खुशी का बढ़ता संकट
विश्व कैंसर दिवस के अवसर पर बहुत से डॉक्टरों को सुनने को मिला। सबने कहा कि,कैंसर को केवल को केवल भीतर की खुशी पराजित कर सकती है। यह खुशी अन्य रोगों के लिए भी रामवाण है। लेकिन खुशी आएगी कहां से ? आज के दौर में जब बेलगाम होती महत्वकांक्षाओं के कारण इंसान अधिकाधिक संग्रह करने का पक्षधर होता जा रहा है। जरूरतें इच्छाओं में बदलती जा रही हैं । ऐसी वस्तुएं जिनका जीवन में कोई महत्व नहीं है लेकिन उनको रखना जरूरी होता जा रहा है। मानव जाने-अनजाने दिशाओं में आगे बढ़ता जा रहा है और इस आगे बढ़ने में तनाव को अनवरत आमंत्रित कर रहा है। समय और दूरी फतह करने के चक्कर में विज्ञान ने धर्म को पराजित कर दिया है। अध्यात्म हारा हुआ सा महसूस हो रहा है। मानसिक तौर पर हम अपने साथ अपना निजी इतिहास लिए चलते हैं । हमारे अतीत और भविष्य के बीच खींचतान करता रहता है वर्तमान। यह इच्छाओं की वृद्धि का कारण है। कुछ साल पहले विख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने भारत के संबंध में कहा था "भारत सचमुच विश्व गुरु हुआ करता था ,क्योंकि इसने अध्यात्म के माध्यम से खुश होने का फार्मूला दुनिया को सुझाया था। आज उसी खुशी का संकट है। हमारा जीवन अतीत और भविष्य अखाड़ा बनता जा रहा है। मानसिक तौर पर बिंबों और प्रतीकों के रूप में अनुभव की आगामी कल्पना हर क्षण कोई-न-कोई अधूरी और अपरिपक्व परियोजना छोड़ रखती है। इन परियोजनाओं के प्रत्यक्ष या परोक्ष नायक व्यक्ति स्वयं होता है। क्योंकि हमारे स्व की दुनिया सब को केंद्र में रखकर ही रची जाती है। हम अपना स्वयं अपने रंगों से देखने आदी हैं। हमें स्वयं के अलावा कुछ सोचना ही नहीं आता है।सूचनाएं किसी से होकर हम तक पहुंचती है। इसके बाद हम उन्हें समझते हैं। रोजाना समाचारों के महासमुद्र में डूब कर भी हम कोशिश करें तब भी सात-आठ से ज्यादा खुशी की खबरें नहीं ढूंढ पाते हैं । आखिर क्यों खुशी का यह संकट हो गया है। इसलिए कि सूचनाओं के संग्रह - विश्लेषण और तदनुसार कार्य के दिशा निर्देश और उन्हें करने की प्रेरणा सब कुछ हमें बाहर से मिलती है। हमारा स्व गैरहाजिर होता जा रहा है। स्व को खोने की इस गहमागहमी में उसे आराम नहीं मिलता और उसकी ऊर्जा या कहें कि आंतरिक ऊर्जा आहिस्ता आहिस्ता कम होती जाती है। हम भीतर से कमजोर और व्याकुल हो जाते हैं। हमारी कोशिश रहती है कि हम इस कमजोरी और व्याकुलता को लगातार छुपाते रहें। आत्महीनता के कारण हम निर्णय नहीं ले पाते और जो हम कर रहे हैं वह सही नहीं है। आज चाहे वह संवाद हो या विवाद दुर्व्याख्या की वृद्धि हो रही है। सोचिए, क्या वक्त आ गया है कि मीडिया हमारी आत्म छवि को तय कर रहा है। अब मीडिया के मॉडल बताते हैं कि हमें क्या खाना चाहिए, कैसा दिखना चाहिए और कैसा व्यवहार करना चाहिए। वह हमारे संवेगों , आंतरिक आवेगों और भावनाओं पर कब्जा करता जा रहा है। हमारा व्यक्ति और हमारा स्वर मीडिया से चलाए जा रहे हैं । चौबीसों घंटे चलने वाले टीवी चैनलों की संख्या बढ़ती जा रही है और उसके साथ ही तरह-तरह के सूचनाओं का भंडार भी बढ़ता जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण के साथ ही बाजार के तंत्र का शिकंजा हमारे चारों तरफ कसता जा रहा है। यह सबसे बड़ा संकट है कि हम निर्णय की क्षमता खोते जा रहे हैं क्योंकि विकल्पों पर बाजार की बंदिश लग गई है। विकल्प लगातार कम हो रहे हैं। सोचिए हम अपने लिए आज कपड़े नहीं सिलाते हैं बल्कि सिले सिलाए कपड़ों में खुद को फिट कर लेते हैं। यह संकेत है कि हमारे निर्णय का विकल्प बिल्कुल घट गया है । यहीं आकर जरूरत होती है अध्यात्म की। क्योंकि अध्यात्म ही स्वयं को स्थापित करता है और यह कहने की ताकत देता है कि "अहम् ब्रह्मास्मि।"
Wednesday, February 7, 2018
खुशी का बढ़ता संकट
Posted by pandeyhariram at 8:20 PM
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