दुर्व्याख्या के संकट में फंसा देश
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि पकौड़े बेचना भी एक रोजगार है। उनकी इस बात पर कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने तंज किया कि अगर पकौड़े बेचना रोजगार है तो यही बात भीख मांगने के साथ भी कही जा सकती है। इसे लेकर भारतीय जनता और राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग दो खेमों में बट गये। एक पकोड़े की बात रोजगार से जोड़ रहा है दूसरा उसे निंदनीय बता रहा है। अजीब दुर्व्याख्या फैलती जा रही है, किसी भी बात को लेकर। बात केवल पकौड़े की हो तो गनीमत है। चाहे वह बजट हो या कासगंज का कांड हो या कुछ और सबको लेकर एक खास किस्म की गलत व्याख्या की जा रही है । सब लोग खुद को अकलमंद बताने के चक्कर में किसी भी चीज की गलत व्याख्या कर दे रहे हैं और बात का बतंगड़ बन जा रहा है। अब सांप्रदायिकता की ही बात लें। हमारे देश में यह सदियों से है लेकिन आज उसी को लेकर हम खूनी झगड़ों में फंस गए हैं ।अपनी उर्जा नष्ट कर रहे हैं। मध्य युग में धर्म परिवर्तन हुए थे । बहुत बड़े पैमाने पर धर्म के नाम पर अत्याचार भी हुए थे लेकिन यह भी सच है कि बहुत ज्यादा कहानियां ऐसी प्रचलित हुई जिनका वास्तविकता से कोई रिश्ता नहीं था। अब यह कोई नहीं सोचता कि वह मध्य युग था उसके नैतिक और धार्मिक मूल्य के साथ-साथ समाज व्यवस्था भी अलग थी। आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। यह मोबाइल और इंटरनेट का युग है। लेकिन हम इस सदी में भी उन्हीं सिक्कों से इसका हिसाब चुकता करने में लगे हैं । धर्म के कट्टरपंथी यथार्थ की तस्वीर पेश करते हैं। उन तस्वीरों में वास्तविकता की जटिलताओं का श्वेत-श्याम रंगों में सरलीकरण करने की कोशिश की जाती है। मध्ययुग में ऐसा नहीं था। उस समय एक तरफ देवता तो दूसरी तरफ राक्षस नहीं थे दरअसल दोनों तरफ इंसान थे खूबियों और कमजोरियों से भरे हुए इंसान । देवता और असुर इन्हीं कमजोरियां और खूबियों के दुराग्रह से निर्मित होते थे। आज अनुदार और आक्रामक प्रवृत्तियों बहुत तेजी से सर उठा रही हैं। पकौड़े की ही बात लें। पकौड़ा बनाना बेचना कोई गलत काम नहीं है।कम से कम बेरोजगारी से तो बेहतर है। बेरोजगारी निराशा और कुंठा को जन्म देती है। इससे ऊब कर यदि कोई आत्महत्या करता है तो उसका भी दोष सरकार पर और सरकार यदि छोटे-छोटे काम-धंधों को प्रोत्साहित करने की कोशिश करती है तो उसकी भी निंदा हो रही है। इस स्थिति को देखकर संवेदना सम्पन्न लोग आहत हो रहे हैं। देश में हिंसक की गतिविधियां और प्रवृत्तियां बढ़ रहीं हैं। वह सत्ता से लेकर धर्म, बाजार, सामाजिक व्यवहार , विचार ,आर्थिकी और मीडिया आदि में व्याप्त गई है या होती जा रही है। न्याय की मांग व्यापक हो रही है । लेकिन साथ ही अन्याय को पोसने के माध्यम सख्त होते जा रहे हैं, निर्मम होते जा रहे हैं। असहमतों का मसला हो या सहमति रखने वालों का पूरा समाज दो गुटों में बंट गया है । समझ में नहीं आता की आजादी ,समानता और न्याय के इस कठिन संघर्ष की निष्पत्ति क्या होगी? देश में इन दिनों व्याख्या करते समय लोग असम्मान की भाषा का इस्तेमाल करने लग रहे हैं । अपने विरोधी को या असहमत समूह को नीचा दिखाने के कोशिशें चारों तरफ फैल रहीं हैं। हम समझ नहीं पा रहे हैं ऐसी नीचता दिखाकर हम खुद को नीचा साबित कर रहे हैं । देश की अस्मिता को अगर बचाना है तो सबसे पहले असम्मान की भाषा छोड़नी होगी। व्याख्या में का समावेश करना होगा। वरना पकौड़े तो क्या बड़े-बड़े कामकाज भी आलोचना के शिकार हो जाएंगे। सरकार चुनाव में वादा करती है यकीनन अपने वादे पूरे नहीं कर पाती। उसके बाद सरकारों को जो भुगतना होता है वह उतना ही असम्मानजनक होता है जितनी सम्मान सूचक तालियां उसके वादों पर बजी हैं। राजनीतिक वर्ग को भी इससे सचेत रहना पड़ेगा। बेवजह बातों को उछाल कर जुमले बनाने से रोकना होगा। समाज को तू तू - मैं मैं से बचाने के लिए यह कदम जरूरी है। पकौड़े बनाना ,अखबार बेचना या कोई काम करना बेईमानी, चोरी से या काला बाजारी से या ठगी से या कोई गलत काम करके पेट भरने से कहीं ज्यादा प्रशंसनीय है।.. प्रधान मंत्री आलोचना के योग्य नहीं हैं। जो लोग आलोचना करते हैं वह किसी निहित स्वार्थ के तहत ऐसा कर रहे हैं। इनकी बातों में आना गलत है इनसे बचना होगा तभी समाज बचेगा।
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