हम अपने बच्चों को बचा क्यों नहीं पाते ?
एक समाज के रूप में कभी- कभी संदेह होने लगता है कि हम सचमुच बहुत सहिष्णु हैं या कायर हैं? हम अपने लोगों की भावनाओं या अपने चारों तरफ की परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं? हम एक निष्क्रिय समाज में क्यों बदलते जा रहे हैं। या, हमें अपने बच्चों की सुरक्षा के प्रति कोई चिंता ही नहीं है? हमारे बच्चे हर जगह खतरे से घिरे रहते हैं और हम दिनोंदिन इसके आदी होते जा रहे हैं। यहां तक कि बच्चों से बलात्कार और उनका शीलहरण तक हमारे भीतर गुस्सा नहीं पैदा कर पा रहा है। क्या यह समय नहीं आ गया है कि इस पर हम बात करना बंद कर दें और काम करना शुरू करें। हाल में कोलकाता में एक खाली बस में 3 साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार की खबर अखबारों में आई। इस खबर ने ठीक वैसा ही मनोभाव , वैसा ही गुस्सा पैदा किया जैसा आज से 5 साल पहले निर्भया कांड में हुआ था और इससे पूरे देश का दिलो-दिमाग दहल गया था। यह भी सही नहीं है कि इस बीच बलात्कार की और घटनाएं नहीं हुईं, लेकिन उस घटना और इस घटना में बहुत ही समानता है, खासकर जुर्म को अंजाम देने का तरीका और जुर्म के लिए चुनी गई जगह।
जब एक ऐसी घटना अबोध बच्ची के साथ होती है तो मन ग्लानि से भर जाता है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हमारे महान भारत में हर 5 मिनट पर एक बच्चे के साथ अपराध होता है। पिछले10 सालों के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं देश में बच्चों के प्रति अपराध की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही हैं। आंकड़े बताते हैं विगत 10 सालों में देश में आम जगहों पर बच्चों के प्रति अपराध की घटनाओं में 500% की वृद्धि हुई है। इनका और गंभीर विश्लेषण करने से यह पता चलता है बच्चों के अपहरण और उनके साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ीं हैं। हां, यह भी कहा जा सकता है कि पहले के मुकाबले इन दिनों घटनाओं की रिपोर्ट ज्यादा लिखाई जा रही है। कोलकाता की घटना से अलग यह भी देखा जा रहा है कि सुनसान जगहों पर ही बच्चों के प्रति अपराध नहीं हो रहे हैं बल्कि सुरक्षित जगह पर भी उनके प्रति जुर्म होते पाए जाते हैं। इसके पहले स्कूलों में जो घटनाएं हुई वह लोगों की स्मृति में अभी तक ताजा होंगी। यही नहीं, घर का वातावरण भी सुरक्षित नहीं है। घर के भीतर भी बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं सुनने में आतीं हैं। यहां तक कि निकट संबंधी भी इसमें शामिल पाए जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि बच्चे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। चाहे वह आंगनबाड़ी हो या स्कूल हो या पार्क।
इससे एक सवाल उठता है कि बच्चों की सुरक्षा एक साधारण प्रक्रिया है जिसे कुछ खास उपाय करके ठीक किया जा सकता है या यह एक प्रक्रिया श्रृंखला है जिसमें बच्चों को अपराधी के बारे में बताने के लिए तैयार करने से लेकर उन्हें सशक्तीकरण तक ले जाना होगा। उत्तर भी साधारण है। बच्चों में चेतना पैदा करनी होगी और अपराधियों को तुरंत कार्रवाई के जरिए कठोरतम सजा देनी होगी। इसके साथ ही एक मसला और भी है जिसे सुलझाना होगा। वह है हमारी सामाजिक अवस्था। मां बाप रोजी रोटी कमाने के लिए घर से बाहर चले जाते हैं और बच्चे घर में अकेले रहते हैं, जिनकी देख भाल की जरूरत होती है। इसके लिए बच्चों की देखरेख के छोटे-छोटे केंद्र स्थापित किया जाना जरूरी है। इसके लिए अभिभावकों को भी प्रशिक्षित करना बहुत जरूरी है। हमारे समाज में बच्चों की सुरक्षा को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है और न इसे गंभीरता से समझा जाता है। सामाजिक जगहों पर एक शक्तिशाली व्यवस्था करना और समाज में जागरूकता पैदा करना कि ऐसी स्थितियों में कोई भी आदमी या पुलिस हस्तक्षेप करे। यह भाव लोगों के मन में जगाना बहुत जरूरी है।
इस मामले पर तुरंत ध्यान देना होगा और बिना देर किए सावधान हो जाना पड़ेगा। एक ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि सार्वजनिक स्थल पर सरकार -मां –बाप- शिक्षक और समाज के प्रतिनिधियों को तैनात करने की शुरुआत हो और वह तुरंत कार्रवाई भी कर सके। यही नहीं, बाल सुरक्षा के बजट को भी बढ़ाना होगा और देश में इस पर एक बहस शुरू करनी पड़ेगी। लोगों के अंदर इसके प्रति शून्य सहनशीलता का भाव जागृत करना होगा। हमारे सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है कि हम अपने बच्चों को सुरक्षित कैसे रखें। हमें यह सोचना होगा कि क्या हम आने वाले वक्त में बच्चों को यही देश सौंपेंगे!
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