हुकूमत का यह कैसा हुनर
वित्त विधेयक 2018 कि आखिर में पैरा 19 में एक संशोधन जोड़ा गया है जिस पर बहुत कम लोगों की नजरें पड़ती हैं। संशोधन है वित्त अधिनियम 2016 की धारा 236 में गुपचुप संशोधन कर दिया गया है। इस संशोधन शुरुआत में लिखा गया है कि " 26 सितंबर 2010 की धारा को 5 अगस्त 1976 में परिवर्तित कर दिया गया है। " यानी, एक झटके में वित्त अधिनियम 2018 को 38 साल पीछे धकेल दिया गया। इसे 2010 से लागू कर दिया गया था जो अब 2016 होता हुआ 1976 तक पहुंच गया। इसका स्पष्ट अर्थ है 1976 में वित्त अधिनियम में जो प्रावधान थे आज भी कायम रहेंगे। नया कानून और उसकी परिभाषा पुराने से बदल दी गई। वित्त अधिनियम 2016 की परिभाषा बदल कर 1976 के अनुरूप कर दी गयी। 1976 में वित्त अधिनियम को रद्द कर दिया गया था और फिर उस में मामूली परिवर्तन के साथ 2010 में उसे लागू किया गया। वित्त अधिनियम 2016 में विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम ( फॉरेन करेंसी रेगुलेशन एक्ट, एफ सी आर ए ) 1976 में बदलाव किया गया था। खास कर , विदेशी कंपनी की परिभाषा को बदलने के लिए इस तरह के परिवर्तन किये गये थे। इस अधिनियम के अनुसार 2010 के पहले प्राप्त किए गए विदेशी कंपनियों से चंदे इस से बाहर रहेंगे। अब जबकि इसे 38 साल पहले से लागू कर दिया गया यानी 1976 से लागू कर दिया गया उसके बाद से प्राप्त किए गए विदेशी चंदे भी इस अधिनियम की पहुंच से बाहर रहेंगे। गैर-सरकारी संगठनों के लिए "विदेशी अंशदान" को गला घोंटने विशेष रूप से विपक्षी दलों का असंतोष को कम करने के लिए इंदिरा गांधी सरकार द्वारा एफसीआरए अधिनियमित किया था । 1976 में एफसीआरए के तहत एक विदेशी कंपनी को 50 प्रतिशत से अधिक विदेशी स्वामित्व वाले के रूप में परिभाषित किया था। जिससे विदेशी नागरिकों या भारतीय मूल के लोगों की विदेशों में स्थित कंपनियों और विदेशी नागरिकता के स्वामित्व वाली कंपनियों को भारत में राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति नहीं दी गई थी। वित्त अधिनियम के जरिए इस कानून में 2016 में संशोधन किया गया कि पूरी तरह विदेशी कंपनी होने का क्या मतलब है? नया संशोधन इसलिए किया गया है देश की दो बड़ी पार्टियों को , भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को, दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2014 में लंदन स्थित एक कम्पनी से धन स्वीकार करने का दोषी पाया था। 2016 में व्यवस्था की गई थी कि हर पार्टी को यह घोषणा करनी होगी कि वह किसी विदेशी कंपनी या विदेशी स्रोत से चंदा नहीं हासिल कर रही है। खासकर उस विदेशी कंपनी से जिसकी पूंजी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा के भीतर ना हो। विदेशी मुद्रा नियमन कानून के तहत वह कंपनियां आती हैं जिनका मालिकाना 50% से ऊपर विदेशी ना हो चाहे वह कंपनी विदेश में ही क्यों ना हो। क्योंकि ऐसा समझा जाता है कि इस तरह की कंपनियां सरकार पर प्रभाव डालने के लिए चंदे देती हैं। वित्त विधेयक 2016 के माध्यम से इसमें संशोधन का प्रयास किया गया था। इसमें यह कहा गया था कि किसी विदेशी की भारतीय कंपनी या किसी भारतीय की विदेशी कम्पनी तब तक विदेशी न कही जाए जब तक कि वह उस विशेष क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा से ऊपर ना हो। लेकिन इस बार उसे स्पष्ट रुप से 1976 से लागू कर दिया गया। इसकी सबसे बड़ी विडंबना है कि एक झटके में 1976 से अब तक प्राप्त गैरकानूनी राशि को कानूनी बना दिया गया। जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 को ताक पर दिया गया। जबकि इस अधिनियम के तहत कई विदेशी चंदों पर नजर रखी जा रही थी। यही नहीं, कई गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्थाओं पर छापे पड़ रहे थे। जब राजनीतिक पार्टियों के नाम पर विदेश से धन आता है तो उसके लिये अलग कानून है और जब स्वयंसेवी संगठनों के लिए यही धन आता है तो उसे दूसरे चश्मे से देखा जाता है। यह स्पष्ट रूप से पाखंड है और हमारे देश की आर्थिक और सामाजिक नीतियों का मखौल है। चंदे की रकम का यदि मोटे तौर पर जायजा लिया जाय तो विदेश को छोड़िये देश के नौ चुनावी न्यासों ने 2013-14 से 2016-17 के मध्य राजनीतिक दलों को 637.54 करोड़ रुपयों का चंदा दिया है। इसमें 488.94 करोड़ रुपये का चंदा केवल भाजपा को मिला है। इसके बाद कांग्रेस को 86.85 करोड़ रुपये का चंदा मिला है। ए डी आर की एक रिपोर्ट के अनुसार चुनावी न्यासों द्वारा दिये गये कुल चंदे का 92.30 प्रतिशत यानी 588.44 करोड़ रुपये पांच राष्ट्रीय दलों की जेब में गये हैं। इसमें सबसे अधिक भाजपा की जेब में गया है। ए डी आर की रपट के मुताबिक 2013-14 में चुनावी न्यासों ने 85.37 करोड़ रुपये चंदा दिये जबकि 2016-17 में यह 325.27 करोड़ हो गया। चुनावों में बढ़ता चंदा इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र में धनतंत्र का प्रभाव बड़ रहा है और यह एक तरह से स्वस्थ व्यवस्था के लिये खतरनाक कहा जा सकता है।
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