे में बदलाव जैसे खतरनाक कदम भी उठाए जा सकते हैं। खासकर ऐसे मौके पर जब भाजपा के सांसद ताल ठोक कर कहते हैं कि संविधान बदलने के लिए ही पार्टी सत्ता में आई है। ऐसे में मतदाताओं को बार-बार अवसर नहीं मिलते तो उनके मौलिक मतदान अधिकार का हनन होता है।  अलग-अलग चुनाव के मामले में  हर चुनाव के साथ लोकतंत्र मजबूत और मतदाता ज्यादा समझदार खुद होता जाता है। उसे किसी नेता को उसकी गलती सजा देने के लिए 5 साल तक इंतजार करने की जरूरत नहीं रहती। जनता अपने मताधिकार का राज्य चुनाव में प्रयोग कर केंद्र के प्रति गुस्से का इजहार कर सकती है। मोदी जी ने गत वर्ष नोटबंदी कर दिया था। अब "एक देश एक बार मतदान " की व्यवस्था कर जनता के हक को 5 साल तक छीन लेने की साजिश की जा रही है। धन और समय की बचत के आड़ में इसे पेश करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लागू होने से लाखों-करोड़ों लोगों की हक प्रभावित होगा और यह एक तरह से लोकतंत्र पर आघात होगा। लोकतंत्र पर भरोसा रखने वाले लोग इसके बारे में ठीक से सोचें।

0 comments: